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जिन किन्हीं ने भी वार्षिक कैलेण्डर में मातृभाषा दिवस को एक तिथि के रूप में टांका है उनके चरणों में मुझ अकिंचन का प्रणाम्…
प्रणाम् इसलिए भी कि जिन-जिन के साथ माता का विशेषण जुड़ा है वे सब खतरे में हैं। धरती माता बुखार से तप रही है। गंगा माता का दम संडांध में घुट रहा है। गोमाता सड़कों पर डंडे खाने और विष्ठा खाकर पेट भरने, पन्नी खाकर मरने के लिए छोड़ दी गईं हैं। गीता माता के वैभव पर धर्म और सांस्कृतिक फूहड़ता का ग्रहण है।
और वे माताएं जिन्होंने अपनी कोख से हमें जना हैं उनके जीवन का उत्तरार्द्ध या तो वृद्धाश्रम में खप रहा है या फिर कनाडा, अस्ट्रेलिया, अमेरिका कमाने गए बेटों के इंतजार में ड्राइंग रूम में बैठे-बैठे मम्मी से ममी में बदल रही हैं। मातृभाषा पर भी ऐसा ही संकट है। संकट पर विस्तार से व्याख्या फिर कभी, आज तो हम अपनी मातृभाषा के रूपरंग, कद-काठी पर बात करेंगे।
हमारा अस्तित्व माँ नर्मदा से है। जिन्हें रेवा कहा जाता है। स्कंदपुराण में रेवाखंड नाम का एक अध्याय ही है। इसी में सत्यनारायण की कथा है। सांस्कृतिक और पारंपारिक तौर पर यह कथा हमारे अत्यंत निकट है। तो हमारी संस्कृति रेवाखंडी है..यहीं से रीवा शब्द उपजा, और रीमा, रिमहा, रिमही बना। उससे पहले रेवापत्तनम् जैसै -जैसे राजा आए यहां राज करने वैसे वैसे कुछ न कुछ जुड़ता या घटता रहा।
जब यह बघेल राजाओं का रीमाराज्य बना तब यहां की बोली को रिमही का नाम मिला। रीमाराज्य के ऊपर अँग्रेज बैठे तो इसे बघेलखंड बना दिया और इस तरह अपनी रिमही बन गई बघेली तो पहले तय किया जाए कि हम अपनी बोली को बघेली कहें या रिमही। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इससे हमारी बोली का भूगोल, इतिहास और भविष्य का निर्धारण होना है।
भाषा का इतिहास लिखने वालों ने अपने सर्वेक्षण और वर्गीकरण में अपनी बोली को बघेली का नाम दिया है। यही नाम अब चलन में भी है। शिक्षाविद् अँग्रेज गियर्सन महाशय ने भाषा-बोली के सर्वेक्षण व वर्गीकरण में इसे अवधी से निकली हुई उपबोली बताया और बघेली नाम दिया।
बांधवगद्दी के रीमा स्थानांतरित होने व रीमाराज्य बनने के बाद अंग्रेजों का पहला हस्तक्षेप महाराजा अजीत सिंह (1755-1809) के शासनकाल में हुआ। इसी बीच एक अंग्रेजी यात्री लेकी ने भी राज्य की यात्रा की। उसने अपनी डायरी में यहां की तत्कालीन संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराएं परिवेश, बोली-भाषा का उल्लेख किया।
अंग्रेज हुकूमत की पहली विधिवत संधि महाराज जयसिंह (1809-1833) के समय हुई। इसके बाद उनका दखल बढ़ता गया और महाराज विश्वनाथ सिंह के समय तक सत्ता के सूत्र के तरह से अंग्रेजों के हाथों में ही आ गया। इतिहास में जिसे हम रीमाराज्य कहते हैं वस्तुत: अंग्रेजी हुकूमत के शासन प्रबंधन की दृष्टि से यह बघेलखंड पॉलटिकल रीजेंसी हो गया।
ब्रिटिश हुकूमत ने रीमाराज्य शब्द को अपने बात व्यवहार और शासन-प्रशासन से तिरोहित कर दिया। राज्य के शासन प्रबंधन के लिए अंग्रेजो ने प्रत्येक क्षेत्र में अध्ययन व सर्वेक्षण शुरू किया। इसी काल में कनिघंम महाशय भी आए और इस क्षेत्र के पुरातत्व का विशद सर्वेक्षण किया। गोर्गी-भरहुत तभी चर्चा में आए बौद्धकालाीन और कल्चुरिकालीन पुरासंपदाएं रिकार्ड में दर्ज हुईं।
उधर गोड़वाने में वॉरियर आल्विन जनजातियों पर अध्ययन कर रहे थे, तो इधर वॉल्टर जी ग्रिफिथ महोदय। वॉलटर ग्रिफिथ ने बघेलखंड के जनजातियों की बोली, भाषा, संस्कृति, रहन-सहन का विशद अध्ययन कर ‘ट्राइब्स इन सेंट्रल इंडिया’ नाम की महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसे कलकत्ता की एशियाटिक सोसायटी ने छापा। पूरी किताब में गिफिथ ने कहीं भी बघेली बोली का उल्लेख नहीं किया।
इसके बाद आए ग्रियर्सन, उन्होंने उत्तर भारत की भाषाओं और बोलियों का सर्वेक्षण वर्गीकरण किया। बघेलखंड पॉलिटकल रीजेंसी में जो बोली जाती थी उसका नाम वैसे ही बघेली रख दिया जैसे कि बुंदेलखंड की बुंदेली, यानी कि बघेलखंड पॉलटिकल एजेंसी की स्थापना को बाद से ही बघेली शब्द आया। अपनी बोली के इस नए नाम को किसी भी राजा ने स्वीकार नहीं किया।
विश्वनाथ सिंह से लेकर गुलाब सिंह तक। यहां तक कि अंतिम शासक मार्तण्ड सिंह की जुबान में भी रिमही जनता और रिमही बोली जमी रहीं न कि बघेली जनता व बघेली बोली। महाराजा गुलाबसिंह के पुष्पराजगढ़ घोषणा पत्र में ऐलान किया था कि राज्य सभी काम-काज रिमही बोली होंगे। इन्हीं कार्यकाल में उर्दू-फारसी में लिखी जाने वाली अर्जियां रिमही बोली में लिखी जाने लगीं।
अभी भी उस समय के करारना में, अर्जियां, सनद लोगों के पास हैं जो रिमही में लिख गई हैं। गजब
यह हुआ कि जिस बघेली शब्द को यहां के राजे-महाराजों ने खारिजकर दिया उसे स्वतंत्र भारत के हिंदी के पंडों ने आगे बढ़ाया व महिमामण्डित किया। अव्वल तो हमारी बोली के शोध, अनुसंधान व दस्तावेजीकरण की दिशा में कोई खास काम हुआ ही नहीं, जिन्होंने किया वो ग्रियर्सन की खींची लकीर व दी गई स्थापना के इर्द-गिर्द ही खुद को शामिल रखा।
बोली और भाषा जाति की नहीं जमीन की होती है। विन्ध्य के यशस्वी समालोचक कुंवर सूर्यबली सिंह ‘बघेली की स्थापना को खंडित करने में लगे रहे। उन्होंने सबसे पहले अपने आलेखों में लिखा कि गोस्वामी तुलसीदास का रामचरित मानस रिमही में लिखा गया महाकाव्य है। चूंकि हिन्दी में उत्तरप्रदेश के विद्धानों का वर्चस्व रहा इसलिए