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समाज सुधार व नारी जागरण के देवदूत ईश्वरचंद्र विद्यासागर

जन-जन में अपनी आत्मा के स्वरूप का ही दर्शन करने वाले ईश्वरचंद विद्यासागर का जन्म मेदिनीपुर जिले के बिरसिंहपुर नामक गाव में 26 सितंबर 1820 में ऐसे समय हुआ था। जब विदेशी जातियां बर्बरता पूर्ण ढंग से भारतीयों की इज्जत लूटने में लगी थी। ईश्वर चंद दरिद्र परिवार में जन्म लेकर दरिद्र अवस्था में जीवन व्यतीत करके भी कभी वित्तेश्णा के ब्यामोह में ना फंसे। उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया, फिर भी समाज सेवा के कर्तव्य से विमुख ना हुए।

ईश्वरचंद बंदोपाध्याय ने 19वीं शताब्दी के विद्वानों में जो प्रमुख स्थान बनाया था। उसके मूल में उनका कठोर परिश्रम ही दिखलाई पड़ता है। 9 वर्ष की आयु में संस्कृत कॉलेज में प्रवेश लेकर वर्षों तक शतत अध्ययन शील रहे। उनके अध्ययन काल को तप:पूरित जीवन कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। उन्हें अपना खर्च चलाने के लिए दूसरों का भोजन बनाना, बर्तन मांजना और सफाई जैसे अनेक कार्य करने होते थे। इन कार्यों के बाद जो समय बचता तब वह पढ़ाई किया करते थे। रात को केवल 10 से 12 बजे तक नींद लेते और फिर किताबें लेकर बैठ जाते। सुबह होते ही फिर दूसरों के कार्य पर जाना होता था। गरीबी ने उनको इतना अधिक घेर रखा था कि रात की पढ़ाई भी वह अपने कमरे में शांत चित्त से ना कर पाते। कभी-कभी दीपक के लिए तेल ना होने पर वे सड़क के किनारे स्थित नगर पालिका की लालटेन (स्ट्रीट लाइट) मे अपनी पढ़ाई किया करते थे। इसी परिश्रम शीलता के परिणाम स्वरूप उन्हें एक दिन ‘विद्यासागर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।

अध्ययन समाप्त करने पर ईश्वरचंद की नियुक्ति प्रधान पंडित के पद पर फोर्ट विलियम पार्ले कॉलेज कोलकाता में हुई। परिश्रम शीलता और इमानदारी के कारण सहायक अधीक्षक, प्रोफ़ेसर और प्राचार्य जैसे महत्वपूर्ण पदों तक वह जा पहुंचे। इस अवधि में उन्होंने संस्कृत व्याकरण के प्रथम तीनों भाग प्रकाशित किए जो पाठ्य पुस्तक के रूप में चलते रही ।उन्होंने कई बंगला पुस्तकें भी लिखी।

1 जनवरी 1877 को उनकी संस्कृत की विद्वता के लिए महारानी विक्टोरिया ने उन्हें सी .आई. ई. की उपाधि से विभूषित किया था। ईश्वरचंद सादा जीवन और उच्च विचारों की प्रतिमूर्ति थे। उनकी सादा वेशभूषा सौम्यता की प्रतीक थी। उन्हें भले ही बड़े से बड़े पदाधिकारियों से मिलने जाना हो वह धोती चादर और चप्पल के अतिरिक्त और कुछ धारण ना करते थे। पराधीन भारत में जन्म लेकर भी उनका स्वाभिमान देखते ही बनता था। एक बार उन्होंने एक दम्भी ,कुटिल अंग्रेज अफसर को स्वाभिमान का अच्छा सबक सिखाया था।

एक बार उन्हें अपनी मां का पत्र मिला जिसमें छोटे भाई के विवाह के कारण घर आने का आग्रह था। ईश्वरचंद का उच्च अधिकारी अवकास देने को तैयार ना था। वह त्यागपत्र लेकर अधिकारी के पास पहुंच गए। अंग्रेज साहब की आज्ञा से मां की आज्ञा उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण थी।

