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गुरु की महिमा (गुरु पुर्णिमा पर्व)

 ॐ गुरुरब्रह्म गुरुविष्णु: गुरुरेव महेस्वर:।
गुरुरेव साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नम : ।।

भारतीय संस्कृति गुरु की महिमा अपरंपार बताई गई है। भारतीय संस्कृति गुरु- गुरुत्व (अध्यात्म) की ही संस्कृति है। एक समय इसी संस्कृति का भारतवर्ष के 33 करोड़ नर-नारी पालन करते थे, धारण करते थे। गुरुत्व इनके आचार-व्यवहार से छलकता, टपकता, निःसृत होता था।

गुरु तत्व अर्थात ईश्वरत्व, दैवीय चेतना, भागवत चेतना, सनातन, परमब्रह्म परमेश्वर, नियता, सृष्टि का कारण, सृषटा, भगवान है। गुरु ब्रह्मा के रूप में सृजनकर्ता, विष्णु रूप में पालनकर्ता व शिव के रूप में संहारकर्ता/न्यायकर्ता है।

ईश्वरीय चेतना श्रृष्टि में दो रूपों में कार्य करती है। एक रूप श्रृष्टि की विधि व्यवस्था बनाता है व दूसरे रूप (अंश) में वह शिस्यो को जगत के उस ईश्वरीय विधान का ज्ञान करता है। इसीलिए गुरु ईश्वर रूप होते है। वह ईश्वरीय चेतना को धारण कर शिष्यों का मार्गदर्शन,अनुग्रह, कृपा के रूप में करते हैं ।

सृष्टि के आदिकाल से देवी चेतना/अध्यात्म/सनातन संस्कृति/हिंदुत्व का एक अखंड प्रवाह चला आ रहा है । इसी प्रवाह का प्रतीक भगवा ध्वज है यह एक अविनाशी, सनातन, परमात्मा चेतना (अध्यात्म) का दिव्य प्रवाह है। इसे ही अनेक नाम और रूपों में पुकारा गया है तथा भारतीयता, हिंदुत्व ,अध्यात्म, सनातन, आर्यत्व, गुरुत्व इत्यादि। भगवा ध्वज इसका प्रतीक है । यह एक तत्व का द्योतक है।

प्राचीन काल से भारत वर्ष के महान पराक्रमी, शूरवीर राजाओ, महाराजाओं द्वारा अपने ध्वज के रूप में इसी भगवा पताका का प्रयोग किया गया है। इतिहास उठाकर देखते हैं तो जहां तक दृष्टि जाती है वहां तक भगवा पताका दिखाई देता है। विश्व में अनेकों काल खंडों में अनेक भारतीय चक्रवर्ती राजाओं द्वारा यह भगवा पताका फहराया गई है।

भगवान राम के पूर्वज महान सम्राट इक्ष्वाकु, रघु, दिलीप, हरीशचंद्र, दशरथ ने इसी पताका को विश्व में लहराया-फहराया था। भगवान राम ने अश्वमेध यज्ञ किया, इसी पताका को दिग्दिगंत में फहराया था। सम्राट युधिषठिर, समुद्रगुप्त, पुष्पमित्र सुंग ने भी इसी पताका को अपने दिग्विज्यी अभियानों में विश्व में फहराया था। भारतीय हिंदू (सनातन) संस्कृति की यह भगवा पताका इतिहास के अनेकों कालखंडो में विश्व में लहराई थी एवं संपूर्ण विश्व भारत की शरण में आ गया था तब भारत विश्वगुरु-जगतगुरु कहलाया था । “जब दुनिया में सब सोए हुए थे तब भी जगा हुआ था यह देश।”

गुरु पूर्णिमा पर्व गुरु के प्रति श्रद्धा -समर्पण करने का पर्व है। जो शिष्य गुरु के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है वह अपनी पात्रता में वृद्धि कर लेता है। तब शिष्य की मुमुक्छुत्व, तीव्र उत्कंठा ही उसे गुरु कृपा प्रदान करती है। गुरु का वाक्य मन्त्र होता है। व गुरु कृपा से ही मोक्ष प्राप्त होता है।

