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आध्यात्मिक पत्रकारिता व्यापक रूप ले…

आज पत्रकारिता एवं मीडिया की भूमिका सर्वविदित है। प्रिंट, इलेक्ट्राॅनिक एवं वेब माध्यम के रूप में इसका स्वरूप बहुआयामी है, जो जीवन के हर क्षेत्र को गहराई से प्रभावित कर रहा है। क्या बच्चा, क्या बूढ़ा, क्या युवा, क्या नारी, क्या प्रौढ़, क्या पढ़ा-लिखा और क्या अनपढ़-सभी इसके प्रभाव मंे हैं। समाज के प्रहरी, लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ के रूप में मीडिया की भूमिका सर्वविदित है।

जनता तक नई सूचना पहुँचाना तथा उसे सही जानकारी उपलब्ध कराना इसका कार्य है। इसके साथ यह जनमत का निर्माण करता है और जनता की सोच को गहराई से प्रभावित करता है आजादी के दौर में जनता के बीच स्वतंत्रता की अलख जगाने व उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार करने में पत्रकारिता ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी, किन्तु कालक्रम के साथ इसके मिशनरी जज्बे का अवसान हुआ है।

जिस आदर्शनिष्ठ, मूल्य-आधारित पत्रकारिता के मानक इसने स्थापित किए थे, वे आजादी के बाद क्रमशः पृष्ठभूमि में चले गए। आज पत्रकारिता एक व्यवसाय बन चुका है। बड़े-बड़े काॅरपोरेट घराने, राजनीतिक दलों व निहित स्वार्थों में यह बंटा हुआ है। यदि यह लोक-कल्याण के भाव से चलता है तो इस व्यवसाय में भी कोई कोई खराबी नहीं है।

जनता का व्यापक हित जब नजरअंदाज हो जाता है और नकारात्मक, सनसनाहट भरी, भ्रामक एवं कुत्सित सामग्री परोसने का यह माध्यम बन जाता है तो विषय चिन्ता का हो जाता है; क्योंकि जनसंचार के माध्यम मात्र व्यक्ति को सूचना भर नहीं देते, बल्कि ये व्यक्ति के चिन्तन, चरित्र एवं स्वभाव को भी प्रभावित करते हैं और वातावरण का निर्माण भी करते हैं।

वास्तव में आज हम मूल्यों के गंभीर संकट से होकर गुजर रहे हैं। लोकतंत्र का कोई भी स्तम्भ इससे अछूता नहीं है। व्यापक स्तर पर नैतिक पतन, वैचारिक, प्रदूषण एवं आस्था संकट-आज के सत्य हैं। लोकतंत्र के सजग प्रहरी एवं एक सशक्त स्तम्भ के रूप में पत्रकारिता क्षेत्र में मूल्यों का अवमूल्यन एवं अवसान एक गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया है और इन मूल्यों के संकट के समाधान की बात जब उठती है तो आध्यात्मिक स्तर पर इसके उपचार पर विचार अभीष्ट हो जाता है।

युगऋषि परमपूज्य गुरूदेव की दृष्टि से देखें तो प्रस्तुत समस्याओं के समाधान की तलाश में तमाम प्रयास निष्फल क्यों हो रहे हैं। गहराई से विचार करें तो स्पष्ट होता  है कि प्रयास की दिशा सही नहीं है। जीवन की समग्र समझ एवं दृष्टि के अभाव में समस्या की जड़ तक हम नहीं जा पा रहे हैं। फलतः जो प्रयास हो रहे हैं, वे जड़ को सींचने के बजाय फूल-पत्तियों और तने को पानी देने जैसे आधे-अधूरे सिद्ध हो रहे हैं।

अधिकांशतः अंधेरे को अंधेरे से दूर करने के निष्फल प्रयास चल रहे हैं। ऐसे में युगऋषि के शब्दों में अंधकार में प्रकाश उत्पन्न करने वाली ज्योति अध्यात्म क्षेत्र में ही उत्पन्न होने की आशा शेष रह गई है। परमपूज्य गुरूदेव इस विषय में लिखते हैं कि जीवन के क्षेत्र में तथा संसार में समस्याओं के आकार -प्रकार अनेक दिखाई पड़ते हैं, उनके कारण भी पृथक-पृथक दिखाई पड़ते हें, पर उनके मूल में एक ही कारण है-अध्यात्मवादी दृष्टिकोण का अभाव।

यदि इस तथ्य को समझ लिया जाए तो असंख्य समस्याओं का, अगणित संकटों का समाधान एक ही उपाय से कर सकना संभव हो जाएगा। यदि हम जीवन की उलझनों को सुलझाना चाहते हैं, समस्याओं का हल पाना चाहते हैं तो आध्यात्मिक रीति-नीति को अपनाने का साहस हमें जुटाना ही चाहिए। इसी पथ पर चलते हुए सच्चा आनन्द और सच्चा लाभ लिया जा सकता है।

अध्यात्म को साथ लिए बिना किए गए प्रयासों की सम्पूर्ण सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी। कहना न होगा कि वर्तमान की समस्त समस्याओं का समाधान और सुखी जीवन का एक ही उपाय है कि हमारा आस्थाएँ बदलें, उनमें उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश हो और उसका प्रतिफल व्यक्तित्व में बढ़ते हुए देवत्व के रूप में परिलक्षित हो। यदि हम अध्यात्मवादी रीति-नीति अपना सके तो निश्चित रूप से अनेकानेक प्रस्तुत समस्याओं का समाधान पा सकते हैं।