अत:वरिष्ठ अधिकारी को आश्चर्य हुआ और अंत में विवश होकर उसे अवकाश देना ही पड़ा। एक समय की बात है गर्मी के दिन थे दोपहर के समय पीड़ित एक वृद्धा सड़क के किनारे पड़ी अंतिम सांसे गिन रही थी। लोग आते और मुंह फेर कर उधर से निकल जाते कौन उस दुर्गंध युक्त महिला को छुए। संयोगवश उसी मार्ग से ईश्वरचंद्र विद्यासागर निकले। उन्होने घ्रणा से अपनी दृष्टि नहीं फेरी वरन उस वृद्धा के पास गए। सारी स्थिति का अवलोकन किया और गोदी में उठाकर अपने घर ले आए। वृद्धा की चिकित्सा की और खाने-पीने का सारा इंतजाम किया। स्वस्थ हो जाने पर ईश्वरचंद ने आजीवन उसके पालन-पोषण की व्यवस्था की।

ईश्वरचंद एक ओर जहां विधासागर थे वहां दयासागर भी थे। पीड़ित मानवता के प्रति उनके हृदय में करुणा की भावना थी। वे कितने ही छात्रों को पढ़ाई का खर्च भी देते थे। जिन दिनों माइकल मधुसूदन दत्त पेरिस में आपत्ति ग्रस्त थे। उस समय उनकी सहायता करने वाले ईश्वरचंद ही थे। जिन्होंने ₹6000 भेजकर आड़े समय में सहायता की थी। वे कितने ही निर्धनों को अन्न- वस्त्र का भी प्रबंध करते थे। वह किसी ऋण ग्रस्त को परेशान देखते तो चुपचाप ही उसक ऋण मय ब्याज के चुकता कर देते थे। यदि कोई माता-पिता कन्यादान करने में अपने को असमर्थ पाते तो उन्हें ईश्वरचंद के लंबे हाथ सहायता पहुंचाते हुए दिखलाई पड़ते थे। ईश्वरचंद्र को उन दिनों ₹500 मासिक वेतन मिलता था। जिसमें वह ₹50 मासिक में अपने परिवार का खर्च चलाते एवं शेष राशि की बचत को निर्धन छात्रों की आवश्यकताएं जुटाने में लगाया करते थे। वह हमेशा कहते थे-” अपने लौकिक उत्तरदायित्व घटाकर लोकसेवी को परमार्थ मे नियोजित कर देना चाहिए। “उन्होंने यह कहा भी और आजीवन निबाहा भी।

उन दिनों हिंदू विधवाओं की दयनीय स्थिति को देखकर उनका ह्रदय रो पड़ा। इस कुरीति का उन्मूलन करने के लिए वे चल पड़े। उन्होंने संकल्प कर लिया। उन्होंने धर्म ग्रंथों के आधार पर अकाट्य तर्कों द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि विधवा-विवाह शास्त्र सम्मत है। ईश्वरचंद का घर विधवाओं का शरण- स्थल बन गया जो अपना दूसरा विवाह करना चाहती थी। अब तक विधवा विवाह को कानून से अनुमति ना मिली थी। अतः इस दिशा में ईश्वरचंद ने प्रयास करना शुरू कर दिया।

सन 1856 में ईश्वरचंद सफलता मिल गई और ‘हिंदू विधवा कानून ‘पास हो गया। पहला विधवा विवाह उन्हीं के मकान पर उन्हीं के द्वारा संपन्न कराया गया। पूरे समाज में सनसनी फैल गई। बड़े पंडित लोग जुड़ गए और उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया, किंतु ईश्वरचंद इन विरोधो के बावजूद भी अपने मार्ग से विचलित ना हुए। नारी जागरण के जिस मार्ग पर वे आगे बढ़े थे; बढ़ते ही चले गए। उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए अनेकों विद्यालय व महाविद्यालय खुलवाएं। अनेकों कन्या- विद्यालयों की स्थापना की। ईश्वरचंद ने विधवाओं को अनाचार के मार्ग पर बढ़ने न दिया वरन भारतीय नारी का गृहलक्ष्मी रूप बने रहने का मार्ग आलोकित किया।

