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अतीत की धरोहर के साथ, संस्कृत आज की अनिवार्यता भी है

राष्ट्रीय शिक्षा क्रम पर जब भी विचार किया गया, संस्कृत की स्थिति हर बार प्रायः गेंद सी रही. सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों ही इसे केवल एक-दूसरे की ओर फेंकते भर रहे. एक ऐसी भाषा, जिसके जिसके साहित्य-सौन्दर्य व्याकरणगतपूर्णता और वैज्ञानिकता, दार्शनिक चिन्तन, नैतिक आदर्श और परिष्कृत जीवन-मूल्यों की सराहना समस्त विश्व में विश्व उन्मुक्त रूप से हुई, वह अपने ही देश में राजनीति के महारथियों के द्वारा समय-समय पर इसलिए ठुकरायी जाती रही, क्योंकि उसके समर्थक उदार और सहिष्णु बने रहे.

हमारी भाषा-नीति में संस्कृत को कहीं पर स्थान दिया जाये, इस सन्दर्भ में राजनेता और शिक्षा-आयोगों अधिष्ठाता कभी के भी समुचित निर्णय नहीं ले सके. वे संस्कृत को गले की हड्डी रहे, जिसे वे समझते वे न तो पूरी तरह स्वीकार करने का साहस जुटा पाये और न उसके औचित्य को नकार ही पाये. समय-समय पर गठित विभिन्न शिक्षा आयोगों के प्रतिवेदनों पर दृष्टिनिक्षेप करने से यह तथ्य स्वयं स्पष्ट हो जायेगा.

सम्भवतः सर्वप्रथम मुदालियर-आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के अन्तर्गत संस्कृत की उपादेयता समझकर उसे अनिवार्य करने का प्रस्ताव रखा था. तदनन्तर उत्तरप्रदेश में द्वितीय आ. नरेन्द्रदेव समिति (1953) ने हिन्दी के साथ संस्कृत के अनिवार्य रूप से अध्यापन पर जोर दिया था.

 

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उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राजनेताओं में डॉ. सम्पूर्णानन्द और चन्द्रभानु गुप्त-सदृश संस्कृतनिष्ठों का वर्चस्व होने के कारण मा यमिक स्तर पर इस प्रस्ताव का तत्परता से क्रियान्वयन हुआ देश के हृदय प्रदेश में संस्कृत की यह स्थिति बनारसीदास मंत्रिमण्डल के गठन तक बनी रही. तब तक कला के साथ ही विज्ञान और वाणिज्य विषयों के छात्र भी न्यूनतम हाईस्कूल तक संस्कृत पढ़ लेते थे.

बनारसीदास ने मुख्यमंत्री होने मुस्लिम मतों के प्रलोभनवश संस्कृत के समकक्ष उर्दू को रख दिया गया, जिसकी प्रदेश भर में तीव्र प्रतिक्रिया हुई. संस्कृत की पुनः प्रतिष्ठा के लिए हुए आन्दोलनों में अनेक लब्धप्रतिष्ठ बुद्धिजीवियों ने भाग लिया.

कुछ दिन बाद आपसी कलह से बनारसीदास मंत्रिमण्डल का पतन होने पर और राष्ट्रपति शासन लागू होने पर राज्यपाल के तत्कालीन परामर्शदाता डॉ. जनार्दन दत्त शुक्ल के प्रयत्न से संस्कृत को पुन: अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त हुई. इसके अनन्तर हाईस्कूल स्तर पर अनेक विषयों का नया पाठ्यक्रम गू हुआ, जिसमें अंग्रेजी और संस्कृत में से छात्र केवल एक भाषा ले सकता था. कहने की आवश्यकता नहीं कि अच्छी नौकरी पाने के लिए अभिजात परिवारों के छात्रों और अभिभावकों, दोनों को ही अंग्रेजी आवश्यक लगी.

संस्कृत पढ़ने की स्थिति में केवल वे ही. छात्र थे, जो ग्रामीण परिवेश से आये थे. ऊँची नौकरियाँ पाने का सपना जिन्होंने नहीं देखा था और जो मानसिक स्तर पर इस हीनभाव से ग्रस्त थे या कर दिये गये थे कि अंग्रेजी पढ़ पाना उनके बलबूते की बात नहीं.

यद्यपि नयी भाषानीति में संस्कृत का विकल्प है; लेकिन सत्य यही है कि इस समय पुनः संस्कृत मुख्य शिक्षा क्रम से निःसारितप्राय है. हाईस्कूल और इण्टर की कक्षाओं इच्छुक छात्र भी संस्कृत नहीं ले में पा रहे हैं. उत्तरप्रदेश के शिक्षा मंत्री के संज्ञान में भी यह तथ्य बार-बार लाया जा चुका है. लेकिन उनके विशेषज्ञ कोई रास्ता नहीं निकाल पा रहे हैं.

