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कैसी गंगा – जमुनी तहजीब

गंगा-जमुनी तहजीब, भाईचारा और भारतीय संविधान की दुहाई देने वाले मुस्लिम नेता आत्म परीक्षण करें कि अतीत से लेकर अब तक भारत के ही मुस्लिम बहुल इलाकों में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के साथ उनका व्यवहार उनकी दुहाई देने वाले नारों के क्या अनुकूल रहा है?

पिछले आठ सौ वर्षों का रक्तरंजित इतिहास जो उनके तथाकथित पुरूखों मुहम्मद गोरी से लेकर सन् 1920 के भोपला दंगों, सन् 1946 के जिन्ना के आव्हान पर हुआ डायरेक्शन, सन् 1947 में भारत-पाक बंटवारे के दौरान हुयी अमानुषिक हत्याओं को क्या वे सही ठहराने की स्थिति में है?

इस देश में नरसंहार तो बहुत हुये सन् 1984 में सिखों का नरसंहार हुआ। सन् 2002 में जिहादियों ने तीर्थयात्री हिन्दुओं के दो रेल के डिब्बों में आग लगाकर जिन्दा जला दिया। लगभग 5-6 लाख कश्मीरी पंडितों को मुस्लिम बहुल कश्मीर से दिल दहला देने वाले अमानुषिक अत्याचारों-जुल्मों जैसे घृणित कारनामों के बाद उन्हें कश्मीर छोड़ने बाध्य किया गया। वे तीन चार दशकों से केम्पों में नारकीय जीवन जीने बाध्य हैं।

Ayodhya Verdict- Ganga-Jamuni Tehzeeb Seen In Bundelkhand, Hindu-Muslim Religious Leaders Hug Each Other

क्या इन तमाम संदर्भों के बीच इस्लामी गंगा-जमुनी तहजीब और भाईचारा का नारा, और संविधान के उल्लेख का कोई सार्थक तारतम्य समझा जाय-इसे सहज ही क्यों और कैसे मान लिया जाना चाहिये, कहाँ तक और किस सीमा तक?

पं. बंगाल, केरल और अन्य प्रदेशों के वे इलाके जहाँ मुस्लिम आबादी, हिन्दुओं से समकक्ष या अधिक हो गयी है, क्यों हिन्दू सुरक्षित नहीं है? इस प्रश्न पर क्या बुंद्धि-जीवी मुस्लिमों को गंभीरता से विचार नहीं करना चाहिये। अभी वर्तमान समय में भी कश्मीर में चुन चुन कर हिन्दू कश्मीरियों की हत्या किये जाने का सिलसिला थमा नहीं है, अल्पसंख्यक हिन्दुओं को वहाँ क्यों नहीं रहना देना चाहते? वहाँ कौन सी मानसिकता काम कर रही है- इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक क्यों नहीं समझा गया? वहां किसी भी मुस्लिम नेता ने इन घृणित घटनाओं का विरोध नहीं किया-इस साधी गयी चुप्पी का क्या अर्थ लगाया जाये क्या मतलब निकाला जाय?

पिछले आठ सौ सालों के इतिहास को कोई बदल भी नहीं सकता और झुठला भी नहीं सकता? क्योंकि उन दिनों की गयी ज्यादितियों-अत्याचारों, जबरिया मतान्तररीण की दास्ताने हजारों की संख्या में तोड़े गये मंदिरों और उनकी सामग्री से बनायी गई मस्जिदों में उनके कुकृत्य के  साक्ष्य खुलकर सामने आते जा रहे हैं। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण था कि उस खूनी इतिहास को सदियों तक भारत की जनता के सामने आने नहीं  दिया गया। नयी पीढ़ी उस इतिहास को जान ही नहीं पायी। आजादी के बाद वोट बैंक की राजनीति और मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते 70 साल से कांग्रेसी शासन में भी जनता को इन जुल्मों की कहानी से अवगत होने से वंचित रखा गया।

बाबर, अकबर, औरंगजेब जैसे आत्याचारी हमलावरों ने पूरी ताकत से लूटपाट की। इन्होंने मंदिर ही नहीं तोड़े, पूरी भारतीय संस्कृति को नष्ट-भृष्ट करने क्रूरता, बर्बरता अत्याचारों और जुल्मों की सीमा भी पारकर दी।

भारत में रह रहे कतिपय जयचंदी प्रकृति के लोगों ने इनके महान होने के कसीदे भी गढ़े। इसके विपरीत इन हमलावरों से लोहा लेने वाले, अपना सर्वस्व त्याग देने वाले वंदावीर बैरागी, महाराणा प्रताप, वीर सावरकर जैसे माँ-भारती के साहसी पुत्रों की गाथा को शिक्षा और समाज से दूर रखने के घृणित कुकृत्य किये जिसके कारण इनसे प्रेरणा लेने वाले अवसर भी नहीं मिल सके। वास्तविक इतिहास से दूर रखने की कोशिशें एवं षड़यंत्र एक विशेषनीति के अंतर्गत काम में लायी गयी।

राजस्थान (बीकानेर) संग्रहालय में रखे 7.4.1685 का दस्तावेज और 25 मई 1679 जैसे दस्तावेज ऐसे तमाम जुल्मों की गाथाओं को चीख-चीख कर बता रहे हैं। गत आठ सौ सालों के इतिहास को अतीत की बात मान भी ले तो सन् 1946-47 के दौरान जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनायें घटी और चार-पाँच-6लाख कश्मीरी हिन्दु बलात् भगाये गये-इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिये मुस्लिम पक्ष द्वारा कब कब चुप्पी तोड़ी गयी? यह प्रश्न चिन्ह है? प्रश्न और सवाल तो उठते ही रहेंगे?

