Trending Now

अफगानिस्तान पर तालिबानी हुकूमत क्या गुल खिलायेगी? 

तालिबानी मजहबी कट्टरता वाली विचार धारा द्वारा दूसरी बार जिस ढंग से अफगानिस्तान पर कब्जा जमाया गया है। इससे विश्व को सबक लेने की जरूरत है। यदि खूखार विचार धारा को पनपने का ऐसा ही अवसर उपलब्ध होता रहा और विश्व द्वारा चुप्पी साधकर रखी जाती रही, तो समूची मानवता के सपने एक दिन चूर-चूर होते नजर आयेंगे। क्या ऐसी सोच या विचार धारा का खात्मा किया जाना जरूरी नहीं है? अभी तो सिर्फ एक देश को निशाना बनाया गया है।

सन् 1996 से सन् 2001 के बीच तालिबानी हुकूमत द्वारा किये गये तानाशाही, क्रूर, महिलाओं पर हर प्रकार की पाबन्दी और अत्याचारों का, दहशत भरे माहौल का जायजा लिया जा चुका है। तालिबान का अतीत इस्लामी कट्टरता और जुल्मों का रहा है।

भारत के उत्तरप्रदेश के सॅमल से सपा के सांसद शमीबुर्रहमान ने तो तालिबानी कारनामों को अफगान पर कब्जे को आजादी की लड़ाई बतलाने में भी देर नहीं की। मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना सज्जाद नेमानी ने तालिबान की जीत पर खुशी मनायी। भारत में भी देश विरोधी बयान देने वालों की कभी नहीं है। जबकि अफगानिस्तान तालिबानियों के जाहिलान कृत्यों का सबसे बड़ा उदाहरण है। महबूबा मुफ्ती ने कश्मीर की तुलना अफगानिस्तान से कर दी जबकि महबूबा को पाँच लाख विस्थापित हिन्दू कश्मीर पंडितों को दर्द का अनुभव नहीं हो सका। मुनव्वर राणा, अपने दुराग्रही साम्प्रदायिक -मजहबी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर तालिबान का समर्थन करने में जरा भी शर्म महसूस नहीं करता और भारत सरकार के खिलाफ विष- उगलता है। ऐसे बयान आतंकियों को उकसाने के लिये पर्याप्त हैं।

तालिबान

तालिबान को सुरक्षा देने वाले सऊदी अरब, चीन, पाकिस्तान जैसे देश हैं। अफगान नागरिक चाहते हैं कि उनकी सुरक्षा हो। यहाँ अधिकांश आबादी पठान है। इसके अलावा उज्वेक, हजारा और अन्य जातीय समूह हैं।

समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है। आई.एस. उत्तरी अफगानिस्तान में अपने पैर जमाने की कोशिशों में लगा है। चीन स्वयं आशंकित है, क्योंकि अफगानिस्तान की कबायली संस्कृति मध्यऐशिया के अपने मूलवंशजों को तो पसंद करती ही है, साथ ही, परचून उज्वेक, ताजिक और हजारा जैसे कबीलों का सांस्कृतिक जुड़ाव पामीर के पठार से चीन के शिजियांग तक फैला हुआ है। यह गम्भीर समस्या जो उईगर मुसलमानों के नाम पर उद्वेलित होती रहती है, चीन के लिये मुश्किलें भी खड़ी कर सकती हैं। चीन का नरम रवैया तालिबान के प्रति इसी आशंका का परिणाम होना सम्भव है इस बावत् उसकी अपनी सुरक्षा चिन्तायें भी हो सकती हैं। इसी प्रकार की आशंकाओं से रूस भी ग्रस्त है।

बँगलादेश के चरम पंथी संगठन हूजी के पूर्वोत्तर राज्यों के कई संगठनों से गहरे संबंध हैं, ये आई.एस.आई. के इशारों पर काम करते हैं, सन् 1980 के दशक में सोवियत अफगान युद्ध चल रहा था, उसी समय कट्टरपंथी ताकतों ने कुख्यात आतंकी संगठन हरकत- जिहाद-अल-इस्लाम की स्थापना की गयी थी। इस युद्ध में बँगला   देशी मुजाहिदीन भी शामिल हुये थे। यह संगठन सं. राष्ट्रसंघ द्वारा अभी प्रतिबंधित है।

यह आश्चर्य जनक है कि चीन द्वारा उईगर मुसलमानों पर होने वाले भारी अत्याचारों की देश- दुनिया कहीं भी कोई विशेष चर्चा नहीं होती। मुसलमानों के नाम पर राजनीति करने वाले इस मामले में चुप्पी साध लेते हैं। पाकिस्तान आवाज उठाने की बात तो दूर, मुसलमानों के अत्याचार संबंधी दस्तावेज पर चीन के पक्ष में समर्थन करता दिखाई दिया। जबकि वहाँ चीन के जुल्मों से पूरी उईगर मुसलमान जनजाति बुरी तरह आहत है।

तालिबान द्वारा अफगानि स्तान पर कब्जे के 24 घंटे के भीतर पाकिस्तान और चीन द्वारा मान्यता देकर समर्थन देना-भारत के राजनैतिक हितों को भारी नुकसान पहुँचाने वाला है। भारत के लिये चिन्ता का सबसे बड़ा सवाल खड़ा हुआ है, क्योंकि भारत ने अफगानिस्तान से अपने रिश्ते मजबूत करने की नीति के अंतर्गत लगभग 22500 करोड़ रूपयों का निवेश किया हुआ है, और करोड़ों रूपयों की भागीदारी विभिन्न परियोजनाओं में की हुयी है। कुछ परियोजनायें पूरी होकर उनका उद्घाटन भी हो चुका है। बहुत से स्थानों पर अस्पतालों का भी निर्माण कराया गया है।