ईश्वरचंद एक दिन अपने मित्र के साथ एक गांव जा रहे थे। रास्ते में हैजा से आक्रांत दींन- हीन व्यक्ति मूर्छित अवस्था में पड़ा मिला। विद्यासागर उसकी सफाई करके पास के अस्पताल में पहुंचाने का उपक्रम करने लगे। साथी मित्र ने कहा हम लोग आवश्यक काम से जा रहे हैं। उस छोटे काम को कोई और कर लेगा। हम लोग अपना कार्य क्यों छोड़े? विद्यासागर ने कहा- “मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। इस निस्सहाय पीड़ित की उपेक्षा करके अपनी निष्ठुर्ता ही तो हम लोग प्रमाणित करेंगे। निष्ठुर व्यक्ति का कोई कार्य भला नहीं कहा जा सकता।” मानवता की सेवा ही जिनका धर्म था।

एक बार विद्यासागर को रास्ते में एक भिकारी बालक मिल गया। वह उनके सामने हाथ फैला कर एक पैसा मांगने लगा। विद्यासागर ने पूछा “यदि मैं तुम्हें एक पैसे के स्थान पर ₹1 दे दूं तो तुम उसका क्या करोगे।” वह बालक रुपए की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा “बाबूजी – मैं भीख मांगना ही छोड़ दूंगा।”

विद्यासागर उसके हाथ पर ₹1 रखकर आगे बढ़ गए। कुछ वर्षों बाद विद्यासागर फिर उसी बाजार से जा रहे थे ।सामने से एक युवक धोती कुर्ता पहने आया और झुककर उन्हें प्रणाम किया। विद्यासागर भी रुक गए तो उसने निवेदन किया – “बाबूजी ! कृपया मेरी दुकान पर चलकर उसे पवित्र कीजिए।”

विद्यासागर उस युवक की बात न टाल सके थोड़े ही देर में फल की बड़ी दुकान के सामने उन्होंने अपने को खड़ा पाया। युवक ने कहा यह दुकान आपकी ही है। शायद आपको याद होगा एक बार भिकारी को एक पैसे के बदले में आपने ₹1 दिया था। यह मंत्र सिखाया था कि मनुष्य को अपनी आजीविका आप कमानी चाहिए, सो मैंने उसी रुपए से फलों का व्यवसाय शुरू कर दिया और आज इतनी बड़ी दुकान है। विद्यासागर बहुत प्रसन्न हुए और अधिक उन्नति का आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा- “बेटा जो लोग तुम्हारी तरह शिक्षा ग्रहण करते हैं उनके लिए यह सफलता कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।”

विद्यासागर जी ने अदालत में एक व्यक्ति को कर्ज के मुकदमे में रोते हुए देखा और उसका कारण जाना। वह व्यक्ति रोते हुये घर चला गया। उसकी पत्नी ने बताया कि डिग्रि करने वाले कई व्यक्ति आए थे और दरवाजा घेरे काफी देर खड़े रहे। अंत में किसी दयालु व्यक्ति ने कर्ज चुका कर उन्हें विदा किया। वह व्यक्ति उनका पता लगाते हुए घर पहुंचा और कृतज्ञता व्यक्त करने लगा। उन्होंने कहा- “भाई ! रुपए चुकाए तो मैंने ही हैं पर कहना किसी से मत। क्योंकि थोड़ा पैसा जेब में होने के कारण यह तो मेरा कर्तव्य ही था, जिसे मैंने पूरा किया।”