गुरु शिष्य के अज्ञान-अंधकार को हर लेते हैं और शिष्य को इस संसार सागर, भव सागर के पार लगाते है। क्योंकी गुरु ही नाव के खिवैया है । वे ही शिष्य के सारे बंधनो, कुसंस्कारों, बाधाओ को तोड़ने-नष्ट करने वाले हैं । ऐसे गुरु की महिमा वेदों ने गाई है। यह महिमा इतनी अपरंपार है की सारी धरती को कागज बनाए व सारे वनों के वृक्षों की कलम बनाकर भी लिखी जाए, तब भी नही लिखी जा सकती है। वाणी असमर्थ है उन असीम का गुड़गान करने में।

अतः गुरुत्व/ गुरु अनंत, अनादि, अखंड, अतुल्य हैं “वर्णातीतम त्रिगूण रहितं ” है। भारतवर्ष में गुरु शिष्य परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। विश्वामित्र-वशिष्ठ, राम-लक्ष्मण, गुरु संदीपनी-श्रीकृष्ण बलराम, द्रोणाचार्य-पांडव व एकलव्य, स्वामी रामकृष्ण परमहंस-विवेकानंद, विरजानंद-दयानंद, समर्थ गुरु रामदास-शिवाजी, के रूप में।

गुरु तुम्हें नमन – swetangiblog

मनुष्य के जीवन में गुरु तभी मिलते हैं जब कई जन्मों के पुण्य जागते हैं । तभी ऐसी परमात्मा की कृपा से गुरु का मिलन होता है, पदार्पण होता है यदि शिस्य अपने अहंकार, स्वार्थ, कुटिलता क्षुद्रता का त्याग करके, शरणागत भाव से गुरु को समर्पित हो जाए एवं अपनी पात्रता विकसित करते चले,गुरु आज्ञा को धारण करके मन-वचन-कर्म से गुरु इच्छा अनुसार आचरण करें तो फिर उसका कल्याण ही कल्याण होता चला जाता है फिर नरेंद्र विवेकानंद बनता चला जाता है।

जिस तरह हम नदी के जल को लहरों के बिना नहीं जान सकते, जिस तरह हम द्रस्टी के बिना आंख को नहीं जान सकते, उसी प्रकार से हम मानवीय जीवन की उन्नति को गुरु के बिना नहीं समझ सकते हैं। ज्ञान को, ध्यान को, चेतना को, चिंतन को, संस्कार को, विचार को, देश को, परिवेश को, विश्व को जानने, भक्ति को तथा मुक्ति को जानने के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है ।

स्कन्द पुराण में कहा गया है कि- गुरु महिमा का दाता, महिमा का संदेश वाहक, चेतना का साथी, संस्कारों का संवाहक, प्रेम का प्रतिनिधि होता है और नीति का निर्देशक होता है। वह कुरीतियों को हटाता है। तथा सुनीति और संस्कार लाता है। गुरु प्रदत्त ग्यान व्यक्ति को ‘सर्वतोभावेन’ विकसित करता है। गुरू है- तो ज्ञान है, ध्यान है, मान है, यश है, कीर्ति है, साहित्य है, चिंतन हैं, संस्कार है, संस्कृति है, विकृतियों का विनाश है, संस्कृति का सृजन है, व्यवहार का दीप जलता है, प्रेम का प्रकाश फैलाता है, ध्यान की जो जलती है, गरिमा का गुलाब खिलता है, महिमा के मोगरे महकते हैं।

प्रख्यात विचारक कौटिल्य चाणक्य नीतिदर्पण में कहते हैं कि- “गुरु शिस्य को सफलता की सुधा पिलाता है; गुरु शिस्य को कीर्ति के कलश थमाता है; गुरु शिस्य की प्रसिद्धि की पताका फहराता है; गुरु शिस्य को अमरत्व की राह दिखाता है और गुरु मुक्ति की महिमा से शिस्य का साक्षात्कार कराता है।”

