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कुशवाहों के आराध्य ‘कुश’ देव

देश और विदेशों में निवास कर रहे बीस करोड़ कुशवंशी समाज के आराध्य भगवान श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र ‘कुश’ की जयंती का पावन पर्व श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन समाज के लोग अपने पूर्वजों की अमर धरोहरों एवं शौर्यपूर्ण उपलब्धियों का स्मरण करते हैं।

कुशवाहों का गौरवपूर्ण, शौर्यपूर्ण एवं वैभवशाली इतिहास है। आज भी जयपुर का राजघराना यह मानता है कि वे भगवान राम के ज्येष्ठ पुत्र ‘‘कुश’’ के वंशज हैं। धूमधाम से श्रावणी पूर्णिमा से लेकर एक सप्ताह तक महाराज ‘‘कुश’’ का जन्मोत्सव मनाने की परम्परा मध्यप्रदेश में भी सदियों से चली आ रही है।

आराध्य कुश

कुशवाहों का इतिहास अत्यन्त ही गौरवशाली रहा है। उतना ही प्राचीन भी। त्रेतायुग के रामायण काल से ही कुशवाहों की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है।

भगवान श्रीराम के पुत्र महापराक्रमी कुश से समाज की पहचान सूर्यवंश-इक्ष्वाकु वंश परम्परा से जुड़ा माना जाना ही वे तथ्य है जो गत सैकड़ों वर्षों में हुये शास्त्रार्थ, महाज्ञानी, विद्वानों, इतिहास वेत्ताओं के तर्क-वितर्कों के पश्चात निकलकर आये हैं। यही कारण है कि लाखों वर्षों से प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के दूसरे दिन कुश जयंती और पूरे पखवाड़े विविध कार्यक्रम आयोजित किये जाते रहे हैं।

भगवान कुश ने कुशवती नाम के राज्य में वर्षों राज्य करके अपने वैभव को चारों और फैलाया। उन्होंने अपने लम्बे शासन काल में अपने कुल की चार पीढ़ियों को स्वतंत्र राजाओं के रूप में स्थापित किया था। सूर्यवंशी राजाओं का ऐसा प्रताप था कि वहाँ कभी सूर्यास्त नहीं हुआ।

‘‘कुश त्वदीय नाम महापुरूष त्वदीयवंशनुवंशवः वदन्ति, धारयन्ति इति कुशवाहा।’’ अर्थात् उस ‘‘कुश’’ महापुरूष के नाम को धारण करने वाले उनके वंशानुवंश में उत्पन्न होने वाले ‘कुशवाहा’ ही हैं। विभिन्न हिन्दु धर्मग्रंथों में सूर्यवंशी रघु की कुल परम्परा में भगवान श्रीराम के पुत्र ‘कुश’ के जन्म का वर्णन मिलता है। कालिदास के ‘रघुवंशम्’ में भी पर्याप्त वर्णन विस्तार से हैं। उनकी विद्वत्ता, वीरता, नारी के प्रति श्रद्धा सामाजिक समरसता, सर्वहिताय, सर्वजन सुखाय कृत्यों एवं गुणों का अनुसरण प्रत्येक कुशवाहा को करना ही चाहिये।

वे गायन-वादन के साथ साथ धनुर्विद्या में भी पारंगत थे। प्रजा की सेवा, प्रजावत्सलता, सफल प्रशासन उनकी अपनी विशेषता थी। कुश-लव के जन्म की कथा का बाल्मीकि रामायण में भी उल्लेख मिलता है श्रीकुश का विन्ध्यपर्वत के निकट कुशवती नगरी में राज्याभिषेक किया गया। वाद में लव-हार (लाहौर) का राज्य भी सौंपा गया।

‘रघुवंशम्’ में उनके राज्य का विस्तार राजस्थान के जयपुर, आमेर तथा कश्मीर तक होने का  उल्लेख है। कुशवती नगरी को बक्सर (बिहार प्रान्त) क्षेत्र भी बतलाया जाता है। यहाँ से सोन नदी के किनारे सीतामढ़ी के निकट रोहतास नगर भी बसाया गया। कुशवती, कुशपुर या कुशभवनपुर नामों का उल्लेख भी मिलता है। गोमती नदी के किनारे वाले इसी क्षेत्र में महर्षि बाल्मीकि आश्रम के खण्डहर अवस्था में विद्यमान है।

