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यात्राओं का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना मानव का इतिहास।
आदि- मानव जंगलों में रहता था, एक जंगल से दूसरे में भ्रमण करता था, कभी शिकार की तलाश में कभी सुरक्षा की दृष्टि से। यात्रा का अर्थ होता है; जाना, गति, सफर। यात्रा, इतिहास में जाना होता है और वापिस लौटना भी। यात्राएं काल्पनिक हों या वास्तविक उनका विवरण मन को मोह लेता है।
प्राचीन काल से लेकर अब-तक निजी या सामूहिक यात्राओं के पथ, पथिक, पाथेय बदलते रहे हैं और उनके हेतु भी; यथा- जीवन-निर्वाह, व्यवहार, उपाय, उत्सव, प्रस्थान, प्रयाण, देशाटन, देव-दर्शन, देव-पूजन, तीर्थयात्रा, एक स्थान से दूसरे स्थान को निर्वासित/विस्थापित/पुनर्वासित होना, चढ़ाई, युद्ध-यात्रा, राजनीति, अध्यात्म, अध्ययन, मनोरंजन, व्यापारिक यात्राएं रोजगार, स्वास्थ्य-लाभ इत्यादि, इत्यादि।
यात्राओं के परम्परा में अनादि भगवान शिव से प्रारंभ करते है जिन्होंने दक्ष प्रजापति का यज्ञ विध्वंस कर सती के दग्ध- देह को कंधे पर रखकर ब्रम्हांड की यात्रा की। रास्ते में जहां-जहां माता सती के शरीर के हिस्से गिरे वहां-वहां (52) शक्ति पीठों की स्थापना हुई। महर्षि नारद भी हमेशा भृमण कर मानव कल्याण के लिये सन्देश वाहक प्रथम पत्रकार के रूप में थे। सभी देवी देवता अपने अपने सजीव वाहनों से यात्रा करते थे।
यदि रामायण-काल को लें, प्रभु श्री राम ने अयोध्या से श्रीलंका तक पदयात्रा की, इस यात्रा में उन्होंने विभिन्न आश्रमों, गुरुकुलों में जा-जाकर ऋषि-मुनियों और सिद्ध-संतों से जीवन की बहुमूल्य शिक्षाएं लीं, दिव्य शक्तियां प्राप्त की। साथ ही, समाज के पदच्युत, उपेक्षित जन जातियों- भील-आदिवासी, कोल-किरातों, वानर-भालुओं को अंगीकार किया, उन्हें सामाजिक रूप से संगठित किया, उनका मनोबल बढ़ाया, अस्त्र-शस्त्र संचालन में प्रशिक्षित किया,
जिससे वे रावण जैसे महाबली से विजयी हुये। इस यात्रा में उन्होंने अपने राज्य के अंतिम छोर पर बैठे आदमी से मुलाकात की, उसका दुःख-दर्द समझा और वनवास-अवधि उपरांत वापिस अयोध्या लौटकर आदर्श राम राज्य की स्थापना की, जिसके संबंध में कहा जाता है कि- “दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहू व्यापा”।।
साल्व का वध करने के बाद भगवान कृष्ण ने द्वारका से कलिंग तक नारायणी सेना सहित यात्रा की और वहाँ दंतवक्र का वध किया, यह यात्रा नर्मदा के उत्तर तट से विंध्याचल और नर्मदा के मध्य उस पौराणिक पथ से हुई, जो सीधे जाबालिपुरम के कटंगी-पाटन-मझौली से सटकर जाता है। इसी क्रम में वे (भगवान कृष्ण) बलदाऊ और उद्धव के साथ अपनी मौसी के घर गए।
देव योग से वहाँ लीलाधारी कृष्ण बीमार पड़ गए, स्वस्थ्य होने पर उन्हें नगर-भ्रमण कराया गया। पुरी का प्रसिद्ध मंदिर और वहाँ की प्रसिद्ध जगन्नाथ रथ यात्रा के पीछे ऐसी ही कथाएं प्रचलन में हैं। वहीं, पांडवों ने अपने 14 वर्ष के वनवास और फिर एक वर्ष के अज्ञातवास की अवधि में लगभग सम्पूर्ण आर्यावर्त का भ्रमण किया, कठिन साधना की, अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त कीं।
नर्मदा तट पर भीमबैठका (रायसेन) और पांडव-गुफ़ाओं (पचमढी) में उनकी यात्रा के अवशेष मिलते हैं। वनवासी पांडवों ने विभिन्न जनपदों में घूमकर वहाँ की संस्कृति-वैविध्य का अनुभव किया, वहाँ के राजाओं से मैत्री-संबंध स्थापित किये जो महाभारत युद्ध में उनके पक्ष में लड़े। आदि-शंकराचार्य ने दक्षिण (कांची) से उत्तर (कश्मीर) तथा पश्चिम (द्वारका) से पूर्व (पुरी) तक की यात्रा की, चार कोनों में चार मठों की स्थापना की।
विलुप्त तथा विकृत ज्ञान-विज्ञान को उदभाषित और विशुद्ध कर वैदिक वांगमय को दार्शनिक, व्यवहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने की उनकी अमोघ दृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है। कलिंग-युद्ध के भीषण नरसंहार से हृदय परिवर्तन के बाद बौद्ध-धर्म के अनुयायी सम्राट अशोक ने अपने पुत्र (महेंद्र) और पुत्री (संघमित्रा) को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका और अन्य राष्ट्रों में भेजा था।
