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कृतज्ञ किसान पोला मनायें…

कृतज्ञ किसान पोला मनायें…

” आत्मवत् सर्वभूतेषु , वसुधैव कुटुम्बकम् तथा ” माता भूमि पुत्रोऽहम पृथिव्याः ” जैसे उच्च आदर्शो से युक्त यह हमारी भारतीय संस्कृति ने मानव मूल्यों का सम्मान ही नहीं बल्कि उनका सदैव संरक्षण एवं संवर्धन भी किया है।

जिस भारतभूमि की प्रशंसा के गीत देवता भी गाते है उसकी महानता के दर्शन करना हो तो चलो गाँव की और देखों उन तीज त्यौहारों को जो भारतीय दर्शन तथा भारतीय चिंतन को अपने आप में छुपाये हुए हैं । ऐसी ही परम्परा से युक्त है पोला ( पोरा ) त्यौहार । किसानों की कृतज्ञता का प्रतीक यह त्यौहार कृषकों के ऋषि तुल्य चिंतन तथा भारतीय संस्कृति की महानता को प्रदर्शित करता है ।

वेदों में अन्न के रूप में जिसका वर्णन किया गया है वह अन्न चावल ही है तथा चावल से बने भात को स्वयं ब्रह्म महा गया है ।

यथा- ओदनमुदब्रुवते परमेष्टी व एषः यदोदनः ।

                 ( कृष्ण यजुर्वेद )

चावल अर्थात धान को उत्पन्न करने वाला कृषक धान की रोपाई समाप्त करने के बाद अपने परम सहयोगी पुत्र स्वरूप बैलों का जब सार्वजनिक अभिनन्दन करता है…

उनकी आरती उतारता है तो एक अनूठा पर्व बनता है- ” पोला या पोरा ” । पोला शब्द पोरा – मराठी शब्द का अपभ्रंश रूप लगता है जिसका अर्थ पुत्र होता है । इस त्यौहार का वास्तविक एवं विराट स्वरूप मराठी भाषी क्षेत्र में दिखाई देता हैं इसके उद्घोष एवं बैलों के अभिनन्दन स्वरूप गाये जाने वाले गीत जिन्हें ‘ झडती ‘ कहते हैं मराठी भाषा में ही गाये जाते है ।

भादो मास की अमावस्या के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार वास्तव में तीन दिन तक मनाया जाने वाला त्यौहार है । एक दिन पूर्व अर्थात भादों कृष्ण चौदस को इसे महाबैल या महोबैल के रूप में मनाया जाता है ।

इस दिन कृषि कार्य में लगे बैलों का सार्वजनिक अवकाश होता है उनसे कोई भी काम नहीं लिया जाता उन्हें नहला धुलाकर महुआ से युक्त चावल के आटे के मीठे लड्डू खिलाये जाते हैं उनके सींगों पर तेल लगाया जाता है शरीर के घाव वाले स्थानों पर जीवाणु रोधक हल्दी तेल का लेपन किया जाता है ।

रात्रि में गृह लक्ष्मी गौशाला में आरती लेकर अपने गौली की पकवान एवं पैसों से झोली भरकर गौधन वृद्धि का शुभ आशीर्वाद ग्रहण करती है । कहते हैं किसी समय माता पार्वती ने इसी दिन नंदी की पूजा कर आशीर्वाद प्राप्त किया था इसलिए इसे महाबैल या महोबैल भी कहते हैं ।

महोबैल के दूसरे दिन पोला का मुख्य त्योहार प्रातःकाल से प्रारंभ हो जाता है जब कृषक एवं उसका पूरा परिवार बैलों को नहलाकर उनकी सजावट एवं पूजन की तैयारी में तन्मय हो जाता है । बेलपाती तथा माहुल ( कुडो ) के पत्तों को सजावट एवं पूजन सामग्री के रूप में उपयोग किया जाता है ।

बैलों के गले में सुन्दर-सुन्दर हार बेलपाती की मालाएँ, सींगों में सुन्दर-सुन्दर हार बेलपाती मालाएँ सींगों में सुन्दर गोरे , रंग बिरंगी पन्नियां शरीर पर रंगों की सजावट या सुन्दर कपड़ों की झूले . माथे पर मनोहारी मुकुट मानों ऐसा लगता है कि हमारे बैल आज दूल्हा ( नवरदेव ) बने गये हैं ऐसे सजा धजाकर शाम के समय जब नये – नये कपड़ों में किसान अपनी बैल जोडियों को लेकर बाजे गाजे के साथ निकलता है तो ऐसा लगता है सचमुच बैलों की बारात जा रही है ।