इसी परम्परा में प्रख्यात वीर राजा नल हुये। उन्होंने अपने राज्य का विस्तार मालवा क्षेत्र तक किया। नरवर (नलवर) कुशवाहों का प्रमुख गढ़ रहा है। कश्मीर के राजा गुलाबसिंह एवं जयपुर नरेश कुश वंश के ही थे। उनके नाम के साथ ‘कुशवाहा’ लिखा जाता है। मौर्य भी कुशवाहों की एक शाखा है। चन्द्रगुप्त मौर्य ईशापूर्व एक बहुत बड़े भू-भाग के शासक थे इसी समृद्ध परम्परा में बिन्दुसार और सम्राट अशोक का नाम आता है।

कालान्तर में राजस्थान, पंजाब, उत्तरभारत, भूटान,गढ़वाल, मदनावर, नरवर राज्य कुशवाहों का अंतिम शक्तिशाली राज्य रहा। जहाँ महाराजा नल तक हमारे वैभव की गाथा का उल्लेख करने वाले शिलालेख आज भी मौजूद हैं। यही कारण है कि आज भी इस समाज के लोग अधिक संख्या में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड, मेघालय, असम और आन्ध्रप्रदेश में निवास कर रहे हैं। इनमें से बहुत से उपशाखाओं से संबंधित काछी, मुराई, कोयरी आदि नामों से जाने जाते हैं। विदिशा, ग्वालियर, सागर और झाँसी में भी कुशवाह समाज भारी संख्या में निवास करता है।

पूज्य नानक जी देव महाराज ने जब हिन्दूधर्म की रक्षा के लिये सिख पंथ की स्थापना की तब ‘पंच-प्यारों’ को चुना गया था। उसमें एक कुशवाहा को भी शामिल किया गया था। वे कुशवाहा कुल उद्धारक महान सपूत हमारे गौरव सिख पंथ के दसवें गुरू महान बलिदानी गुरू गोविन्दसिंह ही थे। इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं अपने जीवनी ‘विचित्र नाटक’ में किया है। यही तथ्य हमारे पूर्वजों का पराक्रमी, वीर एवं साहसी होना सिद्ध करता है।

यही कारण है कि आजादी की लड़ाई के दौरान भी कुशवाहा पीढ़ी पीछे नहीं रह सकी। उसने स्वतंत्रता संघर्ष के प्रारम्भ से अन्त तक अपने क्षत्रियत्व के गुणों का प्रदर्शन बढ़चढ़ कर किया है। स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों की सूची में बड़ी संख्या में इन स्वनाम धन्यों के नाम स्वर्णक्षरों में लिखे हुये हैं।

19वीं सदी के प्रारम्भ में जब इस समाज के लोग आर्यसमाज के जाति जागरण से प्रभावित होकर शामिल हुये तब इन्हें ‘वर्मा’ नाम मिला। यह भारत की एकता के खातिर बड़ा अभियान था। जिसमें ब्राह्मणों को ‘शर्मा’ नाम दिया गया था। ‘वर्मा’ नाम धारकों में बहुत बड़ा वर्ग इसी समाज से संबंधित है।

इतिहास के पन्नों में ऐसे बहुत से दृष्टान्त हैं जिन्हें पढ़कर-सुनकर गौरव और स्वाभिमान का अनुभव होता है। उनमें से कुछ का यहाँ उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है।

बस्तर – बस्तर में अश्विन शुक्ल द्वादशी को दशहरा पर्व को सोल्लास समाप्ति के बाद काछिन देवी के मंदिर पर ‘काछिन जात्रा’ विघान होता है। इसी दिन सीरासार भवन में परम्परागत ‘मुरिया दरबार’ का आयोजन होता है। जिसमें आदिवासियों के परम्परागत मुखिया,जनप्रतिनिधि और आला अधिकारी सम्मिलित होते हैं।

