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अग्निपथ के एक यात्री की अंतर्कथा..!

“जितने कष्ट कंटकों में है जिसका जीवन सुमन खिला, गौरवगंध उन्हें उतना ही यत्र-तत्र सर्वत्र मिला..!”,

अपने इस विंध्य ने भले ही कितना सामंती जुल्म और गरीबी क्यों न झेली हो पर उससे लोहा लेकर उबरने और दीनहीनों को रास्ता दिखाने वाले एक से बढ़कर एक जुझारू शख्सियतों का अकाल कभी नहीं रहा।

यहाँ की प्रतिभाओं ने समय-समय पर देश का ध्यान खींचा और हर क्षेत्र में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई। विंध्य के समकालीन महापुरुषों की ऐसी ही श्रृंखला की आखिरी कड़ी थे कौशल प्रसाद मिश्र। श्री मिश्र के गोलोकवासी हुए तीन साल पूरे हो गए हैं।

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अतीत को कूड़ेदान में डालने की आदत और खुद में ही मुदित रहने का व्यामोह यद्यपि हमारे चरित्र का स्थायी भाव बन चुका है, लेकिन फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए, कि जिस बुलंद इमारत की छाँव में हम रह रहे हैं उसकी बुनियाद किन लोगों ने रखी। ये बात आज विंध्य में भारतीय जनता पार्टी के संदर्भ में भी फिट बैठती है।

कौशल प्रसाद मिश्र विंध्य में भाजपा की बुनियाद के पत्थर थे। अस्सी के दशक में वे भाजपा के सबसे सुदर्शनीय, मेधावी और प्रभावशाली चेहरा थे। बहुतों को याद होगा कि 80 में जब भाजपा का गठन हुआ उसके बाद तक यहां हाल यह था कि सामने की कौन कहे मंचपर बैठने वालों को भी ढूँढ के लाना पड़ता था।

कुशाभाऊ ठाकरे, डा. मुरली मनोहर जोशी के मशवरे पर मिश्रजी चरण सिंह और राजनारायण को छोड़कर भाजपा में आए। विंध्य में भाजपा का कायांतरण उनके आने के साथ शुरू हुआ क्योंकि उनके ही बाद समाजवादियों के भाजपा से जुड़ने रास्ता खुला। रीवा-सीधी-सतना-शहडोल के न जाने कितने युवातुर्क भाजपा से जुड़े इन सबके पीछे मिश्रजी की प्रेरणा थी।

मिश्रजी खाँटी समाजवादी थे और भाजपा में भी रहते हुए उसी विचार को जिया। मानसपटल में डा.लोहिया स्थाई रूप से अंकित रहे आए। उनके बैठक कक्ष से लोहिया की तस्वीर भाजपा का बड़ा से बड़ा नेता स्थानापन्न नहीं कर पाया। अलबत्ता उसी कक्ष में अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, डा.मुरलीमनोहर जोशी,शेरेकर्नाटक जगन्नाथराव जोशी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया समेत प्रदेश के प्रायः सभी बड़े दिग्गज पधारे।

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कौशल प्रसाद मिश्र समाजवाद से नहीं अपितु समाजवादियों के तिकड़म से आहत हुए थे। सत्तर के दशक की शुरुआत में चंदौली सम्मेलन के बाद जब समाजवादियों में काँग्रेस में शामिल होने की भगदड़ सी मची थी तब मिश्रजी मुट्ठी भर युवा साथियों के साथ समाजवाद के मोर्चे में डटे रहे। इसके बाद ही जब जयप्रकाश का आंदोलन शुरू हुआ तो वे पूरी ताकत के साथ इसमें खुद को झोक दिया।

समूचे मध्यप्रदेश में जेपी आंदोलन की सबसे ज्यादा तपिश विंध्य में ही थी। यहाँ के युवाओं-छात्रों ने जेपी के आंदोलन को यहाँ उसी तरह फैलाया जैसे बिहार में चल रहा था। श्री मिश्र जेपी,नानाजी देशमुख के करीब तो आए ही चौधरी चरण सिंह और राजनारायण के अतिप्रिय हो गए। लिहाजा देश में जब आपातकाल लगा तो कौशलप्रसाद मिश्र सत्ता की नजर में समूचे मध्यप्रदेश में मोस्टवांटेड राजनीतिक अपराधी थे।

