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इस्‍लाम, आतंक और भारत

वो घर में घुस कर मार रहे हैं, वे भीड़ में से एक-एक कर चिन्‍हित कर रहे हैं, फिर गोली चला रहे हैं। वे फिर भारत में हों, अफगानिस्‍तान में हों, पाकिस्‍तान या अन्‍य देश में, जहां उन्‍हें थोड़ा भी अवसर मिलता है, वे सिर कलम करने और गोली चलाने में देर नहीं करते। फिर भी उनका मत शांति का धर्म कहलाता है।

कश्‍मीर में पिछले पांच दिनों में सात लोगों की हत्‍या इस्‍लामिक आतंकवादियों ने की है और वे पहले भी इस तरह से हिंदुओं और सिखों को चुन-चुन कर मारते रहे हैं । ऐसा ही दृष्‍य पश्‍चिम बंगाल, पिछली समाजवादी सरकार के दौरान उत्‍तर प्रदेश और कई राज्‍यों में उभरे थे। दिल्‍ली में जिस धर्म आधारित इस्‍लामिक कट्टरता को दुनिया ने देखा, उसे बीते भी अभी बहुत साल नहीं हुए हैं। उसके बाद भी देश की राजसत्‍ताएं हैं कि जागने को तैयार नहीं दिखतीं ।

माखन लाल बिंद्रू की हत्या पांच अक्टूबर को श्रीनगर में उनके मेडिकल स्टोरी में कर दी गई, इस्‍लामिक कट्टरपंथी उनसे इसलिए चिढ़ते थे क्योंकि उन्होंने 1990 के उस दौर में भी अपना घर, अपना शहर और अपना धर्म नहीं छोड़ा, जब लाखों कश्मीरी पंडितों को इस्लामिक जेहाद के नाम पर वहां से विस्थापित कर दिया गया था। कश्मीरी पंडित बिंद्रू की हत्या के बाद स्कूल में घुसकर सिख प्रिंसिपल और हिन्‍दू शिक्षक की हत्या कर दी गई। हथियारबंद आतंकी स्कूल में घुसते हैं, सभी से आईडी कार्ड दिखते हैं और जैसे ही उनमें गैर मुस्‍लिम ये सिख प्राचार्य सुपिंदर कौर एवं हिन्‍दू टीचर दीपक चंद मिलते हैं वे उन्‍हें गोली मार देते है।

श्रीनगर में हिन्दू और सिख शिक्षक की गोली मारकर हत्या, पांच दिन 7 लोगों की मौत - HamaraGhaziabad

यह सभी को सोचना चाहिए कि कश्‍मीर में सुपिंदर कौर क्‍या कर रही थीं, तो वह बच्‍चों को पढ़ा रही थीं। अपनी आधी सैलरी गरीब बच्चों पर खर्च करती थीं, अनाथ मुस्लिम बच्ची को गोद लेकर उसे पढ़ा रहीं थीं। यहां तक कि इस अनाथ मुस्लिम बच्ची को अच्‍छी परवरिश उसके मजहब के हि‍साब से मिले, इन नेक नीयत से उन्‍होंने एक मुस्लिम परिवार को ही उसे सौंप दिया था और इस परिवार को हर महीने वे 15 हजार रुपए देती थीं। फिर भी वे मार दी जाती हैं, क्‍योंकि वह आईडी कार्ड में मुसलमान नहीं पाई जाती हैं। मारे गए इन सभी लोगों का कसूर सिर्फ इतना है कि ये सभी गैर इस्‍लामिक थे।

देखा जाए तो ये पैटर्न अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के जैसा ही है, जहां इस्लामिक कट्टरपंथ के नाम पर उन सभी लोगों की हत्याएं की जा रही हैं, जो कट्टर जेहाद और शरिया को नहीं मानते हैं। भारत में आप कश्‍मीर से लेकर कन्‍याकुमारी तक कहीं भी चले जाइए। बहुसंख्‍यक हिन्‍दू समाज वाले इस देश में कोई भी स्‍थान जहां मुसलमानों की जनसंख्‍या 30 प्रतिशत या इससे कुछ भी अधिक हो गई है, आप दूसरे धर्म-पंथ के साथ शांति प्रीयता के साथ रहना नहीं पा सकेंगे। तमिलनाडु के एक गांव का उदाहरण तो इसमें गजब ही है जिसका फैसला न्‍यायालय तक को करना पड़ गया।

