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आदमी को पहाड़ खाते देखा है..!

कहते हैं कि हमारा समाज धर्मभीरु है। उसकी रक्षा के लिए हम किसी पराकाष्ठा तक जा सकतें हैं। यदि ऐसा आप भी सोचते हैं तो एकबार चित्रकूट हो आइए, वहां जाकर देखिए कि आस्थाएं किस तरह स्वार्थ की बलि चढ़ा दी जाती हैं।

यहां भगवान श्रीराम साढे ग्यारह वर्ष रहे। जहां वे विचरते रहे होंगे वहीं के जंगल और पहाड़ों के भीतर उम्दा किस्म का बाक्साइट है। इसलिए भगवान् राम की स्मृतियां बची रहें या चाहे जाएं चूल्हे भाड़ में। बेरहम विकास यात्रा और ग्रोथरेट के चंद्रखिलौना के लिये हमे वो जंगल और वो पहाड़ चाहिए ही चाहिए।

जिस सिद्धा पहाड़ को देखकर राम ने भुज उठाय प्रण कीन्ह का संकल्प लिया था उस पहाड़ की गति देखेंगे,जरा भी संवेदना होगी तो रो पड़ेंगे। जेसीबी के पंजों से ऐसे बाक्साईट निकाला है जैसे गीध मरी लाश से अँतड़ियां निकालते हैं। सरभंग ऋषि का जहाँ आश्रम था उस वन प्रांतर को भी खनिज के लिए शिकारी कुत्तों की तरह नोचा खाया गया है।

भोपाल से इंदौर जाते हुए जब देवास बायपास से गुजरता हूँ तो कलेजा हाथ में आ जाता है। बायपास शुरू होते ही बाँए हाथ में हनुमानजी की विराट प्रतिमा है, उसके पीछे खड़े पहाड़ का जो दृश्य है, बेहद दर्दनाक है। उसे देखकर कई भाव उभरते हैं। कि जैसे चमगादड़ ने अमरूद का आधा हिस्सा खाकर फेंक दिया हो। कि जैसे जंगली कुत्तों ने जिंदा वनभैंसे के लोथड़े निकाल लिए हों। कि जैसे हमने बर्थडे की केक को चाकू से काटा हो।

2-48 सिद्धा पहाड़ सतना मध्य प्रदेश - Shri Ram Sanskritik Shodh Sansthan Nyas

यदि आपमें जरा भी संवेदना होगी तो इस अधखाए पहाड़ को देखकर कुछ ऐसे ही लगेगा। दाईं ओर गुंगुआती हुई कई चिमनियां दिखेंगी। दृश्य कुछ ऐसा बनता है कि मानो धरतीमाता के मुँह में जबरन कई सुलगती हुई बीडियाँ दता दी गईं हो। यह दृश्य सिर्फ देवास का नहीं है। जहाँ हैं उसके इर्दगिर्द एक नजर तो डालकर देखिए..!

पद्मपुराण में तालाब, बावड़ी, कुएं खुदवाने का पुण्यप्रताप वर्णित है। वृक्षों का महात्म्य तो दैवतुल्य है। बरगद, पीपल, आम तो हमारी जीवन संस्कृति से जुड़े हैं। महुआ तो वनवासी लोकसंस्कृति का सिरमौर है।

कहते हैं जिनके पुत्र नहीं होता था वे आम व विभिन्न किस्म के फलदार पौधे लगाते थे। इन वृक्ष से मनुष्य को फल मिलते थे। इनमें जीवजंतु भी पलते थे। सभी आत्मा से उस व्यक्ति को साधुवाद देते व कृतग्यभाव व्यक्त करते जिसने बगीचे लगाए थे। सैकड़ों वर्ष तक उस व्यक्ति का नाम बगीचे के साथ चलता था। अब वही बगीचे कटकर पल्प व प्लाईबोर्ड फैक्ट्री में जा रहे हैं।

