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चीनी हरकतें घटी नहीं हैं !

गत रविवार को भारत और चीन के बीच एक और दौर की उच्चस्तरीय सैन्य वार्ता हुयी। यह 13वें दौर की वार्ता लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की तरफ मोल्डो सीमा बिन्दु को लेकर हुयी। कहने को वार्ता का क्रम तो चलता रहता है। लेकिन असल प्रश्न यह है कि हमारा भरोसा चीन पर बना नहीं रह सकता। उसके अब तक के व्यवहार और कार्यप्रणाली ने विश्वास डिगा दिया है। अभी भी पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में चीन की ओर से सैन्य जमावड़ा और व्यापक पैमाने पर तैनाती के कारण शंकायें बढ़ती तो हैं ही।

चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। पिछले अनुभव कड़ुवाहट भरे रहे हैं। काँग्रेस शासन की लचर राजनीति के चलते सन् 1951 में तिब्बत के मामले में धोखा खाया और चीन का उस पर कब्जा होने दिया गया। यह सब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रहते हुआ। इस चीनी विश्वासघात के बाद भारत ने डटकर तिब्बती आजादी का मुखर होकर मुद्दा उठाया होता तो चीन की हिम्मत आगे न बढ़ पाती।

चीन की सीमा 14 देशों से लगती है और उसकी विस्तारवादी महत्वाकाँक्षा के चलते 23 देशों के साथ उसके सीमा विवाद चल रहे हैं। दक्षिणी चीन सागर पर दावों के कारण इंडोनेशिया, फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताईवान और बुनेई से उसके तनावी सम्बंध बने हुये हैं। सन् 1949 से ही कम्युनिष्ट क्रान्ति के साथ चीन के माओवादी साम्राज्यवादी कम्युनिज्म ने पड़ोसी देशों के लिये समस्यायें पैदा करनी शुरू कर दी थीं।

सन् 1962 के चीनी हमले के बाद से भारत के लिये यह प्रश्न हथौड़े के प्रहार की तरह चैट पहुँचाता रहा है। भारत की 43 हजार वर्ग किलामीटर भूमि पर काँग्रेसी शासन के रहते चीन का कब्जा बना हुआ है। इस तथ्य को नजर अंदाज करते हुये काँग्रेस के चोटी के नेता कुछ भी बोलने से पहले अपनी बेशर्मी ही दर्शाते रहते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने सुस्पष्ट शब्दों में कहा है कि संप्रभुता की रक्षा के लिये भारत प्रतिबद्ध है। उन्होंने सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सैनिकों से अपने स्तर पर निपटने के लिये खुली छूट दे रखी है। इस खुली छूट का मतलब है कि चीनी सैनिकों से जैसे चाहे निपटें। यह मोदी शासन का बड़ा नीतिगत परिवर्तन है। इससे चीन को सीधा सन्देश गया है। गलवान घाटी की घटना ने इसे सिद्ध भी कर दिया है।

धोखा देना चीन की फितरत में हैं। वह कभी हमारा पड़ोसी नहीं रहा। पड़ोसी तो तिब्बत है। चीनी सेना ने सन् 1962 के बाद कोई युद्ध नहीं लड़ा। हमारी सेना ने सन् 1965, 1971 और 1999 के युद्ध लड़े हैं। चीन की धूर्तता की पराकाष्ठा है, बार-बार घुसपैठ करने की कोशिशें। भारत को नीचा दिखाना उसकी आदत में शामिल है। चीन की विस्तारवादी नीति गत पाँच हजार वर्षों से जारी है। ऐतिहासिक गल्तियाँ एक बार नहीं अनेकों बार काँग्रेसी शासन के दौरान हुयीं हैं। भारत ने फारमोसा (ताईवान) के स्थान पर लाल चीन को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने में सहयोग दिया। यह सहयोग अपने पैरों स्वयं कुल्हाड़ी मारने जैसा कृत्य था। इसके अलावा तिब्बत को चीन का भू-भाग मान लेना भी असाधारण किस्म की भूल थी।

वर्तमान समय में चीन अपने चालाकी भरे दाँव भले ही चलता हो लेकिन भारत की बढ़ती हुयी ताकत और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राप्त हो रही लोकप्रियता के मद्देनजर वह भारत से युद्ध की बात सोचने में दस बार उसका माथा ठनकेगा?