इस पृष्ठभूमि में पत्रकारिता के क्षेत्र में अध्यात्म का समावेश महत्वपूर्ण हो जाता है। आश्चर्य नहीं कि परमपूज्य गुरूदेव ने युग निर्माण आन्दोलन के अंतर्गत विचारक्रान्ति के उपकरण के रूप में सन् 1940 के दशक में ही अखण्ड ज्योति पत्रिका के माध्यम से आध्यात्मिक पत्रकारिता का श्रीगणेश कर दिया था। जिसका प्रकाशपूर्ण प्रवाह अनवरत रूप से आज तक जारी है।

अध्यात्म की आवश्यकता एवं महत्व को देखते हुए देश के जनमाध्यमों में भी इसके प्रयोग 20वीं सदी के अंतिम दशकों में प्रारम्भ हो गए थे। रामायण-महाभारत जैसे धार्मिक-आध्यात्मिक सीरियलों का चलन शुरू हुआ, जिनकी अपार लोकप्रियता को देखते हुए लगभग हर टीवी चैनल पर फिर ऐसे सीरियलों की शुरूआत हुई, जो आज तक जारी है।

20वीं सदी के अंतिम दशकों में समाचारपत्रों में अध्यात्म पर नियमित स्तम्भ और फिर साप्ताहिक पृष्ठ एवं परिशिष्टों का चलन शुरू हुआ। 21वीं सदी के पहले दशक में धर्म-अध्यात्म को लेकर भक्ति चैनलों की बाढ़-सी आई, जिनकी संख्या इस समय चार दर्जन के लगभग हैं। इसके बाद वेब माध्यम का दौर शुरू हुआ, जिसको विविध प्लेटफार्मोंं पर आध्यात्मिक सामग्री के विस्फोट के रूप में देखा जा सकता है।

आध्यात्मिक पत्रिकाएँ तो इस दिशा में बहुत पहले से ही सक्रिय थीं। इस समय इनकी संख्या भी बढ़ी-चढ़ी हैं। हर आध्यात्मिक संस्थान की अपनी आध्यात्मिक पत्रिका है। इनका योगदान व्यक्ति, परिवार एवं समाज के नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान तथा परिष्कार में उल्लेखनीय रहा है। कितने सारे छोटे-बड़े सृजनात्मक आन्दोलन इनके इर्द-गिर्द खड़े हुए है। वस्तुतः आध्यात्मिक पत्रकारिता की संभावनाएँ असीम हैं।

युगमनीषियों का तो यहाँ तक कहना है कि आध्यात्मिक पत्रकारिता नए युग का सूत्रपात कर सकती है। पत्रकारिता में बड़ी-से-बड़ी क्रान्ति जो होगी वह है, अगर इस देश में एक अलग किस्म की पत्रकारिता पैदा  हो सके, जो राजनीति के द्वारा नियंत्रित न हो, देश प्रज्ञावान लोगों द्वारा प्रेरित हो।

पत्रकारिता का यह एक मूलभूत कार्य रहेगा कि जनता के सामने प्रज्ञावान लोगों को और उनकी प्रज्ञा को प्रकट करे। आध्यात्मिक पत्रकारिता से जुड़ी महान संभावनाओं के बावजूद अभी मुख्य धारा की पत्रकारिता में इसे उचित स्थान देने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। अभी भी वहाँ यह एक उपेक्षित विधा है। इसको लेकर विचारशील एवं मनीषी वर्ग के बीच भी अजीब सा मौन पसरा है।

अकादमिक स्तर पर भी यह एक हाशिए का विषय है। यदि यहाँ इसे उचित स्थान देकर इसके प्रशिक्षण की व्यवस्था की जा सके तो पत्रकारों की एक नई पीढ़ी तैयार की जा सकती है, जो अपने सकारात्मक विचारों, सात्विक प्रभाव एवं वैचारिक प्रखरता के आधार पर मुख्य धारा की पत्रकारिता में नए संस्कारों का संचार कर सकती है।

इसकी सामयिक आवश्यकता एवं महत्व को देखते हुए देव संस्कृति विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में विगत दिनों एक अभिनव पहल की गई है। विभाग के द्वारा आगामी सत्र में आध्यात्मिक पत्रकारिता को शिक्षण एवं शोध के विषय के बतौर पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। इसके साथ ही आध्यात्मिक पत्रकारिता विषय पर पी-एच.डी. शोध से लेकर पुस्तक रचना का कार्य जारी है।

इस सत्र से स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में इसको पढ़ाया जा रहा है। आशा है कि इसके साथ आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न पत्रकारों एवं विचारकों की एक नई पीढ़ी का निर्माण हो सकेगा। जिसका प्रसार आगे चलकर देश के अन्य विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों एवं पत्रकारिता विभागों में भी होगा। आध्यात्मिक पत्रकारिता में कुछ सीखने, शोध करने व प्रशिक्षण के इच्छुक सुपा विद्यार्थियों का देव संस्कृति विश्वविद्यालय में स्वागत है।

सुखी और संतुष्ट रहने का मूलमंत्र है-स्वल्प इच्छज्ञएँ, कम आवश्यकताएँ, निस्वार्थ जीवन और आस्थापूर्ण आस्तिक दृष्टिकोण का विकास।

साभार महाकौशल सन्देश