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हिन्दूधर्म सहिष्णु है, अन्य धर्मों के नैतिक आदर्शों का सम्मान करता है

स्वतंत्रता शब्द प्रयोग तथा उच्चारण में सहज है किन्तु उसकी परिभाषा करना अत्यन्त कठिन है। राजनीतिक, संवैधानिक, वैधानिक, सामाजिक, आर्थिक एवं शारीरिक स्वतंत्रताओं से बढ़कर एक और स्वतंत्रता भी है जिसे हम धार्मिक नाम न देकर आध्यात्मिक स्वतंत्रता के रूप में भी परिभाषित कर सकते हैं।

किसी संगठित समाज में कोई भी व्यक्ति पूर्णतया स्वतंत्र नहीं हो सकता। केवल मन और आत्मा की स्वतंत्रता ही सर्वोच्च स्वतंत्रता है। प्रत्येक राष्ट्र का अस्तित्व अपने नागरिकों की स्वतंत्रता और उनके उत्तरदायित्वपूर्ण जीवन बनाए रखने के लिए है।

राज्य व्यक्तियों के लिये बना है और उन्हीं के लिए उसका अस्तित्व है। राज्य अथवा राष्ट्र को  मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ साथ व्यक्तियों और समुदायों की सुरक्षा का भार भी वहन करना पड़ता है। उनके धर्म की रक्षा करना भी उसी का उत्तरदायित्व है।

हिन्दुत्व किसी एक धर्म विश्वास, एक धर्मग्रंथ या एक पैगम्बर से जुड़ा हुआ नहीं है अपितु यह तो निरन्तर नवीन अनुभवों के आधार पर सत्य की खोज में जुटा हुआ है। इसके पैगम्बरों और ऋषियों का कोई अन्त नहीं, इसके सिद्धान्त ग्रंथो की कोई सीमा नहीं। एक परमब्रह्म की खोज में तैंतीस कोटि देवता उसके सहायक हैं।

आत्मतत्व की पहचान कर जिन्होंने आत्मशक्ति एवं आत्मज्ञान अर्जित कर लिया, वे अवतारी पुरूष कहलाऐ। आदि शंकराचार्य के अद्वैत में, रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों में आत्मतत्व से अतिरिक्त सॅपूर्ण जगत स्वप्नवत् है। ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः’’ अर्थात् ज्ञानी और धर्मनिष्ठ व्यक्ति वह है जो सब प्राणियों को अपनी आत्मा के अनुरूप देखता है।

हिन्दुत्व का धार्मिक मूल्य इस तथ्य में निहित है कि यह आध्यात्मिक स्वतंत्रता के अन्वेषकों को हर प्रकार का आश्रय देता है और साथ ही धार्मिक अन्वंषेणों की सारभूत एकता का अनुभव भी करता है। उदाहरण स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु, शिव उस सर्वोच्च ब्रह्म के अंतर्गत ही जाते हैं जिसका प्रतीक ओम (ऊँ) है।

आत्मा की स्वतंत्रता को भौतिक एवं सामाजिक बंधनों, रूढ़ियों एवं परंपराओं से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। यह आत्मा की ही स्वतंत्रता है जिसने संस्थाओं को ढाला है, उन्हें नया रूप दिया है। हमारे जीवन तथा संस्कृति-सभ्यता को नये स्वरूप प्रदान किए हैं।

मानव जाति का इतिहास मनुष्य की अजेय आत्मा की अभिव्यक्ति है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है कि आत्मा को प्राप्त करने से बढ़कर और कुछ नहीं। जब हम स्वयं से जुड़ते हैं, स्वतः ही ईश्वर से भी जुड़ जाते हैं। ईश्वर से जुड़ाव हमारी समझ, जीवनमूल्य और आदर्श को रूपांतरित कर देता है।

आध्यात्मिक साधना से अपने जीवन का एक उच्च दृष्टिकोण प्राप्त होता है। अपनी अंतरात्मा के प्रति जिज्ञासा रखने वाले लोग ही वास्तव में धार्मिक हैं। मेरे ईश्वर, तुम्हारे ईश्वर को हमने भिन्न-भिन्न संस्कृतियों तथा विभिन्न रूपों में बांट दिया है जबकि वह किसी एक का नहीं, सबका है। सबके भीतर है आत्मस्वरूप है।

मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि यह आत्मतत्व वृहद्, दिव्य और अचिन्तनीय रूप वाला और अत्यन्त सूक्ष्म भी है। सत्य, तप, ब्रह्मचर्य, निर्मल मन तथा सम्यक ज्ञान से उसे देखा जा सकता है। छान्दोग्य उपनिषद् अणुरूप आत्मतत्व को ही जगत का सत्य मानता है।

हिन्दूधर्म और हिन्दुत्व विचारधारा का यही चरमोत्कर्ष है जो जीवन की धारा के साथ एकात्मकता स्थापित करता है। हिन्दुत्व विचारधारा एवं उसका श्रेष्ठ चिंतन विश्व के विभिन्न धर्मों के मानवीय जीवन मूल्यों में एकात्मकता स्थापित कर मानव मात्र को प्रेम का पाठ पढ़ा सकता है।

यदि हमें नये सौंदर्य और नये अर्थ वाले जीवन का विकास करना है तो वह केवल आध्यात्मिक शक्ति की नई धारा फूट पड़ने के परिणामस्वरूप पर ही सम्भव है। इस दिशा में भारत की हिन्दुत्व जीवन पद्धति ही विविध धर्मानुयायियों का पथ प्रदर्शन कर सकती है। इसलिए विश्व को और भारतीय जनमानस को भारत की धर्मसापेक्षता को समझना पड़ेगा।

आभार महाकौशल सन्देश