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चीन कभी विश्वसनीय नहीं रहा…..

सन् 1962 में चीन ने भारत पर दो मोर्चों पर हमला किया था, वह हमारे तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व के लिये भले ही चैंकाने वाला हो सकता था, क्योंकि वे भ्रम में जी रहे थे। तब से अब तक चीन के हर कदम की पहल का अनुमान लगाना कठिन नहीं रह गया है।

सन् 1967 में नाथुला दर्र (सिक्किम) में उसने जो कुछ किया, वह उसने भारत की प्रतिक्रिया जानने के लिये ही किया था। सन् 1962 और 1965 की लड़ाईयाँ भी उसी थर्मामीटर के लिये थी। उस दशक में रिश्तों की बात ही की जाती रही है। उसी भ्रम में डाले रहने की स्थिति में वह जो चाहता था, उसने सन् 1962 में पा भी लिया।

उसकी नीयत का पता तो गत 5 अगस्त को लद्दाख में जो कुछ उसने किया, उसी से आहट मिल जाती है, अमित शाह ने संसद में बयान देकर कि हम अपनी जान की बाजी लगाकर भी अक्साई चीन का लेकर रहेंगे, कहकर कोई रास्ता बचाकर नहीं रखा। चीन हमेशा उसी नीति पर चलता रहा है कि बस एक चोट पहुंचाओ अपना दावा ठोको और उसे मजबूत करो फिर अपने कदम पीछे हटा लो।

चीन समझ नहीं रहा है, उसने दुनियाभर से बहुत बड़ी दुश्मनी मोल ले ली है

विश्वभर में फैले कोरोना संक्रमण के चलते, चीन अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिये एक अलग ही नाटकीय घटनाक्रम को अंजाम दे रहा है। सारी दुनिया जान गई है कि कोरोना का संक्रमण चीन से ही सारे विश्व में फैला है। उसकी संदेहास्पद गतिविधियों का ही परिणाम है कोरोना संक्रमण।

इस तथ्य पर पर्दा डालने के प्रयासों के अंतर्गत उसने एक नया खेल खेला है। भारत से लगी हुयी सीमा पर भारत की सैन्य टुकड़ियों के साथ सीमा विवाद को लेकर सैन्य झड़यों का सिलसिला शुरू किया है। उसने भारी संख्या में अपने सैनिकों को सीमा के पास तैनात कर दिया है और लगातार उसकी संख्या बढ़ाता जा रहा है। सन् 1960 के दशक में पं. नहरू ने, जो चीन के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था और पंचशील के सिद्धांतों की दोनों ओर से दुहाई भी दी गयी थी लेकिन सन् 1962 में चीन ने अपनी विश्वास और प्रेम सम्बंधों, भाईचारे को ठुकराते हुये भारत पर हमला कर दिया था। तब से लेकर अब तक भारतीय जनता उस पर भरोसा नहीं कर सकी है। यद्यपि चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि भारत के साथ सीमा पर हालात पूरी तरह स्थिर और नियंत्रण में हैं। दोनों पक्षों के पास बातचीत और विचार विमर्श करके मुद्दों को हल करने के लिये उचित तंत्र और संचार माध्यम भी उपलब्ध हैं। ये दो मुंहा रवैया है।

इसी बीच चीन के बहकावे में आकर भारत के खिलाफ जहर उगल रहे नेपाल ने पुनः दोस्ती की बात कहना शुरू कर दी है। राजनैतिक सूत्रों के अनुसार बताया जाता है कि नेपाल की संसद में उस विवादित नक्शे को पेश कर दिया है, जिसमें भारत के कालापानी सहित एक अन्य क्षेत्र को नेपाल का हिस्सा बतलाया था।

इस बदली हुयी स्थिति के बावजूद भारत और चीन के बीच लद्दाख की सीमा पर तनाव की स्थिति बरकरार है। उधर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता की पेशकश की है। राजनीति में यह चैंका देने वाला कदम माना जा रहा है। सूत्रों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा इस मामले में अलग-अलग बैठकों के दौरान चीन से लगती सीमा के सम्बंध में स्थिति की गम्भीरता से समीक्षा की है। इससे स्पष्ट है कि भारत अपने रूख पर दृढ़ है और वह दौलत बेग गोलडी के अपने क्षेत्र में सड़क निर्माण का कार्य भी जारी रखेगा। चीन द्वारा सीमा पर अपनी सेना की संख्या बढ़ाये जाने के कदम को देखते हुये भारत ने भी अपने सैनिकों और साजो सामान की संख्या बढ़ाना शुरू कर दिया है। चीनी गतिविधियों को देखते हुये भारत अपनी तैयारी को भी पुख्ता रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा। अतः जरूरी और एहतियात के तौर पर सभी कदम उठाये जा रहे हैं।

भारत-चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर उपजी परिस्थिति पर निर्णय लेने और आवश्यक कदम उठाने के लिये दिल्ली में शीर्ष कमान्डरों का त्रिदिवसीय सम्मेलन भी शुरू हो गया है। इसमें वर्तमान हालात के साथ सिक्किम व अरूणाचल प्रदेश में चीन की गतिविधियों पर भी गहन चर्चा हुयी है।

