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काश हम आजन्म आदिवासी ही रह सकें

1193 में मोहम्मद गौरी के मनहूस कदम पड़ने से लेकर 1947 में अंग्रेजों की वापसी तक जिस घने अंधकार ने हिन्दुस्थान की अस्मिता को ढाँक रखा था 5 अगस्त 2020 को भगवान श्री राम की जन्मभूमि अयोध्या में भव्य मंदिर के पहले पत्थर के आघात की पहली किरण से ही वह छँट रहा है। यह प्रारब्ध की मार ही है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इस धरा के हम सभी आदिवासी, जिनके पुरखों का 10000 वर्षों का इतिहास हमारी स्मृतियों में विद्यमान है और तथाकथित विकसित पश्चिमी समाज ने स्वयं स्वीकार है कि प्रभु श्री राम का जन्म 3 फरवरी 5674 ईसा पूर्व को हुआ था, अब तक अपनी इस पुरा पहचान को छद्म धर्म निरपेक्षता के षड्यन्त्र के चलते सार्वजनिक रूप से परिरक्षित नहीं कर पा रहे थे। कोई भी सत्ता यदि धर्म हीन होगी तो वह जन कल्याण कैसे करेगी यह सोचनीय है।

एक षड्यन्त्र के चलते स्वतंत्र भारत की शिक्षा व्यवस्था वामपंथी हाथों में सौंपी गई ताकि दासता का जो भाव अंग्रेजों ने बड़ी मुश्किल से रोपा था वह कायम रहे और उनके बाद सट्टा पर काबिज हुए काले अंग्रेजों की सत्ता बनी रहे। वामपंथी मस्तिष्क पूरी तरह नकारात्मक होता है और भावात्मक धरातल पर विचार करने में असमर्थ होता है। अपने अस्तित्व के लिए वह सत्ता का भूखा होता है और उसे पाने के लिए हर संभव नकारात्मक प्रचार उसका आहार होता है। दुर्भाग्य से गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी कांग्रेस भी इसी रोग का शिकार हुई। संभवतः गांधी को यह आभास था इसी लिए स्वतंत्रता के बाद उन्होंने कांग्रेस को भंग करने की सलाह दी थी। इस कपट के चलते हिन्दुस्थान के मूल निवासियों में यह भाव कूट-कूट कर बैठाने का प्रयास लगातार हुआ कि वे इस देश के मूल से नहीं जुड़े हैं और आक्रांता हैं। लेकिन वे इस षड्यन्त्र में सफल हो नहीं सके।

इस देश में आदि समय से निवास करने वाला ही मूलनिवासी है, हम सब मूलनिवासी हैं, आदिवासी हैं, भारतवासी हैं। भारत का प्रत्येक समाज मूलनिवासी है और आदिवासी संस्कृति भारतीय संस्कृति का प्राण है। यों तो भारत में रहने वाला हर व्यक्ति मूलवासी है लेकिन विकासक्रम में भारतीय वनों में रहने वाले “मूलवासियों” अर्थात वनवासियों ने अपनी शुद्धता बनाए रखी। वे जंगलों के वातावरण में खुले में ही रहते आए हैं तो उनकी शारीरिक संरचना, रंग-रूप, परंपरा और संस्कृति पूर्ववत ही हैं।

जनजाति समाज में पिथोरा चित्रकला का प्रयोग होता हैं, जिसकी धार्मिक अनुष्ठान में मान्यता भी है। आज भी मध्यप्रदेश के अलीराजपुर के गांवों में चटखदार रंगों से ये चित्रकला तैयार की जाती हैं। यदि यह कहा जाए कि 800 वर्षों की प्रतिकूलता में भी वनवासी समाज ने सनातन धर्म के अस्तित्व को सँजो कर रखा है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रकृति प्रेमी जल, जंगल, जमीन के रक्षक, भारतीय सभ्यता और संस्कृति को संजोकर रखनें वाले वनवासी समाज में होली, दीवाली मुख्य त्यौहार बड़े ही उत्साह के साथ मनाए जाते हैं और नई फसल के पकने के साथ ही गाय, बैल आदि पशु समूह की भी पूजा की जाती है। वे अपने देवताओं, पूर्वजों को प्रसाद स्वरूप नई फसल को पका कर अर्पित करते हैं। जनजाती, वनवासी (आदिवासी) समाज सदियो से सनातन संस्कृति का रक्षक रहा है। हमे गर्व है हम आदिवासी सनातनी हिन्दू हैं। बिरसा मुंडा और रानी दुर्गावती जैसे सैंकड़ों आदिवासी महापुरुषों का देश के लिए जो योगदान है क्या उसे कोई भुला सकता है ?

किन्तु भारतीय वामपंथी अज्ञान या कहें कि उनके निजी स्वार्थवश यहां की देसी परंपरा को वे सदैव ओछी निगाह से देखते आए हैं और कुटिलता पूर्वक यही भाव यहाँ के बहुसंख्यक समाज में भी आरोपित करना चाहते हैं। अगर मिशनरियों का अमेरिका, अफ़्रीका में जबरन या छल-कपट से धर्मांतरण कराना ग़लत है, तो वही काम भारत कैसे सही ठहराया जा सकता है ? दुनिया में कहीं वामपंथी ऐसा नहीं करते किन्तु वामपंथी-ईसाई गठजोड़ कब जयदेव हेम्ब्रम को जार्ज हेडली बना कुलदेवता के मंदिर की जगह चर्च के दरवाजे पर ले आता है उन्हें पता ही नही चलता। वनवासियों को उनके प्रतीकों, परम्पराओ, मान्यताओं और पहचान से दूर कर करने का अक्षम्य अपराध वामपंथ ने किया है।

आज जब पूरी धरा इस भोगवादी पश्चिमी व्यवस्था से उकता गई है और उसके कुपरिणामों के चलते कोई नया रास्ता खोज रही है तो यही वनवासी-आदिवासी जिन्हें वे हेय दृष्टि से देखते हैं उनका मार्गदर्शन कर सकते हैं। भगवान राम को जब वनवास की आज्ञा मिली तो वे कहते हैं कि “पिता दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥“ उन्होंने वन में लंबे समय तक रहकर संपूर्ण वनवासी समाज को एक-दूसरे से जोड़ा और कालांतर में उसी वन समाज ने रावण से युद्ध में महती भूमिका निभाई। आज जब समय ने करवट ली है और नए हिन्दुस्थान का शिलान्यास हुआ है तो हम सभी का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। हमें अपनी पहचान पर न केवल गर्व होना चाहिए बल्कि हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपने वनवासियों के बीच अब तक संरक्षित अपने पुरा-जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए आगे आयें। हमें इनके प्रति अगाध श्रद्धा होनी चाहिए क्योंकि विकास की अन्धी दौड़ में हमारे इन्ही भाइयों और बहनों ने हमारे सनातनी संस्कारों को जीवित रखा है।

काश हम सभी आदिवासी ही रहते तो हम प्रकृति को अपनी भोग्या नहीं माता के रूप में देख पाते। हम अपने जल-जंगल और जमीन के संरक्षण के प्रति सचेत रहते। हम अपने संस्कारों को अपने पैरों की बेड़ी नहीं अपने गले का शृगार समझते। अब भी देर नहीं हुई है। कोरोना के संक्रमण काल ने हमें साफ सुथरी चेतावनी दी है कि हम भोगवाद से उठ कर एकात्म मानववाद की ओर अग्रसर हों और यह तय है कि जो ऐसा नहीं करेगा अगले सदी की भोर नहीं देख पाएगा।