आगरा – आगरा में राजा दाहिर धर्मावलम्बी कछवाहा शासक था। वह (देवी) तेजा देवी कछवाहा का उपासक था इसी देवी के नाम पर तेजों महालय बनवाया जो आजकल ताजमहल के नाम से पुकारा जाता है। इसी महालय से कंस के राज्य वटेश्वर तक महादेव मंदिर की 101 श्रृंखलायें थी जिसमें सबसे सुन्दर संगमरमर का बना तेजोमहालय था। ताजमहल हिन्दू प्रासाद है।

ताजमहल शाहजहां के समय से कम से कम तीन सौ साल पुराना है। ये न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मारविन मिल्स सन् 1988 में सिद्ध कर चुके हैं। उन्होंने ताजमहल के एक दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग कर उसे सन् 1356 के आसपास का बताया था।

आमेर, (जयपुर की राजगद्दी अर्थात्) राजाओं से हमारा संबंध है- इसका उल्लेख आता है। ताजमहल में भी हमारी समाज का बीजक लगा हुआ है जिसमें उल्लेख है कि ‘मूल रूप से यह भूमि जहाँ ताजमहल अवस्थित है, आमेर के कछवाहा परिवार की थी और उसे चार हवेलियों के बदले में ली गयी थी।’ नवीन शोध एवं ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार इस तथ्य की पुष्टि हो चुकी है कि विश्वविख्यात ‘ताजमहल’ अयोध्या के सूर्यवंशी सम्राट जन जन के आराध्य प्रभु श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र कुश के वंशजों द्वारा ही बनवाया गया था।

महान सन्त शाक्यवंशी महात्मा गौतम बुद्ध, राजा चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राटअशोक, स्वजातीय क्रान्ति के जनक महात्मा ज्योतिराव फुले, स्त्री शिक्षा की जन्मदाता सावित्री बाई फुले, क्रान्ति की अलख जगाने वाले गुरू गोविन्दसिंह ने अपनी जीवनी ‘विचित्र नाटक’ में इस बात का भी उल्लेख किया है कि श्रीरामचन्द्र जी के पुत्र ‘लव’ और ‘कुश’ की सन्तानों को आगे चलकर ‘वेदी’ और ‘सोढ़ी’ नाम मिला। कुशवाहा पराक्रमी वीर एवं साहसी कौम के प्रतीक रहे हैं। (संदर्भ श्री हेमकूट साहिब पर्वत की यात्रा) प्रकाशक भाई चतर सिंह जीवन सिंह अमृतसर।

कुशवाहा क्षत्रियोंत्पत्ति मीमांसा में महान विद्वान लेखक डाॅ. शिव पूजन सिंह एम.ए. (बिहार) ने अनेक प्रमाणों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि काछी (कछवाहा) समाज मूलतः श्रीरामचन्द्र जी के पुत्र श्री कुश महाराज के वंशज है। अयोध्या से यह जाति भारतवर्ष में चारों ओर फैली है।

चन्दवरदाई ने पृथ्वीराजरासों में इन्हें ‘काकुत्स’ के नाम से सम्बोधित किया है। मतिराम ने इन्हें कछवाहा व कर्नल जेम्सटाड ने ’कुशवाहा’ नाम दिया है।

इस शाखा का नरवर में आकर बसना, वीर सिंह के नलपुर महादुर्ग के विक्रम संवत् 1177 के दानपत्र से भी ज्ञात होता है। ए.के. सरस्वती द्वारा लिखित ‘स्ट्रगल फाॅर एम्पायर’ नामक ग्रंथ में कछवाहा और कच्छपघटों को अलग-अलग माना गया है।

कछवाहा वंश क्षत्रियों के 36 कुलों में से एक है। कछवाहा वंश का अतीत अत्यन्त ही गौरवशाली रहा है। इस कुल में रघु, दिलीप, राम और लव-कुश जैसे महाप्रतापी तथा प्रजापालक महापुरूषों का आर्विभाव हुआ। कुश कुल की विजय पताका हिन्दू राजस्व काल के अंतिम चरण 1194 ई. तक फहराती रही। राजा मानसिंह जी के विक्रम संवत् 1661 के शिलालेख में जो राजस्थान म्यूजियम  में है, रघुवंश तिलक कछवाहा कुल मुण्डन शब्दों के साथ उल्लेख है।

