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मनीषियों की सीख पर क्यों न चलें! शंकर शरण     

1940 ई. में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए बकायदा अलग देश की मांग की। यद्यपि उस के पास हिंसा के सिवा कोई तर्क नहीं था। बाद में स्वयं जिन्ना ने भी माना था कि बिना हिंसा के उन्हें पाकिस्तान नहीं मिलता। साल 1941 ई. की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या 56 करोड़ थी,

जिस में मुसलमान 7 करोड़ 44 लाख थे। विभाजन में पाकिस्तान को 10.29 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र मिला, जबकि भारत को 32.87 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र मिला। यह देखते हुए कि लगभग आधे मुसलमान यहीं रह गए, वस्तुतः लगभग 8 प्रतिशत मुसलमानों को देश का 24 प्रतिशत भूभाग बंटवारे में मिल गया।

खुद का मजाक बनाता मुसलमान, उस पर एतराज जताता मुसलमान - Indian Muslims are  responsible for their own social political backwardness

बहरहाल विभाजन के बाद मुसलमान भी मानते थे कि बचा भारत हिन्दुओं का है। जिन में बोद्ध, सिख, जैन आदि सम्प्रदाय भी गिने जाते थे। लेकिन दुर्भाग्य! जिस वैचारिक अंहकार से गांधी- नेहरू ने मुस्लिम लीग से निपटने की कोशिश की उसमें विफलता के बाद भी उन्होंने अपनी विचित्र जिद नहीं छोड़ी मुसलमानों ने कभी भी गांधी या कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि नहीं माना था,

फिर भी वे अपने को मुसलमानों का भी नेता बताते रहे। इस जिद को सही ठहराने के लिए उन्होंने फिर बचे भारत को भी हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों का भी घोषित कर दिया। तब बचा भारत हिन्दू हित- दृष्टि से चलाने पर मुसलमान और ईसाई संगठनों को केवल अपना हिन्दू विरोधी मजहबी प्रचार और धर्मांतरण बंद करना होता।

उन्हें अपने धर्मानुसार प्रार्थना, उपासना, त्यौहार आदि मनाने की स्वतंत्रता रहती। जो मुसलमान भारत को हिन्दू देश मानकर रहते, वे मिलजुल कर समानता से रहते। गांधी-नेहरू के बचकाने अहंकार को चतुर इस्लामी, ईसाई और कम्युनिस्ट नेताओं ने हवा दी।

इस बीच, हिन्दुवादी मतिहीन संगठनों ने डटकर कभी आवाज नहीं उठाई कि बचा भारत सिर्फ हिन्दुओं और देशी सम्प्रदायों का है। आज सत्ता हिन्दूवादी कहलाने वालों के हाथ है, मगर वे भी ‘सच्चे सैकुलर’ बनने के नाम पर गांधी- नेहरू की तरह हिन्दू हितों की बात नहीं करते।

भाजपा-परिवार के नेतागण ने कभी उस हिन्दू-विरोधी ‘सैक्युलरवाद’ को चुनौती नहीं दी, जिसे इंदिरा गांधी की तानाशाही ने सांस्कृतिक अधिकारों से वंचित कर धीरे-धीरे दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया। इस अन्याय को जी-जान से ठुकरा कर हिन्दू हितों के लिए लड़ने के बजाय भाजपा ने अपने को ‘सच्चा सेक्युलरवादी’ दिखाने की सोची।

इसी का कुपरिणाम है कि उत्पीड़ित हिन्दू शरणार्थियों के लिए आज एक मामूली कदम उठाने पर भी वे झूठे आरोप और दंगे झेल रहे हैं। देश के लिये नीतियाँ बनाने में स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, श्री अरविन्द, टैगोर जैसे महान चिन्तकों की शिक्षा पर चलने से मुस्लिमों में भी अधिक विवेक और भरोसा पैदा होता।

उन मनीषियों ने कहा था कि भारत हिन्दू धर्म की भूमि है। यही इसका ध्येय और महत्ता है। यदि इस मूल तत्व की उपेक्षा की गई, तब अन्य क्षेत्रों में कितनी भी उन्नति होने पर  भी भारत के विनाश का खतरा है। यदि सच्चा इतिहास पढ़ा और पढ़ाया जाता तो हिन्दुओं को और मुसलमानों को भी बरगलाया नहीं जा सकता था।

विभाजन के बाद यहां रह गए मुसलमानों में यह शर्म और अहसास था कि उन्होंने देश तोड़ कर हिन्दुओं को भारी चोट पहुचाई। फिर भी उन्हें रहने देकर हिन्दुओं ने बड़ा अहसान किया। इस अहसास के साथ सच्चा सामंजस्य बनना सरल था, क्योंकि हिन्दू मानस और व्यवस्था वैसे ही उदार होती है।

मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह से ग्रस्त मीडिया और बेगुनाह मुसलमान –  TwoCircles.net

आज यहां दो-तीन पीढ़ियों से हिन्दुओं और मुसलमानों को नकली, हानिकारक और मतवादी शिक्षा दी जा रही है। सरकारी बल पर फैलाए गए कम्युनिस्टों के रचे झूठे इतिहास के दुष्प्रभाव में ही आज अनेक लेखक, पत्रकार, छात्र आत्महीन मानसिकता से ग्रस्त हैं। कभी ‘टुकड़े-टुकड़े’ गैंग का साथ देते हैं, तो कभी अलगाववादी, उत्पातियों का।

क्योंकि उन में अपने धर्म, संस्कृत तुलनात्मक इतिहास व दर्शन का ज्ञान नहीं है। विविध मतवादी, भोगवादी विचारों के बंदी होकर वे इस्लामपरस्ती को अपनी श्रेष्ठता समझते हैं। योगीराज श्री अरविन्द ने हमें सीख दी थी कि सामाजिक समस्याओं को राजनीतिक या दलील नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि से देखें। खुले हृदय से मुसलमानों के साथ भाई के समान व्यवहार करें।

यानी बराबरी और सच्चाई के साथ व्यवहार। न मिथ्याचार अपनाएं, न लड़ने से कतराएं। वही सलाह आज  भी सटीक है। जब मुसलमान अयातुल्ला खुमैनी, सद्दाम हुसैन जैसे बाहरी, भयंकर मुस्लिम रहनुमाओं के आवाहनों पर भी उठ खड़े होते रहे हैं, तो हिन्दू अपने महान ज्ञानियों-योगियों की भी सीख पर क्यों न चलें!