यह बारात जब गांव के गौठान ( गौधन स्थान ) या पोला ग्राउन्ड में पहुंचती है तो सारा समाज आम की तोरण बना बैलजोडियों के स्वागत में तत्पर दिखाई देता है- तोरण के नीचे खड़ी बैल जोडियों को चावल का टीका लगाकर उनका अभिनन्दन स्वागत करता है फिर गीत गाये जाते हैं उनके अभिनन्दन के गीत –

झडती जैसे झड-झड झडती . पाना पडती , माझा बैला च पुडह आरती ।

सागुन देता हो तोरणी मठाठी बेलपाती च झाडा ।

यह झडती जिसे बैलों की आरती कहे या अभिनन्दन गीत किन्तु यह सिद्ध करती है बैलों के प्रति कृषक की कृतज्ञता को उसके पुत्रवत प्रेम को । उनकी देखभाल करने वाले गोलियों के सम्बन्ध को उनकी महानता को-

जैसे- चितका चाहड़ा , बैल बाहडा , बैल गेला पवनवाडा ,

पवनवाड़ा ची आनलन माटी- हा आखर कोन्हाच – हो बलकिया ढोरकिया च ।।

अर्थात गाव के गोठान पर केवल गौधन तथा गौसेवकों का ही अधिकार है । पोला की झडती त्यौहार की महानता तथा प्राचीनता का भान कराती है ।

जैसे- महागुरू तुझा चेला . लात मारून उभा केला .

असल मन च मन पुडा मार लका च हुडा,

शक्कर सोजया मंधी सागुन देता हो बेलपाती च झाडा ।।

आम पत्तियों की तोरण तथा बेलपाती को साक्षी रखकर की जाने वाली बैलों की यह पूजा यह अभिनन्दन महान संत कबीर की इस साखी को चरितार्थ करती है कि पत्थर की पूजा की अपेक्षा पीसकर खिलाने वाली चक्की की पूजा श्रेष्ठ है ।

सार्वजनिक अभिनन्दन के बाद एक दूसरे को टीका देकर , गले लगाकर तथा प्रसाद खाकर जब विजयी भाव से किसान अपनी बैलजोडी को लेकर घर आता है तो घर में गृह लक्ष्मी उनके स्वागत में पहले से तैयार खड़ी रहती है । वह बैलों को टीका देकर उनकी आरती उतारकर उन्हें नये – नये बर्तनों में भोजन कराती है गाँव के सभी आबाल वृद्ध पोला त्योहार में ओत – प्रोत दिखाई देते हैं ।

छोटे – छोटे बच्चों की टोलियां घर – घर जाकर टीका देते एवं आशीर्वाद लेते दिखाई देती है । चूंकि यह त्योहार भी अन्य त्योहारों की तरह ही सभी मिल – जुलकर मनाते हैं इसलिए समानता लाने हेतु हमार प्राचीन मनीषियों ने घर में मिटटी या लकड़ी के बैल ( नंदी ) बनाकर उनका भी पूजन करवाया है जो आज भी होता है ।

पोला को रात्रि से ही नारबोद या नारबध को लेकर उदघोष शुरू हो जाते हैं जैसे- ” घेउन जायरी नारबोद । जबकि यह त्योहार पोला के दूसरे दिन मनाया जाता है पूतना वध से नारबाद का त्योहार अति प्राचीन पोला त्यौहार में बाद में संयोगवश जोड़ा हुआ वैद्य , गुरुओं एवं उनके शिष्यों की परीक्षा का दिन भी होता था इसलिए इसे आज भी बढ़गा( कोन बढ़ गया ) के रूप में भी मनाया जाता है ।

इस प्रकार तीन दिनों के आनन्द मंगल के साथ पूर्ण होता है पोला त्यौहार मानव तथा प्रकृति की परस्पर पूरकता को प्रदर्शित करने वाला पोला त्योहार मानव की विकास गाथा का उदाहरण है । गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है

अन्नात भवन्ति भूतानि” और अन्न को उत्पन्न करने में हमारा सहयोगी हमारा गोधन है इसका संरक्षण तथा संवर्धन कर हम अपनी मातृभूमि को सुजलाम सुफलाम तथा शस्य श्यामलाम बना सकते हैं पोला त्यौहार में भारतीय जनों से यही अपेक्षा है ।