चीन की नजर अफगानि स्तान के 3,000 अरब डालर से अधिक मूल्य के खनिज भंडार पर बहुत पहले से ही गड़ी हुयी थी। वह वहाँ एक सैनिक अड्डा भी बनाने की टोह में था। गजनी में लिथियम का दुनिया का सबसे बड़ा भंडार स्थित है जो कि खनिज संपदा के रूप में एक बड़ा आकर्षण का केन्द्र सिद्ध हो सकता है।

गत 20 वर्षों में अफगानि स्तान में नशीले पदार्थों के कारोबार में भारी बढ़ोत्तरी हुयी है। यह व्यापार  करोड़ों डालर तक जा पहुँचा है। दूसरी तरफ वहाँ की 70 प्रतिशत आबादी नशे की गिरफ्त में भी आ चुकी है। तालिबानियों ने गत एक दशक में अफगानी नवयुवकों को नशे का आदी बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

यह अफगान के दुर्भाग्य का सबसे बड़ा कारण बनकर परिणाम के रूप में सामने आया है। अमेरिका ने गत 20 वर्षों तक अपनी सेना रखकर, अरबों डालर खर्च करने के बाद वापिस जाने का मन बना लिया, उसे अपनी सेना सुरक्षित वापिस ले जाने के लिये तालिबान से गुप्त समझौता करना पड़ा। रूस आज की स्थिति में तालिबान के पक्ष में खड़ा है।

अमेरिका की सोच एक अर्थ में सही भी सिद्ध हो सकती है जिस देश का राष्ट्रपति स्वयं पलायन कर जाय जिस पर देश का उत्तरदायित्व था, जिन अफगान नागरिकों को अपने देश की सुरक्षा से लगाव न हों, उनके लिये कब तक टिका रहे और क्यों? बीस साल का अरसा कोई कम नहीं होता। जब अफगान की जनता में लड़ने की रूचि-उत्साह न हो, तो अमरीकी सेना को ऐसे युद्ध में क्यों मरने दिया जाय। यह सोच ठीक भी हो सकती है।

तालिबानी रवैया मानवता विरोधी तो है ही। इससे कौन इंकार कर सकता है। नरसंहार तो आखिर इस्लाम के अनुयायियों को ही झेलना पड़ रहा है। कट्टरता का जहर सुन्नी मुसलमानों में भी गहराई के भरा हुआ है। चीन और पाकिस्तान दोनों इसके पक्षधर बने हुये हैं। इनसे ये उम्मीद करना क्या उचित होगा कि ये अपनी भूमि का उपयोग मानवता विरोधी कुकृत्यों के लिये नहीं होने देंगे?

इस्लामी पैरोकारों का मौन-प्रश्न चिन्ह बना हुआ है। यह समस्या तब और चिन्तनीय बन जाती है, जब सत्ता पर काबिज होने के बाद चीन जैसे उईगर मुस्लिम आतंकवाद से ग्रस्त  देश भी तालिबानी  सत्ता के पक्ष में खड़े रहने का मन बना चुके हैं। एक समय आतंक के धुर विरोधी कहे जाने वाले देश रूस ने भी हाथ बढ़ा दिया है।

कोई भी आतंकी हमला कभी सामान्य नहीं होता। मजहबी उन्माद वैश्विक बीमारी है। हर हमले के बाद आतंकवाद और मानवता के बीच लड़ाई साफ और गहरी होती जाती है।  मजहबी उन्माद की बर्बरता भयावह होती है। नरसंहार की आतंकी भूख अब देशों की सीमायें लाँघकर उस स्तर पर पहुँच चुकी हैं जिसकी अनदेखी किया जाना कितना भयंकर परिणाम दे सकता है, इसकी सहज कल्पना भी नहीं की जा सकती। आश्चर्य तो इस बात का है कि इस बीमारी का इलाज करने वालों ने ही इसे पाला-पोसा है।

तालिबान

आज अफगानिस्तान के हालात पर पूरे पाकिस्तान में खुशी जाहिर की जा रही है। उससे उसकी अंदरूनी हालत का पता चलता है कि उसकी अपनी कोई न साख बची है, न ही ताकत जिसके सहारे अपने पड़ोसियों से वह मुकाबला कर सके। एक बात साफ हो गयी है कि उसने तालिबान को प्रश्रय-सहारा देकर वह अपने मंसूबे में सफल हो गया है, ऐसा मानने लगा है।

अफगानिस्तान में सत्ता पलट सामान्य घटनाक्रम नहीं है। इससे सबसे ज्यादा जो देश प्रभावित हुये हैं, उनमें भारत भी है। अफगानि  स्तान के मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत ने जो चिन्तायें अभिव्यक्त की हैं, उनका किसी न किसी प्रकार से संबंध सभी देशों से है। भारत  ने यह स्पष्ट किया है कि अफगानिस्तान में जो परिवर्तन आये हैं, उससे न केवल क्षेत्रीय, वरन् वैश्विक स्तर पर शांति के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। अतः किसी भी तरह से विश्व से आतंकवाद का खात्मा किया जाना आवश्यक हो गया है।

तथ्य और हालात स्वयं बताते हैं कि बीस साल पहले जब तालिबान ने सत्ता सम्हाली थी, तब भी पाक ने समर्थन किया था और आज भी पाक का खुला समर्थन देना इस तथ्य की पुष्टि करता है कि उसने तालिबान के लिये लड़ाके तैयार किये और सैन्य मदद भी की। फिर भी चीन, रूस और बाँग्लादेश जैसे कई देश तालिबान को समर्थन दे रहे हैं। तात्पर्य यही है कि वे विश्व में शांति नहीं चाहते।

लेखक:– डॉ. किशन कछवाहा