चीन की अतिक्रमण वाली चालें अभी रूकी नहीं है। अभी हाल में लद्दाख और उत्तराखण्ड के बाद चीन अरूणाचल प्रदेश में भी अपनी गतिविधियाँ बढ़ा रहा है। इस प्रदेश के तवाँग सेक्टर में गत सप्ताह भारतीय जवानों की चीनी सैनिकों के साथ झड़प हो गयी थी। कुछ घंटों तक तनातनी की स्थिति बनी रही। चीन लगभग 200 सैनिक तिब्बत की तरफ से भारतीय सीमा में घुस आये थे, जिन्हें भारतीय जवानों ने खदेड़ दिया था। इसके पहले गत 30 अगस्त को चीन के 100 सैनिकों को उत्तराखण्ड के बाराहोती सेक्टर में घुसपैठ की थी और लौटने के पहले एक पुल भी तोड़ दिया था।

अमेरिका में क्वाड देशों की बैठक के बाद से चीन के माथे पर चिन्ता की रेखायें बढ़ी हैं। समुद्री सीमाओं में चीन के दखल को रोकने क्वाड देशों ने सख्ती दिखायी है। अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने आक्स समझौता किया है जिसे चीन के विस्तारवाद के खिलाफ महागठबंधन माना जा रहा है। ऑक्स समझौता क्वाड शिखर सम्मेलन से ठीक पहले सम्पन्न होने से एक अलग संदेश गया है। वैसे भी चीन क्वाड और ऑक्स को अपने खिलाफ वैश्विक संगठन ही मान रहा है। उसका ऐसा सोचना सम्भवतः ठीक भी है, क्योंकि अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने चीन की चालबाजियों को मद्देनजर रखकर उस पर नकेल कसनें के उपाय के तौर पर ऐंग्लो सैन्य गठबंधन का स्वरूप दिया है।

अफगानिस्तान में आतंकी गुट तालिबान के सत्ता में आने के बाद से जिस तरह पाक व चीन द्वारा तालिबानी सत्ता के साथ पींगें बढ़ा रहा है, उससे मध्य एशिया में आतंकवाद व इस्लामिक कट्टरवाद बढ़ने के लक्षण नजर आने लगे हैं। जिस तरह से पाकिस्तान भारत के खिलाफ षड़यंत्र रचता रहा है, उसे दृष्टि में रखते हुये कश्मीर सहित सीमावर्ती क्षेत्रों में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ने न देने के लिये भारत की चिन्ता कों जायज ही माना जाना चाहिये।

चीन के अड़ियल रूख के चलते 13 वें दौर की वार्ता भी बेनतीजा रही। एल.ए.सी. के साथ ही लम्बे समय से लम्बित मुद्दों में दौलत बेग ओल्डी और डेमचैक इलाकों में बने गतिरोध को खत्म करने पर वार्ता केन्द्रित थी। भारत ने जोर देकर कहा है कि चीन ने द्विपक्षीय समझौतों का उल्लंघन कर वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथा स्थिति को बदलने की कोशिश की है पिछले दौर की बातचीत के आधार पर दोनों पक्षों ने पेंगांगत्सों और गोगरा क्षेत्रों से अपने सैनिकों को पीछे हटा लिया है। लेकिन देण्सांग और डेम चैक के क्षेत्रों को लेकर कोई सहमति नहीं बन पायी है।

सामरिक दृष्टि से यदि नजर डालें तो सहज ही समझ में आ जाता है कि कश्मीर में सेना आतंकियों को मुँहतोड़ जबाव देने में सक्षम है, वहीं डेपसांग क्षेत्र में उसने चीन को भयभीत कर रखा है। दूसरी तरफ ताईवान में अमेरिकी पहल के चलते चीन को करारा जबाव मिल चुका है। वही वह श्रीलंका में बाजी पलट जाने और श्रीलंका में भारत को मिले महत्व के परिणाम स्वरूप उसकी नींद उड़ी हुयी है। स्वाभाविक रूप से क्वाड़ याने भारत, अमेरिका- रूस की बढ़ती नजदीकियाँ उसे कुछ ज्यादा ही परेशान कर रही है।

अब दक्षिण ऐशिया में उसे आतंक का सहारा देने वाले पाकिस्तान पर ही उसकी निगाहें टिकी हुयी हैं, जहाँ से चीन और पाकिस्तान की मिली जुड़ी षाड़यांत्रिक हरकतें सामने आती रहती हैं। जैसे-जैसे चीन अपने अड़ियल रवैये के कारण विश्व में अपना प्रभाव खोता जा रहा है, वहीं अमेरिका अपने क्षेत्रीय सहयोगियों को साथ लेकर जबाव देने की तैयारी में जुट गया है। अंतर्राष्ट्रीय जगत में ताईवान को बड़ी सहानुभूति मिल रही है, गत वर्षां ऐसा माहौल नहीं बन सका था।

जहाँ तक चीन का सवाल है भारत के मामले में उसका अड़ियल रूख स्वयं उसकी राह काँटें भरी बना रहा है। वैसे भी उसने भारत के नक्शे की परवाह नहीं की। उसकी दूसरों की जमीन  हथिया लेने की नीति रही हैं लेकिन इस बार भरत के बदले हुये रूख के कारण उसे परेशानी झेलना पड़ रही है। चीन से कम्पनियाँ भाग भी रही हैं।

चीन की नीयत और सोच में बदलाव आयेगा-ऐसा विश्वास कर लेना कठिन है। वार्ता की सफलता की बुनियादी कड़ी है चीन ने भारत के जिस भू भाग पर कब्जा किया था, उसे वह खाली करे। सन् 1962 के युद्ध में चीन ने तवांग पर कब्जा कर लिया था और बाराहोती में भी काफी आगे बढ़ आया था।

लेखक:- डॉ. किशन कछवाह