यह संस्कृत ही नहीं, आयुर्वेद के प्रति भी प्रबल अन्याय था. सम्पूर्ण भारत में शायद अकेला यहीं प्रदेश है, जहाँ बिना के आयुर्वेद का अध संस्कृत-ज्ञान के ययन-अध्यापन रहा है. आयुर्वेदिक कालेजों के राष्ट्रीयकरण का यह सर्वाधिक विषाक्त फल हैं, जिससे अन्ततः आयुर्वेद ही इन पाठ्यक्रमों में समाप्त हो जायेगा. ये संस्कृत ज्ञानरहित छात्र चरक, और वाग्भट के ग्रंथों को समझने में कितने कृतकार्य होंगे, कहा नहीं जा सकता. मजे की बात यह है कि तिब्बी (यूनानी) चिकित्सा- पद्धति के कॉलेजों के पाठ्यक्रम से उर्दू का प्रश्नपत्र निकालने का साहस इन्हीं राजनीतिज्ञों को नहीं हुआ.

1986 की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति में राजीव गांधी ने जिस पर बड़ी वाहवाही बटोरने की कोशिश की थी 1968 की नीति को ही प्रासंगिक बतलाया गया. 1868 की शिक्षानीति डॉ. दौलतसिंह कोठारी की देन थी. डॉ. कोठारी और चाहे जो कुछ रहे हो. वे भारतीय भाषाओं के गौरव और सांस्कृतिक वैभवक से प्राय अपरिचित ही थे. उन्होंने राष्ट्रीय जीवन में संस्कृत के महत्व को स्वीकार करते हुए भी उसे त्रिभाषा-सूत्र में रखे जाने पर असहमति व्यक्त की थी.

संस्कृत के विषय में कोठारी आयोग ने 1953 की नरेन्द्रदेव समिति के इस निर्णय की ही नकल कर छुट्टी पा ली कि संस्कृत को साथ पढ़ाया जाये, किन्तु कोठारी मातृभाषा के ठारी आयोग स्वयं अपने प्रस्ताव की अनुपयुक्तता और अलाकप्रियता (यह शब्द स्वयं आयोग के प्रतिवेदन में है) से अवगत था, इसलिए उसने आठवीं कक्षा से ऊपर संस्कृत को एक वैकल्पिक विषय के में रूप पढ़ाये जाने के संतुति भी कर दी इसी संतुति के तहत उत्तरप्रदेश में पूर्व माध्यमिक स्तर पर नये पाठ्यक्रम के आने तक संस्कृत चलती रही, किन्तु राजीव गांधी की शिक्षा नीति के अन्तर्गत स्थापित नवोदय विद्यालयों में संस्कृत विषय ही नहीं रखा गया.

नवोदय विद्यालयों के मेधावी और प्रतिभाशील छात्रों को संस्कृत के अध्ययन से पूरी तरह बंचित कर दिया गया. इन छात्रों के लिए संस्कृत विदेशी भाषा की तरह रहीं. नवोदय विद्यालयों से संस्कृत हटाने का यह षड़यंत्र मलयालम नाम पर किया गया, जिसकी अस्सी प्रतिशत शब्द सम्पदा संस्कृत की है और जिसके समुचित ज्ञान के लिए संस्कृत पढ़ना अनिवार्य है. हम किसी भी भारतीय भाषा के उत्तर भारत में अध्यापन के विरुद्ध नहीं रहें- निःसंदेह तमिल, कन्नड और मलयालम में हमारी अभिज्ञता बढनही ही चाहिए, किन्तु वह संस्कृत के मूल्य पर नहीं होनी चाहिए.

उसके लिए विश्वविद्यालय -स्तर पाठ्यक्रम बनाया जा सकता है. उत्तरप्रदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में पहले से ही सामान्य भाषा के रूप में दक्षिण भारतीय भाषाएँ अध्यापित हो भी रही हैं. संस्कृत तो सभी भारतीय भाषाओं के लिए मात्-स्तन्य के सदृश है.

विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में राममूर्ति आयोग ने भी संस्कृत के साथ न्याय नहीं किया. उत्तरप्रदेश में भाजपा- सरकार का गठन होने के अनन्तर माध्यमिक शिक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह संस्कृत को उसका पूर्व स्थान देने के लिए उद्यत दिखे, उनके प्रयत्न से काशी में एतदर्थ एक राष्ट्रीय संस्कृत सम्मेलन भी आयोजित हुआ, लेकिन शिक्षा विभाग की खुर्सट नौकरशाही ने संस्कृत को स्वतंत्र स्थान देने के बजाय, जिसके लिए सम्मेलन में प्रस्ताव भी पारित हुआ था, उसे गम्भीरता से से नहीं लिया.