देशभर में आक्रमणकारी मुगलकालीन सत्ता के दौरान 60 हजार मंदिरों का बेरहमी के साथ विध्वंश किया गया। जुल्मों- प्रलोभनों तलवार की नौंक पर मतान्तरण के लिये हिन्दुओं को मजबूर किया गया। इसकी कसक को दिलोें से कहाँ तक और कैसे निकाला जायेगा? मंदिर तोड़े गये-ये हिन्दुओं की आस्था और विश्वास के प्रतीक थे- उस पीड़ा को हिंन्दू पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज तक अपनी छाती से चिपकाये जी रहे हैं। कोई कहता है कि इसको भूल जाईये-क्या ऐसा सम्भव है, जब मुस्लिम बहुत क्षेत्रों में रोज-बरोज वह सब हो रहा है, जैसा मुगलशासन में होता आया है, जिन हालातों को समझने, देखने हू-बहू हुआ जा सकता है- उन इतिहास के पन्नों और संग्रहालयों में संग्रहित दस्तावेजों और मुगल फरमानों से।

यह पीड़ा, टीस, कसक जल्दी पीछा छोड़ेगी-इसकी सम्भावना कम है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी ने एक बहुत बड़ी और गंभीर बात कह कर अपनी भलमन साहत और दरिया दिली दिखायी है कि हर मस्जिद में शिव जी की मूर्ति झाँकना ठीक नहीं है।

इस दरिया दिली को मुस्लिम पक्ष गंभीरता से समझे। वे साधारण व्यक्ति नहीं है। दुनिया के सबसे बड़े संगठन के हिन्दू प्रतिनिधि हैं। उनकी बात को विश्व भर के लोग अहमियत देते हैं।

उनका यह भी कहना सार्थक एवं प्रेरणादायक है कि पर इतिहास न तो आज के हिन्दुओं ने बनाया है, न ही मुसलमानों ने। इतिहास की सच्चाई को झुठलाया भी नहीं जा सकता।

इस सच्चाई से भी मुंह फेरा नहीं जा सकता कि इन आक्रान्ताओं ने एक मंदिर या एक धर्मस्थल नहीं वरन् भारत की पूरी सभ्यता और संस्कृति को जड़-मूल से नष्ट-भृष्ट करने की भरसक कोशिशें की थी, क्योंकि उन्हें यहाँ इस्लाम का प्रचार करना था। वे इसमें असफल हुये, भले ही उन्होंने लगातार अत्याचारों और जुल्मों का कुचक्र चलाया। समय समय पर संगठित होकर हिन्दुओं ने उन्हें जबाव भी दिये। वे चुप नहीं बैठे, वे चुप बैठ भी नहीं सकते थे। यही हिन्दू- धर्म-सनातन धर्म की विशेषता है।

भारत सहिष्णु हिन्दुओं का देश है। जब भी उसके स्वाभिमान, उसकी आस्था और उसके विश्वास को चोट पहुंचती है या छल होता है वह जाग कर खड़ा हो जाता है। विभाजन के बाद हिन्दुओं ने लोकतांत्रिक राज्य का विकल्प चुना था और पाकिस्तान ने इस्लामी राज्य का। उसी समय कांग्रेस को चाहिये था कि वह सभी समुदायों के लिये समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करती। पर यहां वह भी चूक गयी- वह भी वोट-बैंक के लोभ में। जो लोग किसी भी सूरत में मुस्लिम पर्सनल लाॅ कायम रखना चाहते थे, उनके लिये पाकिस्तान का विकल्प था। इस लोभ में हिन्दुओं के स्वाभिमान पर आघात होते रहे।

पंथ निरपेक्षता की आशा सिर्फ एक पक्ष से ही नहीं की जाना चाहिये। अतः स्वतंत्र भारत के मुसलमानों से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि ज्ञानवापी का महत्व हिन्दुओं के लिये उतना ही है, जितना आज के मुसलमानों के लिये काबा का है। वहां मस्जिद का निर्माण मुख्य देवगृह के ऊपर कराया जाना पूरी तरह से अनुचित तो मान ही लिया जाना चाहिये। यह आज की बदली हुयी परिस्थितियों में अत्यन्त आवश्यक भी है कि वे औरंगजेब द्वारा की गयी बदगुमानियों को न केवल गलत माने वरन् हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं मान्यताओं के प्रति अपनी सहृदयता प्रदर्शित करें।

इस सच्चाई को झुठलाने की कोशिश न की जाये तो अच्छा है। यह तथ्य आईने जैसा साफ है कि इस्लाम बहुत बाद में आया, शिव तो ईसा के जन्म से भी सैकड़ों साल पहले लिखे गये ऋग्वैदिक काल के ग्रंथों में वर्णित है।

लेखक:- डॉ. किशन कछवाहा
सम्पर्क सुत्र:- 9424744170