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लरका आंदोलन के प्रणेता वीर बुद्धु भगत…

 

झारखंड वीरों और बलिदानियों की धरती है। यहाँ की जनजातियों ने मातृभूमि की आन, बान और शान के लिये अंग्रेजों का प्रतिकार किया और संघर्ष करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। उन्‍हीं बलिदानियों में एक नाम वीर बुद्धु भगत है।

बुद्धु पर अंग्रेजी हुकूमत ने एक हजार रुपये का इनाम रखा था। भारत की प्रथम स्‍वाधीनता संग्राम 1857 के बहुत पहले से ही वनवा‍सी जनजाति योद्धाओं ने ब्रिटिशर्स का प्रतिकार करना प्रारंभ कर दिया था। महान स्‍वतंत्रता सेनानी बुद्धु को विख्‍यात ‘लरका आंदोलन’ के लिये जाना जाता है,

लेकिन इतिहास के पन्‍नों में ऐसे आंदोलनों व क्रांतिकारियों के बारे में जानकारी न के बराबर है। बुद्धु के छेड़े आंदोलन के फलस्‍वरूप ही भूमि सुरक्षा (सीएनटी) एक्ट बना। भारतीय स्‍वतंत्रता की लड़ाई में वीर बुद्धु भगत के पुत्र हलधर-गिरधर और,

पुत्री रूनिया व झुनिया ने भी अपना सर्वोच्‍च बलिदान दिया। कहा जाता है कि उन्हें दैवीय शक्तियाँ प्राप्त थी, जिसके प्रतीक स्वरूप एक कुल्हाड़ी हमेशा अपने साथ रखते थे। उनके एक इशारे पर लोग अपनी जान तक न्‍यौछावर करने लिये तैयार रहते थे।

जन् प्रारंभिक जीवन

  • वीर बुद्धु भगत का जन्‍म 17 फरवरी, 1792 राँची जिला के चान्‍हों प्रखंड के सिलागाई गाँव में हुआ था। वे उरांव जनजाति से थे। उनके परिवार का पेशा खेती-किसानी था।

  • बुद्धु तीर चलाने, गुरिल्‍ला युद्ध, घुड़सवारी, शिकार करने आदि में दक्ष थे। अंग्रेजों का अत्याचार देखते हुए ही वे बचपन से जवान हुए। उनकी फसलें अंग्रेज व जमींदारों द्वारा हड़प ली जाती थी। कई-कई दिनों तक जनजातियों के घरों में चूल्हे नहीं जलते थे।

  • अपनी जमीन और जंगल की रक्षा के लिये जब वनवासियों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लोहा लेने का संकल्प लिया तो वीर बुद्धु भगत नायक के रूप में उभरे।

लरका आंदोलन

वर्ष 1831-32 के दौरान छोटा नागपुर को ब्रिटिशर्स से मुक्त कराने के लिये बुद्धु ने जनजातियों के साथ मिलकर आंदोलन का बिगुल फूँका था। यही संग्राम लरका आंदोलन के नाम से जाना गया, इसमें मुंडा, उरांव इत्यादि कई जनजातियाँ शामिल थीं।

लरका आंदोलन ने अंग्रेजों को परेशान कर दिया था। क्रांतिकारियों को बुद्धु ने गुरिल्ला युद्ध के लिये दक्ष बनाया। संग्राम के लिये इनके पास पर्याप्त जन-समर्थन था। अंग्रेजों के विरूद्ध उन्होंने अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। अंग्रेजों से लड़ने में जंगल हमेशा सहायक रहे।

घने एवं दुर्गम पहाड़ियों के कारण बुद्धु ने कई बार अंग्रेजी सेना को परास्त किया। उन्‍होंने घूम-घूमकर अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध जन-जागरण कर लड़ाई के लिये प्रेरित किया। बुद्धु का आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध तेजी से प्रभावी होने लगा,

जिससे भयभीत अंग्रेजों ने उन्‍हें पकड़ने के लिये एक हजार रुपये का पुरस्‍कार भी घोषित किया था। बुद्धु को पकड़ने का काम कैप्टन इंपे को सौंपा गया था। बनारस की पचासवीं देसी पैदल सेना की छह कंपनी और घुड़सवार सैनिकों का एक बड़ा दल जंगल में भेजा गया था।

टिकू और आसपास के गांवों से हज़ारों ग्रामीणों को गिरफ़्तार कर लिया गया। बुद्धु के दस्ते ने घाटी में ही बंदियों को मुक्त करा लिया। करारी शिकस्त से कैप्टन बौखला गया।

अंग्रेजों की बर्बरता

01 फरवरी, 1832 की रात को टिको पोखरा टोली से सटे बगीचा में रणनीति बना रहे सात क्रांतिकारियों को अंग्रेजी सेना ने दबोच लिया। 02 फरवरी को पोखरा टोली के समीप स्थित जोड़ाबर में उन्‍हें बरगद के दो पेड़ों से रस्सी में बांधकर गला काटकर हत्या कर दी गई थी।

बलिदान

13 फरवरी, 1832 को सिलागाई गाँव में कैप्टन इंपे के साथ अंग्रेजी सेना बुद्धु को गिरफ्तार करने आ धमकी। कैप्टन ने गोली चलाने का आदेश दे दिया, जिसका बुद्धु के नेतृत्‍व में तलवार, टाँगी, फरसा आदि से लैस सैकड़ों वनवासियों ने तीव्र प्रतिकार किया।

अंग्रेजों पर तीरों की बौछार शुरू कर दी। क्रांतिकारियों के आंदोलन को कुचलने के लिये अंग्रेजों ने अमानवीय तरीकों को अपनाया था। बूढ़े, बच्चे-महिलाओं एवं युवाओं का क्रूरता पूर्वक संहार हुआ था। घर व अनाज जला दिये गये।

पशुधन जब्‍त कर लिये गये। वीर बुद्धु भगत के साथ ही उनके दो बेटे हलधर (18) व गिरधर (15) और दो बेटियाँ रूनिया (09) व झूनिया (07) ने भी अपना बलिदान दे दिया।

लेखक :- नन्द कुमार साय