सीमा के दो इलाकों में गत 9 और 10 मई से ही सीमा के दोनों ओर हजार से अधिक सैनिक आमने-सामने आ चुके हैं। तीन वर्ष पूर्व डोकलाम विवाद के बाद एक बार फिर भारत और चीन के बीच तनाव का माहौल निर्मित हो गया है। प्राप्त खबरों में बतलाया गया था कि करीब 5000 सैनिक चीनी सीमा पर तैनात कर दिये गये हैं और वहां पर बंकर्स बन रहे हैं तथा टेन्ट गाड़ दिये गये हैं । कुछ एअर क्राफ्ट भी वहां पर देखे गये हैं। चीनी मीडिया के अनुसार यह विवाद डोकलाम से भी ज्यादा बड़ा होता हुआ महसूस हो रहा है। यहां पर दो इलाकों पेगोंगत्सा का गलवान घाटी और फिंगर 4 में तनातनी बढ़ी हुयी है। इसे देखते हुये भारतीय सेना ने चैकसी बढ़ा दी है।

वास्तव में चीन के विस्तार वाद के मंसूबे को विश्व में कौन नहीं जानता? इसके लिये वह हमेशा दबाव की राजनीति बनाये रखता है। वह कमजोर पड़ोसियों को कभी कर्ज देकर अपने फंदे में फंसाता है, वहीं भारत जैसे देशों की सीमा पर सैन्य दबाव बनाने की चाल चलता रहता है।

भारत की तगड़ी घेराबन्दी और तैयारी को लेकर चीन के तेवर ढ़ीले पड़ते नजर आने लग गये हैं। चीन के लद्दाख में सीमा विवाद को लेकर जो पहले कड़े तेवर थे, वे भी घटने शुरू हो गये हैं। क्योंकि अब उसे अपने ही क्षेत्र ताईवान और हांगकांग में कड़ी चुनौतियाँ मिलना शुरू हो गयीं हैं। इसी बीच नये घटना क्रम में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने भी चीन को झटका दे ही दिया है। अमेरिकी संसद में ताईवान और हांगकांग की स्वायत्तता का बिल पेश होने से चीन की बैचेनी बढ़ गयी है। उधर नेपाल में सारे विपक्षी दल नक्शा विवाद को लेकर नेपाली प्रधानमंत्री ओली के खिलाफ हो गये हैं। हालांकि भारत ने ट्रम्प की मध्यस्थता वाली पेशकश को ठुकरा दिया है। वास्तव में भारत एक सम्प्रभु और सशक्त राष्ट्र है जो चीन को हर मोर्चे पर कड़ी टक्कर दे रहा है। भारतीय फौज की तैयारी देखकर चीन की सेना और चीन की कम्युनिष्ट पार्टी सहम गयी है और उसने अब अपने सुर बदलकर शांति का राग अलापने में ही अपना भला समझ लिया है।

चीनी चालाकी समझना आसान काम नहीं है। उसकी फितरत क्या है, वह दुनिया भर में क्या कर रहा है? किसे उधार देता है, कहां निवेश करता है। चीन और पाकिस्तान के रिश्तों को देखकर कुछ न कुछ तो समझा ही जा सकता है कि कैसे उसने पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले भारतीय भूभाग को हथिया लिया और उस भूमि पर करोड़ों-अरबों रूपये खर्च कर चीन-पाकिस्तान इकोनोमिक कारिडोर जिसे सीपेक कहा जाता है, का निर्माण कर डाला।

श्रीलंका, मालदीव, मलेशिया, चाड इरीट्रिया, मौजांबिक, कांगो, दक्षिण सूडान, जिम्बाब्वे, इथियोपिया आदि अनेकों देश चीन को प्रत्यक्ष प्रभाव में हैं। सन् 2017 में ही करीब 77 अरब डालर की नयी परियोजनायें चीन ने आफ्रिका में संचालित की हैं। यहां उसे चीनीकरण के लिये मानो खुला मैदान ही मिल गया है। ये आने वाले दिनों के लिये गम्भीर संकेत है।

जहां तक भारत का सवाल है वह भी चीन से अप्रभावित नहीं है। यहां बिकने वाले दस स्मार्ट फोन में से सात चीनी हैं। चीनी मोबाईल ब्रांड शियोमी का भारतीय कारोबार 23,000 करोड़ रूपये है। इसके अलावा भी अन्य दस्तकें चीनी सामानों की भारतीय बाजार में सुनी-देखी और समझी जा सकती है। इन बातों को हलके में नहीं लिया जाना चाहिये।

चीन का गर्हित एवं घृणात्मक रवैया कोई नयी बात नहीं है। यह उसकी फितरत है। एक तरफ वह भारत को शांति की नसीहत देता है, दूसरी तरफ उसकी सेना आक्रामक रूख, बनाये दिखती है। उसके सैनिक लद्दाख के पूर्वीय क्षेत्र में पेंगोंगत्सो झील के पास डंडे, कांटेदार झुंडे और पत्थर हाथ में लिये दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि वे भारतीय सैनिकों से धक्का-मुक्की हाथापायी में जीत नहीं पाते। दोनों सेनायें आमने-सामने हैं। इनके बीच तनाव घटने की स्थिति भी नजर नहीं आ रही।