आपातकाल में रीवा जेल का किस्सा देश भर में मशहूर हुआ जब मीसाबंदियों ने बैरक में ही तत्कालीन कलेक्टर धर्मेंद्रनाथ की पिटाई कर दी। मिश्रजी हर विपरीत परिस्थिति में स्वाभिमान के साथ जीने वाले लोगों में से थे। जेल में मीसाबंदियों पर हो रहे अत्याचार को लेकर उन्होंने आवाज बुलंद की। जब सरकार ने अनसुनी कर दी तो वे अन्न जल त्यागकर अनशन पर बैठ गए। रीवा कलेक्टर को मजबूरन वहाँ जाना पड़ा।

कलेक्टर तो कलेक्टर, ऊपर से इमरजेंसी का नशा। उसने मिश्रजी को लेकर कुछ असहज बातें कह दी। उन दिनों कौशलप्रसाद समाजवादी युवाओं के भगवान तो नहीं पर भगवान से कम भी नहीं थे। अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ लिहाजा कलेक्टर धर्मेंद्रनाथ की जमकर ठुकाई हो गई। यह तो उस उस एसपी की दरियादिली थी

जिसने कलेक्टर के आदेश के बाद भी गोली नहीं चलवाई नहीं तो श्री मिश्र के साथ ही चंद्रमणि त्रिपाठी (स्व.पूर्व सांसद) शंकरलाल तिवारी (वर्तमान विधायक), डा.रमानिवास शुक्ल, राघव ताम्रकार और न जाने कितनों की वहीं कहानी खत्म हो जाती। इस घटना के बाद जेल में मिश्रजी के जो शेष 19 महीने बीते वो वैसे ही थे जैसे आज किसी दुर्दांत आतंकवादी के।

उन दिनों सिर्फ दो लोगों के जेल की चर्चा होती थी, एक राष्ट्रीय स्तर पर जार्ज फर्नाडीज की दूसरे प्रदेश स्तर पर कौशलप्रसाद मिश्र की जिन्हें आड़ा-बेंड़ी के साथ मौत की सजा पाए कैदियों की तरह तनहाई में रखा गया था। जेल के फाटक टूटेंगे हमारे साथी छूटेंगे, समाजवादियों का यह नारा तो फलितार्थ नहीं हुआ

लेकिन इमरजेंसी हटने के साथ ही जब श्रीमिश्र अपने साथियों सहित छूटे तो रीवा में जो ऐतिहासिक स्वागत हुआ उसके गवाह आज भी कई लोग होंगे। उन दिनों मैं स्कूल का विद्यार्थी था और आज भी वह दृश्य अंकित है। स्वाभाविक रूप से कौशलप्रसाद मिश्र प्रदेश के स्टालवार्ट नेताओं में शुमार हो चुके थे। लोकसभा चुनाव आया तो यह तय था

कि जनतापार्टी की टिकट पर यही लड़ेंगे। लेकिन पर्चा भरने के बारह घंटे पहले ही ऐसा घटनाक्रम हुआ कि टिकट यमुनाप्रसाद शास्त्री के नाम तय हुई। मिश्रजी और उनके अनुयायियों के लिए यह संघातिक झटका था पर अपने स्वभाव के अनुकूल उन्होंने यह स्वीकार कर लिया। फिर जीवन का पहला चुनाव मनगँवा विधानसभा से लड़े।

कभी-कभी यश, प्रतिष्ठा और प्रभाव भी स्वयं का दुश्मन बन जाता है मिश्रजी के साथ राजनीति में ताउम्र यही हुआ। वे मनगँवा में अभिमन्यु की तरह घेर लिए गए परिणाम वही..जो द्रोणाचार्य के चक्रव्यूह का हुआ। देश-प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार और विंध्य में आंदोलन की मशाल थामने वाला सरकार के बाहर।

जनता पार्टी के समय मिश्रजी कुछ न रहते हुए भी बहुत कुछ थे। चरण सिंह, राजनारायण, जनेश्वर मिश्र, पुरुषोत्तम कौशिक जैसे केंद्रीय नेता उन्हें अपनी बराबरी का सम्मान देते रहे। अस्सी में जनतापार्टी टूट गई इसके बाद समाजवादी कुनबा अमीबा की भाँति बिखर गया। मिश्रजी 77 के बाद से 98 तक एक चुनाव को छोड़कर हर चुनाव लड़े पर सफलता हाथ नहीं लगी।