सड़कों ने भले ही आवागमन को सुगम किया हो पर इसके लिए अरबों निर्दोष व फलदाई पेड़ों की बलि दी गई। शेरशाह सूरी ने भारत को उत्तर से दक्षिण जोड़ने के लिए जो राजमार्ग बनवाया था वह बनारस से जबलपुर होते हुए दक्षिण जाता था। वर्षों तक हम इसे नेशनल हाइवे नंबर सात (NH07) के नाम से जानते थे।

इस यवन बादशाह ने सड़कों के किनारे आम, जामुन, इमली, कपित्थ, बेल, महुआ जैसे फलदाई पौधे लगवाए थे। हर एक कोस पर कुएं और दस कोस पर एक बावड़ी व मुसाफिर खाना बने थे। रीवा के राजा अजीत सिंह के कार्यकाल में एक ब्रिटिश ट्रेवलर लेकी इस राजमार्ग से गुजरा था। उसकी डायरी के पन्ने रीवा के स्टेट गजेटियर में छपे हैं। लेकी ने सड़क के किनारे आम्रकुंजों का खूबसूरत वर्णन किया है।

हमारे देसी बादशाहों ने सड़क के विस्तार की योजना बनाई। योजना जब तक कागज से जमीन पर उतरती सड़कों के किनारे के वर्षों पुराने वृक्ष कटकर आरामिलों में पहुंच गए। इनमें से हजारों-लाखों ऐसे जिनकी उमर पांच सौ वर्षों से एक हजार वर्ष रही होगी। किसी ने उफ तक नहीं किया।

सड़के विधवा के माँग की भाँति सूनी हैं। गर्मियों में लगता है रेगिस्तान से गुजर रहे हैं। वृक्षारोपण के नामपर कनेर और सूबबूल रोपे गए हैं। कोई चिंता करने वाला नहीं और न ही इन पुरखों के लिए रोने वाला।

यूरोप-अमेरिका में पुराने पेंड़ लिफ्ट एन्ड शिफ्ट किए जाते हैं। मिस्र में तो पहाड़ की शिफ्टिंग के बारे में सुना है। अपने यहां हर विकास विनाश की बुनियाद पर होता है। योजनाकार व इंजीनियर चाहते तो ये सभी पेंड़ बच सकते थे. हाँ जमीन का मुआवजा जरूर थोड़ा बढ़ता..। पर फिकर किसे। हर कोई घर भरना चाहता है. योजनाकार- इंजीनियर-ठेकेदार- नेता सभी के सब, क्या करियेगा!

आप जहाँ भी रहते हों उसके दस किलोमीटर की परिधि में नजर दौड़ाइए इससे भी वीभत्स और कारुणिक दृश्य दिखेंगे। पर इसे अंतस से महसूस करने के वाल्मीकि की दृष्टि जगानी होगी, जिन्होंने क्रौंच वध की घटना में क्रौंचनी के अश्रु से उपजी करुणा के चलते सृ्ष्टि की पहली कविता रच दी।

पूरे देश के पहाड़ों और वनों के साथ ऐसे ही निर्दयी व्यवहार हो रहा है। किसलिए क्योंकि विकास के लिए ये जरूरी है। इससे ग्रोथरेट बढ़ती है। ग्रोथरेट की गणित बड़ी बेरहम है। खड़े हुए पेंडों का विकास में कोई योगदान नहीं। इन्हें काटकर वहाँ से राजमार्ग निकालिए और पेडों को आरा मिल भेजिए या पेपर मिल, तभी विकास को गति मिलेगी।

खड़े हुए पहाड़ विकास के बाधक हैं। उन्हें केक की तरह काटकर सड़क में पसराना पड़ेगा विकास की गाडी तभी आगे बढेगी। बहती हुई नदियों का विकास में तबतक कोई योगदान नहीं जबतक कि इन्हें बाँधकर गाँवों को न डुबा दिया जाए। यह विकास का नया फलसफा है जहाँ संवेदना, स्मृति, जिंदगी की कोई हैसियत नहीं। विकास के समानांतर विनाश की भी ग्रोथरेट होती है पर इसे नापे कौन? यह अर्थशास्त्रियों के विमर्श का विषय नहीं है।