यहां पेरंबलुर जिले का वी कलाथुर मुस्लिम बहुल इलाका है, जहां पर हिन्‍दू मंदिरों से जुलूस निकालने का लम्‍बे समय से विरोध हो रहा था। इन इस्लामी कट्टरपंथियों ने हिन्‍दू त्योहारों को ‘पाप’ करार दे रखा था और अपने क्षेत्र से हिन्‍दू जुलुसों के निकलने पर पूरी तरह से प्रतिबंधित कर रखा था, जब यह मामला न्‍यायालय में गया तब मद्रास हाई कोर्ट ने अपने फैसले के दौरान तल्‍ख टिप्पणी की और कहा कि इलाके में एक धार्मिक समूह का वर्चस्व होने के कारण दूसरे धार्मिक समूहों और जुलूसों को इलाके से नहीं हटाया जा सकता।

यहां प्रश्‍न यह है कि जनसंख्‍या का घनत्‍व बढ़ते ही इस तरह की शुरूआत कौन कर रहा है? क्‍या बहुसंख्‍यक हिन्‍दू समाज देश के मुस्‍लिमों को अपने साथ रखने में असहज है या वे स्‍वयं मुसलमान ही हैं, जो पश्चिम बंगाल, दिल्‍ली, उत्‍तर प्रदेश का कैराना या देश का कोई भी इलाका क्‍यों ना हो, अपनी जनसंख्‍या बढ़ाकर वहां से हिन्‍दुओं को घर छोड़ने के लिए विवश करते हुए दिखाई दे रहे हैं। कभी डराकर, कभी मारकर और कभी उनकी सम्‍पत्‍त‍ि को हड़पकर। हालांकि देश में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जोकि इन हालातों के लिए भी बहुसंख्‍यक हिन्‍दू समाज को ही दोष देते नजर आ जाएंगे। किंतु हकीकत यही है कि जितना इस्‍लाम और इस्‍लाम की धार्मिक आंधी को देखने का अवसर मिलता है, हर बार यही दिखता है कि ये एक ऐसी मानसिकता है, जो गैर को अपने साथ स्‍वीकार्य ही नहीं कर सकती है।

इतिहास बताता है कि हिन्दुओं का उत्पीड़न और हिन्दुओं का शोषण इस्‍लाम के अंधों ने जबरन धर्मपरिवर्तन, सामूहिक नरसंहार, गुलाम बनाने तथा उनके धर्मस्थलों, शिक्षणस्थलों के विनाश के लिए ही किया और आज भी उनकी इस विकृत मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आया है। मुख्यतः भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा मलेशिया आदि देशों में हिन्दुओं को भयंकर उत्पीड़न से गुजरना पड़ा है। इसकी शुरुआत अरब आक्रांताओं के भारत पर आक्रमण 713 ई. में मुहम्मद बिन कासिम के सिंध पर हमला करने और राजा दहिर को मारने से होती हुई दिखती है। जब सिन्ध में मन्दिरों को तोड़ने के साथ ही हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। अनेकों का इस्‍लाम में जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया था।

मुस्लिम इतिहासकार अल क्रूफी द्वारा अरबी के ‘चच नामा’ में हिन्दू जिहाद के बारें में काफी विस्‍तार से लिखा गया है। इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद एलियट और डाउसन ने किया। सिन्ध में जिहाद के बारें में एलियट लिखते हैं कि सिन्ध के कुछ किलों को जीत लेने के बाद बिन कासिम ने ईराक के गर्वनर अपने चाचा हज्जाज को लिखा था- ‘हजारों गैर-मुसलमानों का धर्मान्तरण कर दिया गया है, जो नहीं मानें उन्‍हें मार दिया गया। मूर्ति वाले मन्दिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं। चच नामा अल कुफी : एलियट और डाउसन खण्ड 1 पृष्ठ 164

जब बिन कासिम ने सिन्ध विजय की, उसने बहुत से कैदियों को, विशेषकर हिन्दू महिला कैदियों को मुसलमानों के विलास के लिए अपने देश भेज दिया। राजा दाहिर की दो पुत्रियाँ- परिमल देवी और सूरज देवी जिन्हें खलीफा के हरम को सम्पन्न करने के लिए हज्जाज को भेजा गया था जो युद्ध के लूट के माल के पाँचवे भाग के रूप में इस्लामी शाही खजाने के भाग के रूप में थीं। ‘चच नामा’ का विवरण बताता है कि हज्जाज की बिन कासिम को स्थाई आदेश थे कि हिन्दुओं के प्रति कोई कृपा नहीं की जाए, उनकी गर्दनें काट दी जाएँ और महिलाओं को और बच्चों को कैदी बना लिया जाए’ एलियट और डाउसन खण्ड 1 पृष्ठ 173.

