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मेरा रँग दे बसन्ती चोला….

“तथाकथित विश्व कविता दिवस” पर ये सर्वकालिक महान् कविता और गीत – महा महारथी श्रीयुत रामप्रसाद बिस्मिल और सरदार भगत सिंह की रचना

लखनऊ जेल में काकोरी यज्ञ के कई क्रांतिकारियों को कैद किया जा चुका था। केस चल रहा था इसी दौरान बसंत पंचमी का त्यौहार भी आ गया। सभी क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसंत पंचमी के सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रुमाल लेकर कोर्ट जाएंगे। उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ से कहा- “पण्डित जी! कल के लिये कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।”
और राम प्रसाद बिस्मिल ने तैयार कर दी यह कविता

मेरा रंग दे बसन्ती चोला….
हो मेरा रंग दे बसन्ती चोला….
इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बन्धन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;
नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला।
मेरा रंग दे बसन्ती चोला….
हो मेरा रंग दे बसन्ती चोला….

कई दिनों तक यह गीत सभी क्रांतिकारियों की जुबां की शान बना रहा। क्रांतिकारी जब भी किसी सदस्य से मुलाकात करते तो मेरा रंग दे बसंती चोला का जिक्र जरूर करते।

यह गीत शहीद भगत सिंह ने भी सुना और उन्हें भी यह खासा पसंद आया। शहीद भगत सिंह उन दिनों लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इस गीत में कुछ और पंक्तियाँ और जोड़ी-
इसी रंग में बिस्मिल जी ने ‘वन्दे-मातरम्’ बोला,
यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला;
इसी रंग को हम मस्तों ने, हम मस्तों ने;
दूर फिरंगी को करने को, को करने को;
लहू में अपने घोला।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला….
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला….
माय! रँग दे बसन्ती चोला….
हो माय! रँग दे बसन्ती चोला….
मेरा रँग दे बसन्ती चोला….

लेखक:- डाॅ. आनंद सिंह राणा
संपर्क सूत्र:- 7987102901