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कोरोना संकट:सीएसआर कितना समावेशी और परिणामोन्मुखी?

   – डॉ अजय खेमरिया

इन दिनों पीएम केयर फ़ंड और सीएसआर मद को लेकर खूब चर्चाएं हो रहीं है।कांग्रेस सहित गैर बीजेपी शासित राज्य इस बात पर आपत्ति कर रहे है की कोरोना से निबटने के लिए जो नया फ़ंड/ट्रस्ट बनाया गया है उसमें सीएसआर(निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व) मद क्यों जोड़ा गया है।आपत्ति इस बात पर है कि बड़ी कम्पनी और सार्वजनिक क्षेत्र के निगम केंद्र सरकार के दबाब में सीधे इस फ़ंड में दान देंगे और राज्य खाली हाथ रह जायेंगे।महाराष्ट्र कांग्रेस ने तो बकायदा आरोप लगाया कि केंद्र के मंत्री उधोगपतियों को धमका कर उनसे सीएसआर राशि पीएम केयर ट्रस्ट में ट्रांसफर करा रहे है।
भारत में लागू मौजूदा कम्पनी कानून के तहत500 करोड़ से ऊपर के सालाना कारोबारी कम्पनियों को अपने लाभ का 2 फीसदी सामाजिक उत्तरदायित्व मद में खर्च करना अनिवार्य है।यह एक बोर्ड संचालित प्रक्रिया है और कम्पनी बोर्ड को अपनी सीएसआर समिति की अनुशंसा को ध्यान में रखते हुए कम्पनी एक्ट 2013 की अनुसूची7 के अनुसार कार्यकलापों के सबन्ध में निर्णय लेने,कार्यान्वित करने,निगरानी करने का अधिकार है।कम्पनी सीएसआर नियम 2014 के नियम 4(2)के अनुसार किसी रजिस्ट्रीकृत न्यास या सोसायटी  के माध्यम से सीएसआर के काम आरंभ कर सकती है।कॉरपोरेट सेक्टर शुरू से ही इस नए प्रावधान को अपने लिए बड़ा अवरोधक मानता है ।
हाल ही में केंद्र सरकार ने इसके शास्ति मूलक प्रावधानों में कुछ ढील भी दी है।असल में लोककल्याणकारी राज्य की गारंटी के अनुक्रम में यह प्रावधान कारपोरेट घरानों से अपेक्षा करता है कि वे अपने लाभ में से कुछ हिस्सा जनकल्याण और आधार भूत विकास के कार्यों पर व्यय करें।जैसा कि सरकारी नियमों में होता आया है कमोबेश कम्पनियों ने खुद के ट्रस्ट बनाकर प्रावधानित 2 फीसदी राशि वहां ट्रांसफर करके इस बाध्यकारी प्रावधान की काट निकाल ली।पीएम केयर फ़ंड में सीएसआर को  मान्यता मिलने से बड़े कारोबारी घरानों को राजनीतिक चंदे की तर्ज पर दान का यह बेहतर मंच उपलब्ध हो गया है।
सवाल यह है कि जिस बड़े पैमाने पर सीएसआर का शोर सुनाई देता है क्या वास्तव में यह उतना समावेशी और परिणामोन्मुखी है?सीएसआर के जरिये क्या वाकई भारत के लोककल्याणकारी प्रकल्पों में कोई ठोस काम हुआ है अथवा यह भी कारपोरेट के प्रायोजित प्रचार का बरगलाने वाला प्रलाप है?
भारत सरकार के राष्ट्रीय सीएसआर डाटा पोर्टल और लोकसभा के पिछले सत्र में कारपोरेट कार्य मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार पिछले तीन वित्तीय बर्षों में औसतन 14 हजार करोड़ की राशि ही  बार्षिक मान से खर्च हो रही है।यह राशि 36 राज्य और केंद्र प्रशासित क्षेत्रों में खर्च होना बताई गई है।खास बात यह है कि इस समेकित धन खर्ची में से लगभग 5 हजार करोड़ प्रति साल का कोई ब्यौरा कम्पनियों ने पिछले तीन बर्षों से नही दिया है।यानी यह 5 हजार करोड़ बार्षिक राशि कहां खर्च हुई है इसकीं कोई जानकारी सरकार के पास नही है।लगभग 9 हजार करोड़ बार्षिक  व्यय का ही लेखा जोखा सरकार के पास मौजूद है।इस कानून के तहत 29 विभिन्न क्षेत्रों में इस राशि के व्यय होने का दावा किया जाता है।आंकड़े बताते है कि वित्तीय बर्ष 2015-16में 14517.19करोड़,2016-17 में 14329.53,और 2017-18 में 13620.51करोड़ की राशि सीएसआर मद में कम्पनियों ने खर्च होना दिखाई है।राष्ट्रीय सीएसआर डाटा पोर्टल के अनुसार यह आंकड़े 30 जून 2019 तक अधतन है।इसमें तीनों सालों की करीब 15 हजार करोड़ की राशि के वास्तविक व्यय के आंकड़े उपलब्ध नही कराए गए है।इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि तीन साल में पूरे एक बर्ष की औसत राशि का तो कोई हिसाब ही नही है।