तत्‍कालीन समय का एक इतिहासकार हसन निजामी लिखता है कि जब इस्लाम की सेना पूरी तरह विजयी हुई, तब एक लाख हिन्दूओं का कत्लेआम किया गया। इस्लाम की सेना आगे अजमेर गयी, जब तक सुल्तान अजमेर में रहा उसने मन्दिरों का विध्वंस किया और उनके स्थानों पर मस्जिदें बनवाईं। उस स्थान से आगे इस्लामी सेना बनारस की ओर चली जो भारत की आत्मा है और यहाँ उन्होंने एक हजार मन्दिरों का ध्वंस किया तथा उनकी नीवों के स्थानों पर मस्जिदें बनवा दीं।

इसके बाद महमूद गजनवी 11वीं शताब्दी में भारत के उत्तर पश्चिम पर हमला बोलता है, सम्‍पत्‍त‍ि लूट के साथ हिन्‍दू सनातन धर्मस्थलों को तोड़ने, मूर्तियों को खण्डित करने में इसने जरा भी देरी नहीं की। हजारों हजार वर्ष की कलाकारों की तपस्‍या को इस क्रूर इस्‍लामिक आक्रान्‍ता ने मिट्टी में मिला दिया था। महमूद गजनवी ने न जाने कितने श्रेष्‍ठ मंदिरों की कला-संस्‍कृति का ह्रास किया, बल्‍कि उसने भी अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी थीं। इस बारे में उसके दरबार का इतिहासकार अल-उत्बि लिखता है कि आक्रमण इस्लाम के प्रसार और गैर-इस्लामिक प्रथाओं के विरुध एक जिहाद का हिस्सा थे।

अल-उत्बि विस्‍तार से बताता है कि कैसे उसने सोमनाथ मन्दिर, मथुरा, थानेसर, उज्जैन सहित जहां भी वह जा सका वहां की स्‍थानीय हिन्‍दू, जैन, बौद्धों की संयुक्‍त सनातन संस्‍कृति को नष्‍ट करने और लोगों को जबरन गुलाम बनाने, हत्‍या करने तथा इस्‍लाम कबूल करवाने का काम किया था।

कहना होगा कि भारत पर इन दो आक्रमणों के बाद जितने भी इस्‍लामिक आक्रमण हुए और समय के साथ मुगल एवं अन्‍य सत्‍ताएं स्‍थापित हुईं, हर किसी में एक बात समान रही, जिसमें कि अकबर का शासन भी विशेष तौर से शामिल है यही कि कैसे इस्‍लाम दूसरे धर्म के माननेवालों को रौंद सकता है। इस संदर्भ में राजस्‍थान से महाराणा प्रताप और जबलपुर की रानी दुर्गावती जैसे वीर हिन्‍दू योद्धाओं के अनुपम उदाहरण भी हमारे सामने हैं, जिन्‍होंने अकबर की भारी सेना का सामना करना स्‍वीकार्य किया, मृत्‍यु को प्राप्‍त हो गए, किंतु कोई समझौता स्‍वीकार्य नहीं किया।

वस्‍तुत: आज अधुनिक भारत के ये दृष्‍य ह्दय को बहुत पीड़ा पहुंचा रहे हैं। भारत में बिन कासिम के इस्‍लामिक आक्रमण से लेकर आज तक अनेंकों पीढ़ि‍यां बदल चुकी हैं, धर्म के आधार पर मुसलमान अपने लिए अलग से देश भी ले चुके हैं, फिर भी उनका अलगाव है कि शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा। इस संदर्भ में यही कहना है कि जो भी इस्‍लाम को मानने वाले हैं वे गंभीरतापूर्वक विचार करें, उनके बीच यदि ऐसी धर्मांध विचारधारा पनप रही है तो क्‍या वे उसका विरोध करने के लिए अपने से आगे आएंगे? अपने इस्‍लाम को आधुनिक बनाएंगे या भारत को फिर से धार्मिक लड़ाई झगड़े में ढकेलेंगे? अब विचार इस देश के उन तमाम इस्‍लाम को माननेवालों को ही करना है, जो ऐसी धर्म के आधार पर होनेवाली क्रूर घटनाओं पर भी मौन हैं।

लेखक:- डॉ. मयंक चतुर्वेदी