सूर्य वंशियों में कुश की उनसठवीं पीढ़ी के अयोध्या के अंतिम राजा सुमित्र थे। इन्हें 670 ई. पूर्व मगध देश के राजा अजात शत्रु नन्दीवर्धन ने परास्त कर अयोध्या को अपने अधिकार में लिया था। सुमित्र के बाद सूर्यवंश की एक शाखा पंजाब की ओर चली गयी। वीर सिंह तँवर ने ‘कछवाहा इतिहास’ में लिखा है कि सुमित्र से 10 वीं पीढ़ी में रविसेन हुये थे। उन्होंने पंजाब में आकर मारवाड़, ढूँढाड़ व ग्वालियर आदि इलाकों पर अधिकार किया।

कल्हण की ‘राजतरंगणी’ में उल्लेख आता है कि कश्मीर के राजा रामदेव जो हस्तिनापुर के शासक जन्मेजय के छोटे भाई हिरण्यदेव का पुत्र था, उसने कश्मीर का राज्य दयाल गोविन्द से जीत लिया था। बाद में रामदेव ने मुलतान पर विजय करने के बाद राजस्थान पर आक्रमण कर दिया। यहाँ उसका मुकाबला रविसेन से हुआ। बाद में रविसेन ने अपनी कन्या का विवाह रामदेव से कर दिया। यह वर्णन कल्हण की राजतरंगिणी तथा मुल्ला अहमद द्वारा रचित तारीखे कश्मीर में भी मिलता है।

ग्वालियर से प्राप्त कछवाहों के शिलालेख में पहला नाम लक्ष्मण का मिलता है। लक्ष्मण का पिता ढ़ोला था जिसकी राजस्थानी साहित्य में ढ़ोला वारवणी  (मारवण) की प्रसिद्ध प्रेम गाथा है।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने वि0सं0 1215 (ईश्वी 1158) में ग्वालियर पर आक्रमण किया। उस समय वहाँ का शासक सोलकपाल था। श्री गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा इन शासकों को कछवाहा मानते हैं।

कुश की जयन्ती कुशवाहों का वीरता पर्व है। हमें अपने पूर्वजों के इतिहास का स्मरण करते रहना चाहिये। जो समाज अपने इतिहास को भुला देता है वह समाज भी एक दिन काल के गाल में समा जाता है। प्रत्येक समाज के लिये उसके महापुरूष वंशज, आराध्य, पूर्वज उसकी पहचान होते हैं। उसे याद कर हम सब गौरवान्वित महसूस करते हैं। हमें उनके प्रेरणा भी मिलती है।

अतः हमें कुश जयंती धूमधाम से मनाना चाहिये। ताकि हम गर्व से कह सकें कि हम महान योद्धा कुश महाराज की संतान हैं। कुशवाहों के आदि पुरूष भगवान कुश का जन्मोत्सव श्रावण पूर्णिमा के बाद कजलियाँ मिलन के साथ-साथ मनाया जाता है। हम अपनी सुविधानुसार एवं पखवाड़े तक कभी भी मना सकते हैं, कार्यक्रमों का आयोजन कर सकते हैं। कुश जयंती के साथ-साथ गुरू गोविन्द सिंह की जयंती भी विशाल पैमाने पर आयोजित करना चाहिये ताकि हमें अपनी गौरवशाली स्वजाति परम्परा का सदैव स्मरण बना रहे।

इस वास्तविकता पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि इस नगर और उसके पास एक लाख से अधिक जनसंख्या, मध्यप्रदेश में 67 लाख और पूरे भारत वर्ष में 16-18 करोड़ से अधिक की आबादी के बावजूद राजनैतिक एवं सामाजिक दृष्टि से इतने कमजोर क्यों बने हुये हैं? क्या हमें जागृति और प्रगति की दिशा में अपने कदम नहीं बढ़ाना चाहिये? भगवान कुश महाभारत काल, राजानल, मौर्यवंश आदि की समृद्धशाली परम्परा के बावजूद हम दीन-हीन क्यों बने रहना चाहते हैं? यह एक गम्भीर चिन्तन का प्रश्न है।

मंजिल उसी को मिलती है जिसके सपनों में जान होती है।

पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है।

लेखक:- डॉ. किशन कछवाहा
सम्पर्क सूत्र:- 9424744170