गुरु एक तरफ शक्ति का स्रोत है तो दूसरी तरफ भक्ति का आधार है तो तीसरी तरफ मुक्ति का मंत्रदाता है । सद्गुरु ईश्वर का दिया हुआ वरदान है इसलिए गुरु गीता में लिखा है-

गुकारस्तवन्धकारस्च रुकार्स्तेज उच्यते ।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशय : ।।

गुरु तत्व यानी गुरुत्व अखंडमंडलाकारं है। संपूर्ण सृष्टि में वही एक तत्व का विस्तार ,प्रसार है। उसी तत्व को धारण करके भारतवर्ष अति प्राचीन काल अथवा सृष्टि के आदिकाल से सम्पुर्ण वसुधा मे मानवता का मार्गदर्शन करता आ रहा है। इसी भाव- संस्कार, उदात्त विचारणा, दिव्यत्व (गुरुत्व) के कारण भारत आदिकाल से विशु का गुरु विस्वगुरु-जगतगुरु अर्थात ‘हिंदुत्व यानी गुरुत्व’ भी इसी तत्व की अभिव्यक्ति है। जैसे-जैसे भारत का जनमानस हिंदुत्व यानी गुरुतत्व को धारण करने आगे बढ़ेंगे वैसे-वैसे ही वसुधा का सर्वतोभावेन कल्याण होगा।

यह गुरु तत्व वन्दनीय है, पूजनीय है। इसी तत्व को धारण करने वाले संत ‘ऋषि गुरु हुए हैं। भारतवर्ष भी इसी गुरुत्व के कारण जगतगुरु रहा था व आगे भी होगा। इक्कीसवीं सदी में भारत को विश्व का नेतृत्व, मार्गदर्शन करना है। सारी विश्व मानवता को ध्वंस से हटाकर सृजन के पथ पर अग्रसर करना है।

विज्ञान को सृजन ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के लिए प्रेरित करना होगा। अध्यात्म व विज्ञान का मिलन भारत कराएगा। संपूर्ण मानवता को उज्जवल भविष्य, मनुष्य में देवत्त्व का उदय व धरती पर स्वर्ग का अवतरण भारत करेगा,भारत का अध्यात्म करेगा। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि- “भारत यदि ईश्वर की शोध में रत हो गया तो अमर हो जाएगा और राजनीति के कीचड़ में लौटता रहा तो विनाश अटल है।”

21वीं सदी में विस्व पटल पर, विश्व मानवता के कल्याण में भारतवर्ष की भूमिका के संदर्भ में युगऋषि-वेदमूर्ति पं श्रीराम शर्मा आचार्य लिखते हैं कि- “अगले दिनो संसार का एक राज्य, एक धर्म, एक अध्यात्म, एक समाज, एक संस्कृति, यह कानून, एक आचरण, एक भाषा और एक दृष्टिकोण बनने जा रहा है इसलिए जाती, भाषा, देश, संप्रदाय आदि की संकीणताए छोड़े और विस्व मानव की एकता की ‘वसुधैव कुटुंबकम ‘की भावना का स्वीकार करने के लिए अपनी मनोभूमि बनाएं।”

अत: गुरु पूर्णिमा पर्व पर हम सभी गुरुतत्व को धारण, नमन-वंदन-पूजन करें। इक्कीसवीं सदी भारत व भारतीयता कि है संपूर्ण विश्व में भारत की भगवा पताका फहराएगी। भारतीय संस्कृति का डंका बजेगा। अब यही भारत की नियति है अतः गर्व का अनुभव करते हुए अपने धर्म कर्तव्य/राष्ट्र धर्म का पालन करें, यही गुरु पूर्णिमा पर्व पर हम सभी से अपेक्षित भी है।

लेखक:- डॉ नितिन सहारिया