बड़ी वजह यह थी कि वे अपनी हर सभाओं में जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ बोलते थे तीन, तिकड़म, दारू, कंबल, धनबल, बाहुबल की चुनावी राजनीति में वे वाकय उसी तरह अस्वीकार्य थे जैसे कि 1963 के जौनपुर संसदीय उप चुनाव में पंडित दीनदयाल उपाध्याय। दीनदयालजी की तरह कौशल प्रसाद मिश्र भी खुले मुँह कहा करते थे

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कि यदि जाति-पाँति, धर्म-संप्रदाय के आधार पर आपको नेता चुनना है तो मैं खुद को ही अपात्र घोषित करता हूँ। जातीय विष से भींजी राजनीति के लिए वे वाकय अपात्र थे। समाजवादी पुरोधा जगदीश जोशीजी अक्सर कहा करते थे कि एक श्रेष्ठ वकील अच्छा नेता तो हो सकता है पर अच्छा उम्मीदवार नहीं।

मिश्र जी के लिए वकालत अभिजात्य काम नहीं वरन् परिवार पालने का जरिया था। गरीबी विरासत में मिली थी। खुद खड़े होना और परिवार को पालना भी था। इमरजेंसी में जेल के दौरान उनके परिवार ने कितने कष्ट झेले यह बयान करते हुए वह अक्सर भावुक हो उठते थे। वकालत इसीलिए उनकी आराध्य थी कि ताकि बाल-बच्चों को सम्मानजनक जिंदगी मिले।

वे दीवानी के श्रेष्ठ वकीलों में से एक थे। कभी-कभी गरीबी की बेंड़िया भी आदमी को तरक्की की ओर भागने नहीं देतीं। मिश्रजी ने वकालत की पढ़ाई तो जबलपुर में की पर प्रैक्टिस हाईकोर्ट से शुरू करने की बजाय वे तब के कालापानी सिंगरौली चले गए। आगे बढ़े तो रीवा आ गए। जबलपुर तो 90-91 में गए जब सरकार ने उन्हें अतिरिक्त महाधिवक्ता बनाया।

शीघ्र ही वहाँ उनकी प्रतिभा की धाक जम गई। एजी आफिस छोड़ने के बाद जल्दी ही वे वहाँ के लीडिंग प्रैक्टिसनर बन गए। राजनीति से एकांत यहीं से शुरू हुआ। राजपथ का जब विस्तार होता है तो उसकी जद में आने वाले पुराने छायादार-फलदार वृक्ष सुखा या काट दिए जाते हैं। उनकी भरपाई के लिए कनेर,बबूल जैसे पौधे रोपे जाते हैं।

यही कुछ आज की राजनीति में भी है। क्या रीवा कहें, क्या भोपाल, दिल्ली, हर जगह यही नियम लागू होता है। वक्त के इस चलन का क्या कहिएगा। वे पिछले चार वर्षों से स्मृतिध्वंश मर्ज के शिकार थे। जिंदगी भर देश, समाज और दूसरों की चिंता में रहने वाले आदमी को खुद की भी चिंता नहीं रही। दुनिया उनके लिए तभी से शून्य हो चुकी थी।

ऐसे लोग मरते नहीं, स्मृतियों में अमर रहते हैं। ये समकालीन इतिहास के संदर्भ बन जाते हैं। मुझे उनका असीम स्नेह मिला। मुझे वैचारिक रूप से गढ़ने में उनका भी योगदान रहा। नई पीढ़ी के लेखक पत्रकारों से मैं कहता हूँ कि यदि दस ग्राम लिखना है तो दस किलो पढ़ो। दरअसल यह मूल मंत्र श्री मिश्रजी का ही दिया हुआ है।

वकालत और राजनीति की व्यस्तताओं के बीच देश दुनिया और साहित्य के बारे में नियमित पढ़ने वाले वे विरले ही थे। ओंकार शरद, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, अनुपम मिश्र जैसे साहित्यिक व वैचारिक महारथी न सिर्फ इन्हें जानते थे,मानते भी थे।

23 जुलाई : बाल गंगाधर तिलक की जयंती

पहली मुलाकात मे ही उन्होंने मुझे लोकमान्य तिलक की .. गीता रहस्य..दी थी अपने हस्ताक्षर के साथ। मेरे जीवन भर वह एक अनमोल धरोहर रहेगी। कौशल प्रसाद मिश्र ने गीता रहस्य के उस कर्मयोगशास्त्र को न सिर्फ पढ़ा उसे जिया भी। स्मृतियों को नमन।

वरिष्ठ लेख़क:- जयराम शुक्ल
संपर्क सूत्र :- 8225812813