लगता है, केन्द्र के साथ ही प्रदेश सरकार भी संस्कृत को मुख्य शिक्षा क्रम से हटाकर उन पाठशालाओं में केन्द्रित कर देना चाहती है, जहाँ कोई पढ़ने नहीं जाता निःसंदेह संस्कृत के गम्भीर के लिए पाठशालाओ न विद्यापीठों और स विश्वविद्यालयों की आवश्यकता रहेगी ही किन्तु संस्कृत वाङ्मय उच्च आदशों और मूल्यों की प्रतिष्ठा समाज में तनी हो सकती है, जब उसे राष्ट्रीय शिक्षाक्रम की सामान्य और मुख्यधारा से जोड़ा जाये.

संस्कृत मात्र एक भाषा और साहित्य ही नहीं है, आचार व्यवहार तथा विचार की सुपरीक्षित और परिष्कृत प्रणाली भी है. समाज में इसकी आवश्यकता आज पहले से अधिक है। देश के वैज्ञानिक, डॉक्टर, अभियंता, प्रशासक तथा विभिन्न अधिकारी संस्कृत से तभी लाभान्वित हो सकेंगे, जब इसे मुख्यशिक्षा क्रम में स्थान प्राप्त होगा. अभिप्राय यह कि संस्कृत को कर मेडिकल और केवल नपाठशालाओं प्रशासनिक तक सीमित इंजीनियरिंग कॉलेजों, अकादमियों, पुलिस तथा सेना प्रशिक्षण महाविद्यालयों से जोड़ने की आवश्यकता ताकि गीता का कर्मयोग सभी की कार्य क्षमता बढ़ाने में उपादेय सिद्ध हो.

विभिन्न सामाजिक और अन्यान्य विकृतियों से ग्रस्त हमारे मुमूर्ष समाज में संस्कृत संजीवनी की तरह सिद्ध होगी. संस्कृत के श्रेष्ठ तत्व-ज्ञान से हमारे वैज्ञानिक और चिकित्साविज्ञान के छात्र हताशा और कुण्ठा के क्षणों में भी आत्म-बल संजो सकेंगे, जिन्हें आज उस स्थिति में आत्महत्या ही सरल लगती है. राष्ट्र की युवा पीढ़ी को रचनात्मक दिशा में सक्रिय करने के लिए संस्कृत के रूप में हमारे पास एक अमोघशस्त्र या औषधि उपलब्ध है, किन्तु दुर्भाग्यवश हम उसका सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं.

इस देश के अल्पज्ञ शिक्षाविदों ने संस्कृत को भी अन्य शास्त्रीय (Classical) भाषाओं की श्रेणी में रखकर भारी भूल की है. इस श्रेणीकरण के कारण ही संस्कृत को हम मूल्यवान पुरातन निधि तो समझते हैं किन्तु वर्तमान जीवन का स्पन्दन समझने से कतराते हैं.

शास्त्रीय भाषाओं की श्रेणी में जो भाषाएँ रखी गयीं, वे हैं- संस्कृत अरबी, फारसी, पालि और प्राकृत इनमें से तीन भारतीय मूल की हैं और दो विदेशी. इन सभी के विकास को एक ही स्तर पर रखकर शिक्षाविदों ने न केवल अपनी अदूरदर्शिता का ही परिचया दिया, अपितु विदेशी भाषा और संस्कृत की पक्षधरता के साथ ही तुष्टिकरण की प्रवृत्ति भी प्रदर्शित की. निःसंदेह जहाँ तक प्राचीनता की कसौटी है, संस्कृत एक अति प्राचीन भाषा है, किन्तु अन्य शास्त्रीय भाषाओं से उनकी स्थिति पूर्णतया भिन्न है. अरबी और फारसी का कोई भारतीय मूल आधार नहीं है।

विश्व भर में खाड़ी के देशों को छोड़कर जहां कहीं प्राची अध्ययन पीठ है उनमें भी अब फारसी और अरबी का अध्ययन नाममात्र के लिए ही होता है. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में इसी कारण संस्कृत को अरबी, फारसी के समकक्ष रखने से अस्वीकार कर उसकी विशिष्ट स्थिति को रेखांकित कर दिया। पालि और प्राकृत भी ऐतिहासिक महत्व की भाषाएँ हैं. पालि में बौद्ध धर्म तथा प्राकृत में जैन मत का महत्वपूर्ण साहित्य उपनिबद्ध है. इसके अतिरिक्त शिलालेखों, संस्कृत नाटकों तथा कतिपय श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों के संदर्भ में भी प्राकृत का महत्व है.