हर मनुष्य में यह दृष्टि है। हाँ मैं प्रकृति प्रेमी हूँ मेरी मुक्ति यहीं दिखती है। जब भी समय मिलता है तो विन्ध्य के वनप्रांतर में भटक लेता हूँ। सिंगरौली के धुंए से निकल कर उससे लगे जंगलों में खूब भटका हूँ। वाल्मीकि आज यहाँ आकर घूमते तो गश खाकर गिर पड़ते।

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हम भौतिकवादी खुदगर्ज आदमी हैं इसलिए ये सब कुछ देख भी लेते हैं। यहाँ आकर आप देखेंगे कि आदमी ने किस तरह धरती को उलटा पलटकर माटी के धूहे के नंगे पहाड़ खड़े कर दिए। लगभग तीनसौ किलोमीटर की परिधि का नामोनिशां मिट गया। पहाड़ पिसकर बिजली में बदल दिए गए। खैर के वो अद्भुत जंगलों, वन्यजीवों की बात कौन करे यहां के वासिंदा आज किस लोक में हैं किसी को इसकी खबर नहीं।

विकास का आक्टोपस सिंगरौली से लगे सरई क्षेत्र के खूबसूरत जंगलों की ओर बढ़ रहा है। यह दुनिया के सबसे संपन्न जैवविविधता वाला क्षेत्र है। पेंड़ पौधों की दृष्टि से और जीवजंतुओं की दृष्टि से भी।

छत्तीसगढ़, झारखंड के हाथियों का यह कारीडोर है। भालुओं का प्राकृतिक आवास। गुफाओं की श्रृंखला आदमसभ्यता की कहानी कहती हैं। इस क्षेत्र का गुनाह यह है कि इसके पेट में कोयला है और वह कोयला हमारी ग्रोथरेट के लिए जरूरी है। इसलिये चाहिए हर हालपर, किसी कीमत पर। कभी कभी, गुण भी मौत के गाहक बन जाते हैं। जैसे कस्तूरी मृग के लिए, मणि नाग के लिए। यह तय है कि आज नहीं तो कल इस खूबसूरत वन की कस्तूरी और मणि की कीमत विकास की बलिबेदी पर चढ़कर चुकानी होगी।

अब ये कुछ सवाल खुद से पूछिये.। क्या हम कोई पहाड़ बना सकते हैं। क्या जंगल, नदी, झरने पैदाकर सकते हैं। तो फिर इन्हें सजाए मौत देने, नष्टभ्रष्ट करने का अधिकार किसी को कहां से मिला। पुराणकथाओं में पढ़ा है कि एक बार सहस्त्रबाहु ने नर्मदा को बाँधने की कोशिश की थी परशुराम ने उसके सभी हाथ काट ड़ाले। आज हम नदियों को बाँधने, उनकी धारा को मोड़ने की, पहाड़ों और जंगलों को खाने की राक्षसी कोशिशें कर रहे हैं।

इन्हें हमारे वैदिक वांग्यमय में माता, पिता, सहोदर, भगिनी, पुत्र, बंधु वाँधवों का दर्जा कुछ सोचसमझकर ही दिया गया है। ये हमें देते ही देते हैं। ये हैं तभी हम हैं। नीतिग्रंथों में लिखा है कि प्रकृति से हम उतना ही लें जितना कि एक भ्रमर फूल और फल से लेता है। हमें गाय की तरह दुहने की इजाजत है गाय को ही काटकर खाने की नहीं।

विकास की निर्दयी होड़ ने प्रकृति को कत्लगाह में बदल दिया है। संभल सकें तो सँभलिए नहीं तो याद रखिए ईश्वर की लाठी बेआवाज़ होती है और हर किए की सजा मिलती है, इसी लोक और इसी काया में।

वरिष्ठ लेखक:- जयराम शुक्ल 
संपर्कः 8225812813