सवाल यह है कि क्या कोरोना संकट के आलोक में बनें पीएम केयर फ़ंड में सीएसआर की राशि दिये जाने के प्रावधान से राज्यों के हित वाकई प्रभावित होंगे?अगर ध्यान से देखें तो सीएसआर के तहत जमा कुल राशि ही संदेहास्पद नजर आती है । औसत15 हजार करोड़ कुल कारोबारी लाभ वास्तविक लाभ को भी कटघरे में खड़ा करता है।यानी लाभ दिखाए जाने की प्रक्रिया प्रमाणिक नजर नही आती है।दूसरा जिस लोककल्याण की भावना से इस प्रावधान को कम्पनी एक्ट में जोड़ा गया है वह भी भौगोलिक आधार पर समावेशी नही है।जो राज्य आज इस विषय पर हाय तौबा मचा रहे है असल में वे गरीब और पिछड़े राज्यों का हिस्सा भी हड़प रहे है।भारत के सबसे पिछड़े राज्य सीएसआर के मामले में भी पिछड़े है।कारपोरेट घराने उन्ही राज्यों में पैसा खर्च कर रहे है जहां उनके कारोबारी हित स्थानीय स्तर पर निहित है।मसलन महाराष्ट्र पर पिछले तीन बर्षो में कम्पनियों ने 7067.21करोड़ की राशि सीएसआर से खर्च हुई।नही भूलना चाहिए की देश की लगभग सभी बड़ी कम्पनियों के मुख्यालय महाराष्ट्र के मुंबई,पुणे में ही है।इसके बाद आईटी हब और माइंस के गढ़ कर्नाटक का नम्बर है जहां 2620 करोड़ की राशि कम्पनियों ने जनकल्याण पर खर्च की है।आंध्र प्रदेश में 2316.92,गुजरात में2191.23,तमिलनाडू 1803.6, दिल्ली में 1554.79 ओड़िसा 1410.1,राजस्थान में 1091.93हरियाणा में 1026 करोड़ की धनराशि अलग अलग कम्पनियों ने शिक्षा,स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास सहित 29 सामाजिक क्षेत्रों में व्यय की है।इस व्यय से साफ है कि कारपोरेट घराने अपने ट्रस्ट या एनजीओ के माध्यम से केवल अपनी स्थानीय सुविधाओं को ध्यान में रखकर ख़र्च रहे है।
यह भी समझा जाना चाहिए कि सर्वाधिक 13151करोड़ की राशि शिक्षा  पर व्यय की गई है इसके बाद 7245 करोड़ स्वास्थ्य सेवा औऱ सुविधा पर दिखाई गई है।सवाल एक बार फिर निजी घरानों की ईमानदारी पर खड़ा है क्योंकि इस कुल राशि में सरकारी क्षेत्र की कम्पनियों के मद भी शामिल है।कम्पनियों ने अपने ऐसे ट्रस्ट बना रखे है जो राजनीतिक दलों को परोक्ष रूप से ट्रस्ट के जरिये चंदे उपलब्ध कराती है।
इन आंकड़ों से एक बात स्पष्ट होती है कि जो गरीब और पिछड़े राज्य है वे सीएसआर की प्राथमिकता में नही है।पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों में केवल 610.68 करोड़ की राशि ही तीन बर्षों में कम्पनियों ने व्यय की है जिसमें अकेले असम के 520.75करोड़ शामिल है।इसी तरह बिहार में केवल267.56,छत्तीसगढ़ में397जम्मू कश्मीर में 164 करोड़ ही खर्च किये गए है।जबकि सर्वाधिक पिछड़े राज्य यही है।मप्र,बंगाल, झारखण्ड जैसे राज्य भी अपने  भूगर्भीय संसाधनों तुलना में कॉरपोरेट सहायता के मामले में पिछड़े हुए है।
बेहतर होगा नीतिगत स्तर पर सीएसआर व्यय के प्रावधानों की समीक्षा की जाए।पीएम केयर ट्रस्ट में ही सीधे इस  सम्पूर्ण राशि को ट्रांसफर करने के नियम बनाये जाएं क्योंकि कम्पनियों के स्वायत्त बोर्ड या ट्रस्ट इस मामलें में वास्तविक जरूरत का निर्धारण करने में नाकाम साबित हुए है।पीएम केयर ट्रस्ट  में चरणबद्ध प्राथमिकताएं तय हो।पहले पांच बर्ष स्वास्थ्य,अगले शिक्षा और फिर कौशल उन्नयन के लक्ष्य पर काम किया जाए।फ़िलवक्त यह राशि स्वायत्तता के नाम पर न तो समावेशी ढंग से व्यय हो रही है औऱ न ही परिणामोन्मुखी है। सरकार की इच्छाशक्ति के आगे कोरोना संकट के एक सबक के रूप में सीएसआर को समावेशी बनाने का काम करना कठिन नही है।