ऐसे अनेकों प्रसंग हैं ईश्वरचंद्र विद्यासागर के जीवन के जब वह गरीब, दरिद्र, बीमार जनों की सेवा करते हुए दिखाई देते हैं। उनका जीवन ही मानवता की सेवा के लिए समर्पित था। 29 जुलाई 1891 को मानवता के इतिहास में ऐसा दिन आया जब ईश्वरचंद्र जी इस संसार से महाप्रयाण कर गए। भारतीय समाज उनका चिरऋणी है।

पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने युग के महान समाज सुधारक व नारी जागरण के देवदूत थे। समाज की विपरीत परिस्थितियों में भी इतना महान कार्य ‘समाज सुधार का करके आपने समाज के सामने एक जीवंत उदाहरण प्रस्तुत किया। जो आज तक समाज को प्रेरणा प्रदान कर रहा है। कोई व्यक्ति विपन्न परिस्थितियों में भी अपने ईमान, साहस, आत्मबल व पुरुषार्थ से आगे बढ़ सकता है। प्रतिभाशाली बन करके समाज की बड़ी सेवा कर सकता है। इसी संदर्भ में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का कथन है कि- “मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं वरन उनका निर्माता व नियंत्रण कर्ता है।”

दीपक अंधकार में ही प्रकाश करता है। वह अंधेरे को चुनौती देता है व संघर्ष करके प्रकाश फैलाता है। एक निस्पृह कर्मयोगी,समाज सेवक का श्रेष्ठ उदाहरण विद्यासागर जी ने अपने जीवन से प्रस्तुत किया। मानवता (भारतीयता) व ईश्वरचंद एक ही शब्द के दो नाम थे। ईश्वरचंद सादगी, विद्वता, सत्यनिष्ठा व मानवीय संवेदना से भरा हुआ एक महान व्यक्तित्व कैसा होता है उसकी साक्षात प्रतिमूर्ति थे। एक व्यक्ति सदज्ञान व सदकर्म से कैसे महान बन सकता है। यह विद्यासागर ने स्वयं प्रत्यक्ष करके समाज को दिखाया। नारी शिक्षा, विधवा विवाह, सामाजिक असमानता, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा इत्यादि सामाजिक सुधार करके एक अनूठा, अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया।

आज भी समाज को ईश्वरचंद्र विद्यासागर की आवश्यकता है। आज भी समाज में बहुत सी बुराइयां असमानता, गरीबी, भ्रष्टाचार, संस्कार हीनता, अलगाववाद, भौतिकतावाद, आस्था संकट, आतंकवाद, पर्यावरण आसन्तुलन, दहेजप्रथा ना-ना प्रकार की उपस्थित हैं। इनसे लड़ने, परास्त करने हेतु महान व्यक्तियों की आज आवश्यकता है। केवल अपने लिए जीने बालों कि आज समाज में भीड़ है। किंतु जो समाज व राष्ट्र का चिंतन करते हो; ऐसे व्यक्तियों का आज अभाव है।

आज राष्ट्र में अनेकों चुनौतियां/बुराइयां मौजूद हैं। जो विद्यासागर जैसे महान समाज सुधारको, युग सेनानियों की बाट जो रहे हैं। आज ऐसे व्यक्ति चाहिए समाज को, जो संवेदना से भरे हो, जिनमें राष्ट्र का चिंतन हो, जो युग की पीड़ा निवारण के लिए अपना तन-मन-धन सर्वस्व निछावर करने हेतु तैयार हों। भारत माता आज पुनः ईश्वरचंद, सुभाष, भगत, बिस्मिल, शिवा को पुकार रही है, आह्वान्ं कर रही है। अतः जो भारत माता के बेटे (सपूत) हैं। वह इस पुकार को अनसुनी नहीं कर सकेंगे।

“नौजवानों उन्हें, याद कर लो जरा।
जो शहीद हो गए, इस वतन के लिए।।
जल रही है जिनके, लहू से शंमा ।
दे रही रोशनी जो, वतन के लिए।।”

लेख़क – डॉ. नितिन सहारिया (भारद्वाज)
संपर्क सूत्र – 8720857296