भारत अनेक धर्मों का पवित्र गृह है। इन धर्मों ने मनुष्य जाति को जीवन जीने की सच्ची राह दिखलाई है। जैन धर्म भारत की पवित्र भूमि में जन्मा पवित्र धर्म और विश्वव्यापी दर्शन है।
‘जैन’ कहते हैं उन्हें, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों। ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने-जीतना। ‘जिन’ माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’।
जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान का धर्म। ‘जैन धर्म’ का अर्थ है- ‘जिन का प्रवर्तित धर्म। महावीर 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर हैं और उनके द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म के स्वरूप का ही पालन आज उनके अनुयायियों द्वारा किया जाता है। महावीर स्वामी के अनेक नाम हैं-
अर्हत, जिन, वर्धमान, निग्र्र्र्रथ, महावीर, अतिवीर आदि, इनके ‘जिन’ नाम से ही आगे चलकर इस धर्म का नाम ‘जैन धर्म’ पड़ा। जिन भगवान के अनुयायी जैन कहलाते हैं और उनकी मान्यता के अनुसार जैन धर्म अनादिकाल से चला आ रहा है
और इसका प्रचार करने के लिए समय-समय पर तीर्थंकरों का आविर्भाव होता रहता है। महावीर अपनी इन्द्रियों को वश में करने के कारण ‘जिन’ कहलाये एवं पराक्रम के कारण ‘महावीर’ के नाम से विख्यात हुए।
महावीर का जन्म वैशाली (बिहार) के एक राज परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशिला था। बचपन से ही वे 23वें तीर्थकर पाश्र्वनाथ की आध्यात्मिक शिक्षाओं से अत्यधिक प्रभावित थे।
एक राजा के पुत्र के रूप में युद्ध के बारे में उनका विचार भिन्न प्रकार का था। वे क्रोध, मोह, लालच, विलासिता पूर्ण वस्तुओं आदि पर विजय पाना सच्ची विजय मानते थे। वे आरामदायक और विलासपूर्ण जीवन पसंद नहीं करते थे। उनका विश्वास एक न्यायपूर्ण प्रजातंत्र में था।
महावीर जैसे-जैसे बड़े हुए उनका ध्यान समाज में फैले छूआछूत, भेदभाव, धार्मिक रूढ़िवादिता, अन्याय, गरीबी, दुखों तथा रोगों की पीड़ा की तरफ ज्यादा खिंचने लगा। इन्हीं सब बातों ने महावीर के मस्तिष्क में कोलाहल मचा रखा था।
वह समय देश की संस्कृति के इतिहास का अंधकारमय काल था। एक राजा के घर में पैदा होने के बाद भी महावीर जी ने युवाकाल में अपने घर को त्याग कर वन में जाकर आत्मिक आनन्द को पाने का रास्ता चुना।
सालवृक्ष के नीचे 12 वर्षों के तप के बाद उन्हें ‘कैवल्य’ ज्ञान (सर्वोच्च ज्ञान) की प्राप्ति हुई। विश्वबंधुत्व और समानता का आलोक फैलाने वाले महावीर स्वामी, 72 वर्ष की आयु में पावापुरी (बिहार) में निर्वाण को प्राप्त हुये।
ऐसा कहा जाता है कि- उन्होंने घोर तपस्या की और एक भटकते हुए साधु का जीवन अपना लिया। सत्य की तलाश में वह लंबे बारह वर्षों तक संघर्ष करता रहा। उन्होंने अपने शरीर को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय सभी प्रकार के दर्द के अधीन किया।
जैन ग्रंथ में एक वर्णन के अनुसार: “वह नग्न और बेघर भटक गए। लोगों ने उसे मारा और उसका मजाक उड़ाया। वह अपने ध्यान में लगे रहे। लद्दा में, निवासियों ने उसे सताया और कुत्तों को उस पर बिठाया। उन्होंने डंडे और पैरों से पीटा, और फल, पृथ्वी के गट्ठर और उस पर गमले फेंके।
उन्होंने ध्यान में सभी प्रकार की पीड़ाओं से विचलित कर दिया। लेकिन युद्ध में सबसे आगे एक नायक की तरह, महावीर ने यह सब समझ लिया। वह घायल थे या नहीं, उन्होंने कभी भी चिकित्सा सहायता नहीं मांगी। किसी प्रकार की दवाइयाँ नहीं लीं; उन्होंने कभी धोया नहीं,
स्नान नहीं किया और कभी अपने दांत साफ नहीं किए। सर्दियों में, उन्होंने छाया में ध्यान लगाया; तपती गर्मी में खुद को चिलचिलाती धूप में बैठा लिया। अक्सर वे महीनों तक पानी नहीं पीते था। कभी-कभी वह हर छठे, आठवें, दसवें या बारहवें दिन भोजन लेते थे और बिना लालसा के अपना ध्यान रखता थे ”।
वर्धमान जिस दौर से गुजरा थे, ऐसी ही कठिनाई का जीवन था। अंत में, तपस्या के तेरहवें वर्ष में, उन्हें ज्ञान या सर्वोच्च ज्ञान या केवला ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके साथ ही वह जैन या विजेता, महावीर या महान नायक और केवलिन या ऑल नोइंग बन गए।
सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त करने के बाद महावीर जी ने तीस वर्षों तक अपने विश्वास का प्रचार किया। उन्होंने दूर-दूर की यात्रा की और मिथिला, श्रावस्ती, चम्पा, वैशाली और राजगृह जैसी जगहों का दौरा किया। राजाओं और आम लोगों ने भक्ति के साथ उनके सिद्धांतों को सुना।
शासकों में, राजा बिंबिसार और अजातशत्रु ने उन्हें बहुत सम्मान दिया। जैन स्रोतों से ज्ञात होता है कि वे कलिंग के रूप में आए थे और कुमारी पहाड़ी (भुवनेश्वर के पास उदयगिरि पहाड़ी) से उड़ीसा के लोगों के लिए अपने सिद्धांतों का प्रचार किया।
हर जगह, आम लोगों के साथ-साथ राजाओं ने भी उनकी बात सुनी। उनके प्रवचनों को सम्मानित किया गया था। भटकते हुए और अपने सुसमाचार को अथक रूप से प्रचारित करते हुए, महावीर का 72 वर्ष की आयु में राजगृह शहर के पास पावा नामक स्थान पर निधन हो गया।
उनका उल्लेखनीय जीवन तपस्या, पवित्रता और नैतिकता का उदाहरण था। महावीर को वीर, अतिवीर और सन्मती के नाम से भी जाना जाता है. वे महावीर स्वामी ही थे, जिनके कारण ही 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों ने एक विशाल धर्म ‘जैन धर्म’ का रूप धारण किया।
भगवान महावीर के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में कई मत प्रचलित है, लेकिन उनके भारत में अवतरण को लेकर वे एक मत है। भगवान महावीर के कार्यकाल को ईराक के जराथ्रुस्ट, फिलिस्तीन के जिरेमिया, चीन के कन्फ्यूसियस तथा लाओत्से और युनान के पाइथोगोरस, प्लेटो और सुकरात के समकालीन मानते हैं।
भारत वर्ष को भगवान महावीर ने गहरे तक प्रभावित किया। उनकी शिक्षाओं से तत्कालीन राजवंश खासे प्रभावित हुए और ढेरों राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया। बिम्बसार और चंद्रगुप्त मौर्य का नाम इन राजवंशों में प्रमुखता से लिया जा सकता है,
जो जैन धर्म के अनुयायी बने। भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया। उन्होंने तत्कालीन हिन्दु समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको समान मानने पर जोर दिया। उन्होंने जियो और जीने दो के सिद्धान्त पर जोर दिया।
सबको एक समान नजर में देखने वाले भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थे। वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थे। भगवान महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पाच महाव्रत, पाच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया.
महावीर स्वामी जी ने यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु-पक्षी तथा नर की बाली का पूर्ण रूप से विरोध किया तथा सभी जाती और धर्म के लोगो को धर्म पालन का अधिकार बतलाया। महावीर स्वामी जी ने उस समय जाती-पाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये।
भगवान महावीर द्वारा दिए गए पंचशील सिद्धान्त ही जैन धर्म का आधार बने है। इस सिद्धान्त को अपना कर ही एक अनुयायी सच्चा जैन अनुयायी बन सकता है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पंचशील कहा जाता है।
सत्य– भगवान महावीर ने सत्य को महान बताया है. उनके अनुसार, सत्य इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है और एक अच्छे इंसान को किसी भी हालत में सच का साथ नहीं छोड़ना चाहिए. एक बेहतर इंसान बनने के लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति में सच बोला जाए।
अहिंसा– दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए। जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें। अहिंसा का पालन करें।
अस्तेय– दूसरों की वस्तुओं को चुराना और दूसरों की चीजों की इच्छा करना महापाप है। जो मिला है उसमें ही संतुष्ट रहें।
ब्रह्मचर्य– महावीर जी के अनुसार जीवन में ब्रहमचर्य का पालन करना सबसे कठिन है, जो भी मनुष्य इसको अपने जीवन में स्थान देता है, वो मोक्ष प्राप्त करता है।
अपरिग्रह- ये दुनिया नश्वर है। चीजों के प्रति मोह ही आपके दु:खों को कारण है। सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज का मोह नहीं करते हैं।
जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का जीवन उनके जन्म के ढाई हजार साल भी उनके लाखों अनुयायियों के साथ ही पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है।