इसके विपरीत संस्कृत आज भी एक जीवन्त भाषा है. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारित संस्कृत समाचारों तथा अन्य कार्यक्रमों के श्रोताओं और दर्शकों की बढ़ती संख्या, संस्कृत में प्रकाशित दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक तथा त्रेमासिक पत्रों की अनवरत वृद्धि और उनके पाठकों का बढ़ता हुआ समूह इसके से उसकी स्थिति पूर्णतया भिन्न है, द्योतक हैं. लोकप्रिय कथामासिक अरबी और फारसी का कोई ‘चन्दामामा का संस्कृत में प्रकाश भारतीय मूलाधार नहीं है।

विश्वभर भी इसी का प्रतीक है. संस्कृत की में खाड़ी के देशों को छोड़कर जहाँ पत्र-पत्रिकाओं में से अनेक का कहीं प्राच्य अध्ययन-पीठ हैं, उनमें दृष्टिबोध सर्वधा आधुनिक है और भी अब अरबी और फारसी का अध् वे उस सामग्री केक प्रकाशन को ययन नाममात्र के लिए ही होता वरीयता देती हैं जो प्रगतिशील है.

स्वस्थ जीवनमूल्यों से अनुप्राणित है तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ओतप्रोत है। संस्कृत के कवि- सम्मेलनों एवं गोष्ठियों में श्रोताओं की रात रातभर उपस्थिति भी संस्कृत भाषा के समाज में जीवमान स्वरूप का प्रबल पोषक प्रमाण है.

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सम्प्रति संस्कृत की प्रासंगिकता के दो बड़े कारण हैं. एक तो संगणक (कम्प्यूटर) की दृष्टि से उसकी सर्वाधिक उपयोगिता और दूसरा उसका अखिल भारतीय व्यक्तित्व. इस सत्य से शायद ही कोई अपरिचित अथवा असहमत हो कि भारत की सभी भाषाओं पर संस्कृत का व्यापक प्रभाव है और पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक सर्वत्र समानरूप से समादर है.

इस प्रकार यह निर्विवाद है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के मध्य केवल संस्कृत ही सेतु का कार्य करती है और वही वस्तुतः समग्र राष्ट्र की मूलभूत एकता का माध्यम है. संस्कृत के विशाल वाडयम की सर्जना में भारत के सभी प्रदेशों और समस्त अंचलों का समान योगदान है. काव्यशास्त्र और शैव-दर्शन के क्षेत्र में यदि कश्मीर का अधिक योगदान है तो नव्य न्याय में बिहार (मिथिला) और बंगाल (नवद्वीप) का वेद’ वेदांगविशेष रूप से व्याकरण और वेदान्त के विवेचन में दक्षिण भारतीय आचार्यों का मन अधिक रमा है तो तंत्र और आगम के विशाल साहित्य की सृष्टि अि कांशतः असम और त्रिपुरा में सम्पन्न हुई.

संस्कृत का ललित साहित्य तो समस्त देश की एकात्मका का ही ख्यापक है. बंगाल के कविवर धोयी ने अपने पवनदूत में दक्षिण भारत के चोल और पाण्ड्य राज्यों के सुपारी और चन्दन के वनों का जो चित्रण किया है, वह एकात्मता का प्रतिम निदर्शन है। कौन-सा प्रदेश है. जिसमें कालिदास को अपने से सम्बद्ध करने की ललक नहीं है? ‘मेघदूत’ के बिना प्राचीन, मध्य और उत्तर भारत का भूगोल समझा ही कहा जा सकता है. इस प्रकार संस्कृत भाषा और साहित्य के विशाल प्रासाद के निर्माण में सम्पूर्ण भारत की प्रतिभा और शिल्पोमुषी

का सत्यापन सहभागी है. इसी कारण संस्कृत समस्त राष्ट्र की एकाग्रता, अस्मिता, आत्मीयता, और गौरव की सम्मिलित पहचान है. हिंदी की राष्ट्रभाषा होने पर भी राष्ट्रीय एकता की भाषा वस्तुतः संस्कृत ही है. हिंदी के विषय के संदर्भ में भी संस्कृत की उपादेयता असंदिग्ध है. स्वयं संविधान-निर्माताओं ने हिंदी के व्याकरण और घोष रचना के प्रसंग में संस्कृत के आश्रय का निर्देश दिया है.

उपयुक्त सभी तथ्यों को समन्वित और सूसहंत के रूप से इस प्रकार रखा जा सकता है –

1. संस्कृत के विशिष्ट वाड़्मय से देश तभी लाभान्वित हो सकता है जब उसे राष्ट्र के मुख्य शिक्षा क्रम में अनिवार्य किया जाए.
2. संस्कृत की शिक्षा कक्षा 3 से प्रारंभ होना चाहिए क्योंकि उस समय स्मरण शक्ति तीव्र रहती है.
3. चिकित्सा विज्ञान और इजी. के पंचवर्षीय पाठ्यक्रमों में संस्कृत का भी समावेश किया जाए ताकि भावी चिकित्सक और अभियंताओं को भारत की संस्कृति निधि से जोड़ा जा सके.