जिसकी चर्चा रूपनाथ (बहोरीबन्द/कटनी) में लगे शिलालेख में है। जैन पंथ में श्वेतांबर और दिगम्बर मुनि, सदियों से पदयात्राएं कर अहिंसा परमोधर्मः और शाकाहार का सत संदेश समाज को दे रहे हैं। गुरु नानक देव ने भारत-भ्रमण करते हुए देश की विराट संस्कृति को नजदीक से समझा और जाति-धर्म-वर्ण-संप्रदाय, से परे कबीर, फरीद, नामदेव, रैदास जैसे महान संतों और गुरुओं की वाणी संग्रहित की जिससे “श्री गुरुग्रंथ साहब” की स्थापना का मार्ग प्रशस्त को सका।
भारत वर्ष की बहुआयामी सनातन संस्कृति, वैदिक ज्ञान, योग और अध्यात्म ने जहां उसे विश्व गुरु बनाया वहीं विदेशी विद्वानों को भी भारत-भ्रमण के लिए आकर्षित किया। अल बरूनी, इब्नेबतुता, मेगस्थनीज चीनी यात्री हेनसांग, फ़ाहियान भारत आये और अपने यात्रा अनुभवों में यहाँ की महान संस्कृति, सँस्कृत भाषा संस्कार, गीता वेद पुराण ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक धार्मिक आयोजनों विशेषकर कुम्भ मेले की भूरी-भूरी प्रशंसा की।
महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से वापिस लौटकर स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभालने के पूर्व पूरे भारत की यात्रा की और गोरी सरकार की दमन नीति और काली करतूतों का अध्ययन किया। उनके द्वारा दांडी-मार्च देश के इतिहास में पहली राजनैतिक यात्रा थी, जो जनचेतना के अभूतपूर्व ज्वार का जरिया बनी और जिसने अंग्रेजी सरकार की जड़ें हिला दीं।
विनोबा भावे द्वारा भूदान को लेकर देश भर में यात्राएं की।स्वतन्त्र भारत में पूर्व प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर की पदयात्रा गंगाजल कलश यात्रा, लाल कृष्ण आडवाणी जी की राम रथयात्रा के साथ सिंधु दर्शन यात्रा ,स्वदेशी संघर्ष जागरण यात्रायें सुश्री उमा भारती जी की रामरोटी अयोध्या यात्रा, कई संगठनों की युवा किसान, मजदूर एवं आदिवासी यात्रा,
दक्षिण के रामचन्द्रपुर मठ के आशीर्वाद से विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा, रामसेतु बचाने की गई यात्रा, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान की नर्मदा सेवा यात्रा के क्रम में अन्यान्य यात्राएं हैं। अभी स्वराज-75 के अंतर्गत देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के आव्हान पर केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद पटेल जी की दांडी यात्रा युवा समाजसेवी सिद्धार्थ राय की भारत यात्रा उल्लेखनीय है।
धार्मिक प्रयोजनों को लेकर उत्तराखंड के चारों धाम बदरीनाथ केदारनाथ गंगोत्री यमनोत्री की यात्रा विहिप की अमरनाथ यात्रा, पंढरपुर वारी संकीर्तन यात्रा, जगन्नाथ रथ यात्रा, कांवर यात्रा तथा चेतन्य महाप्रभु संकीर्तन यात्राएं आम आदमी में जन जागृति और आध्यात्मिक विकास के लिए नियमित की जाती हैं। साहित्यिक संस्थाओं द्वारा साहित्य संवर्धन यात्राएं भी हो रही हैं।
अभी आंध्रप्रदेश से प्रारम्भ होकर कुम्भ सन्देश यात्रा चारों कुम्भ स्थल होती हुई हरिद्वार पहुंची। धार्मिक स्थलों के अलावा भी बहुत लोग ऐतिहासिक स्थलों जैसे जलियांवाला बाग अंडमान निकोबार में कालापानी जेल हल्दीघाटी व बलिदानी स्मारकों प्राचीन किलों के दर्शन के लिए जा रहे हैं। परिव्राजक, संत एवम सद-गृहस्थ धार्मिक स्थलों, पर्वतों और गंगा, यमुना, नर्मदा जैसी पवित्र नदियों की परिक्रमा करते हैं।
नर्मदा एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी दोहरी परिक्रमा होती है । हर साल हजारों-हजार परिक्रमा वासी नर्मदा को दाहिने रखकर अमरकंटक से खंभात की खाडी और फिर वापिस अमरकंटक तक पैदल यात्रा करते हैं। जिनकी रुकने, भोजन की व्यवस्था हर जगह माई की कृपा से हो जाती है। चित्रकार एवं कला-शिक्षक अमृत लाल बेगड़ ऐसे परिक्रमा वासी रहे जिन्होंने किश्तों में यात्रा पूरी की,
उसके सरस वृतांत को नर्मदा-त्रयी (सौन्दर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा) में प्रकाशित करवाया और उस यात्रा के दौरान बनाए स्केचों के सुंदर कोलाज बना कर प्रदर्शित किये। मोटर-साइकिल, कार तथा बस द्वारा भी कुछ नर्मदा-भक्त नर्मदा-पर्यटन एवं परिक्रमा कर पुण्य-लाभ और सौन्दर्य-दर्शन कर रहे हैं।