India, China not fired a single bullet over border since 1975 | भारत-चीन सीमा पर आखिरी बार 1975 में चली थी गोली, आज हुआ हिंसक टकराव - India TV Hindi News

सामरिक दृष्टि से उक्त झील की भौगोलिक स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है। चीन इस पूरी झील पर अपना कब्जा बनाये रखना चाहता है, सेटेलाईट चित्रों से साफ मालूम होता है कि चीन बड़ी तादाद में सैन्यवाहनों सहित उपस्थित है तथा बंकरों का निर्माण करा रहा है। 134 किलोमीटर लम्बी यह झील 604 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुयी है। इसके दो तिहाई क्षेत्र याने लगभग 89 किलोमीटर क्षेत्र पर चीन का नियंत्रण है। वहीं इस झील के 45 किलोमीटर पश्चिमी भाग पर याने एक तिहाई भाग पर भारत का नियंत्रण है। इस पर कब्जे के लिये चीन चालबाजियों का जाल बिछाता रहता है। उसके इस महत्वाकांक्षी मंसूबे को रोकना भारत के लिये अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि चीन इस पर कब्जा पा लेने के बाद चिप चैप मैदस के साथ ही पूर्व में अक्साई चीन और उत्तर में शयोग घाटी तक भारत की पहुंच खत्म हो जायगी जिसका दुष्परिणाम यह होगा कि भारत का नियंत्रण पश्चिम में श्योक नदी और दक्षिण में सिंधु नदी तक ही सीमित रह जायेगा। चीन के नापाक इरादों को सफल न होने के लिये पूरी ताकत से रोकना होगा। अन्यथा भारत श्योक और सिन्धु नदियों की प्राकृतिक सीमाओं को स्वीकार करने मजबूर हो जायेगा।

आज की स्थिति यह है कि अरूणाचल प्रदेश तक विस्तृत एल.ए.सी. के पास खड़े भारतीय और चीनी सैनिकों के पास राईफलें हाथ में तो है, लेकिन सन् 1967 से एक भी गोली चलने-चलाने का अवसर नहीं आया।

प्रारम्भिक दौर से ही चीन का रवैया आश्चर्यजनक एवं दो मुंहा चालाकी भरा रहा है। पंजवाहर लाल नेहरू के शांति कपूत उड़ाने और पंचशील के सिद्धान्तों की दुहाई देते और अब मोदीजी के साथ झूला झूलते-झुलाते दृश्यों के साथ बातें उसी चालाकी की तह पर ठहर जाती है। एक ओर तो चीनी सेना उत्तेजनात्मक कार्यवाही पर तत्पर दिखती है, वहीं चीनी राजदूत द्वारा पारस्परिक सम्बंधों के नहीं बिगड़ने देने की बात कही जा रही है। चीनी राजदूत का मानना है कि सीमा पर बढ़ते तनाव का असर पारस्परिक सम्बन्धों पर नहीं पड़ना चाहिये। इसे कहते हैं ‘‘दो मुंहा रवैया।’’

चीन की पड़ोसियों को धमकाने की पुरानी आदत है। अब उससे कोई डरता भी नहीं है। इसके उलट उसके अध्किांश पड़ोसी देश उसे न केवल क्षेत्रीय वरन् वरन् विश्व की शांति के लिये खतरा मानते हैं। दक्षिण चीन सागर से जुड़े देशों को ही धमका रहा हो, ऐसा नहीं है। वह ताईवान पर भी आंखों तरेर रहा है। उसने हांगकांग पर भी अपना तानाशाही रवैया दिखाया है। इस सबका परिणाम यह हुआ कि वह विश्व भर में बुरी निगाहों से देखा जाने लगा है। वह अपने अड़ियल स्वभाव के कारण निरन्तर अविश्वसनीय बनता चला जा रहा है।

जब से चीन की बुद्धि दृष्टि तिब्बत पर पड़ी। भारत ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जिसके कारण उसे प्रोत्साहन ही मिला और उसने तिब्बत पर अपना सरलता से अधिकार जमा लिया। उसके खूनी पंजों को हौसला मिला, फिर कश्मीर, सियाचीन, अरूणाचल को लेकर चीन जब तब अपनी उसी धौंस से डराने की कोशिश करता रहा। लेकिन अब वा सन् 1960 के दरम्यान वाला भारत नहीं है, यह नया भारत है, जबाब देना जानता है इतना ही नहीं दो-दो हाथ करने की मानसिकता और ताकत भी रखता है। इस स्थिति को उसने पिछली घटनाओं से भांप लिया है, इसलिये इस नये घटनाक्रम से काफी बौखलाया हुआ है। उसे यह बात समझ में ठीक से आ जाना चाहिये कि यदि उसने किसी भी प्रकार का कोई दुस्साहस किया तो उसकी हेकड़ी को हमेशा के लिये धूल में मिला दिया जा सकता है।

लेख़क :- डॉ. किशन कछवाहा