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जीवन मे श्रीमदभागद्गीता

श्रीमद्भगवद् गीता जीवन की समस्याओ से बाहर निकालने और जीवन के मार्ग पर भटके जनों को परमार्थ की ओर ले जाने वाला, व्यक्ति का उद्धारक महामंत्र है। यह विषाद से समाधान की ओर, निराशा से उत्साह की ओर अस्थिरता से स्थिरता की, ओर संशय से निश्चिन्तता की ओर मनुष्य को भयमुक्त  कर मोक्ष की दिशा बतलाने वाली विलक्षण ब्रह्मवाणी है।

गीता एक अलौकिक धर्मग्रंथ है जिसके अध्ययन, चिन्तन-मनन से अनुभूतियाँ होती हैं। सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये भारत द्वारा प्रदत्त यह अनुपम उपहार है। जिस दिन गीता का तत्व ज्ञान हमारे जीवन में परिभाषित होने लगेगा उस दिन मानव-मानव में स्त्री-पुरूष, पशु-पक्षियों के बीच के भेदभाव तो छोड़िये, किसी भी प्रकार का विकार मस्तिष्क को प्रभावित नहीं कर पायेगा-ऐसा चमत्कारिक ग्रंथ  है-श्रीमद्भगवद् गीता।

यूनिवर्सिटी ऑफ मियामी में मनोविज्ञान विभाग के प्राध्यापक मैक कुलफ आठ दशकों तक लगातार ‘‘भारतीय धर्म’’ विषय को लेकर अध्ययन रत रहे। उन्होंने अपने निष्कर्ष का उल्लेख इन शब्दों में किया है- जब व्यक्ति का उद्देश्य अत्यन्त पवित्र होता है और वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ता है, जब उसकी ऊर्जा शक्ति तीव्र होने लगती है। जैसे जैसे उसकी पूजा, अर्चना, ध्यान की स्थिति एकाग्र होने लगती है, उस स्थिति में उसका प्रभाव मस्तिष्क के उस हिस्से पर पड़ता है, जहाँ से व्यक्ति स्वयं पर नियंत्रण करने का सामस्र्थ प्राप्त कर लेता है। उसकी यह मनः स्थिति बन जाती है कि उसे ईश्वर का सानिध्य प्राप्त हो गया है। यही स्थिति कल्याण कारक है। इसी का निर्देश भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय 34वे श्लोक के माध्यम से दिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता-जीवन में प्रेरणा स्त्रोत - The JAI

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तभ्मा देतत्त्रयं त्यजेत्।।

(गीता 16/21) आत्मा को अधोगति की ओर ले जाने वाले सब प्रकार के (अनर्थों के उद्गम) नरक के तीन द्वार हैं-काम, क्रोध और लोभ। अतः मनुष्य को इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये। कर्म मार्ग का अवरोधक काम है। काम से कर्म का नाश होता है। लोभ भक्ति व श्रद्धा का विनाश करता है और क्रोध से ज्ञान नष्ट हो जाता है। विवेक, संतोष और वैराग्य क्रमशः काम, लोभ और क्रोध का शमन करते हैं।

श्रद्धावाॅल्लमते ज्ञानं तत्परः संयेतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परा शान्तिचिरेणाधि गछति।।

(गीता-4/39) जो श्रद्धालु दिव्य ज्ञान में समर्पित हैं और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है।

श्रीमद्भगवद् गीता किसी सामान्य व्यक्ति का उपदेश नहीं है, बल्कि यह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुख से कही गयी है और इसके कहते समय भगवान स्वयं अपने परमात्मा-स्वरूप में स्थित थे।

इस ग्रंथ में सबसे मुख्य उपदेश हैं- धर्म का। आज मनुष्य का जीवन धर्म से भटका हुआ है और दुर्भाग्य-पूर्ण परिस्थिति यह बन गयी है कि वह धर्म से विमुख होकर जो भी कृत्य कर रहा है,  उसे भी धर्मसंगत ही मानता है। श्रीमद्भगवद् गीता हमें स्मरण दिलाती है-धर्म क्षेत्रे, कुरूक्षेत्रे, जिसको हम कर्मभूमि कहते हैं, कर्मक्षेत्र कहते हैं, वह धर्मभूमि भी है। व्यक्ति कर्म को धर्म से अलग करने का प्रयास न करे अगर प्रयास होगा तो महाभारत जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी और उसका परिणाम विनाश सुनिश्चित है।

जीवन को चरम विकास की स्थिति तक पहुँचाने तथा पूर्ण समुन्नत करने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को दो अमूल्य रत्न दिये हैं- 1. गौ और 2- गीता। प्रथम को यदि शारीरिक -स्वास्थ्य और बुद्धि का मूल कहें तो द्वितीय को आत्मिक विकास के लिये संजीवनामृत कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

गीता में सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन का सार निहित है। इस सार को समझ लेने के उपरान्त भारतीय चिन्तन के सभी पक्षों को समझ लेना आसान हो जाता है। हमें परमात्मा का भक्त तो होना चाहिये पर साथ ही परमात्मा को समझने और उसे पाने का प्रयास भी करना चाहिये। गीता जिस विषय पर सबसे अधिक प्रकाश डालती है, वह है मनुष्य के मन का अतिरिक्त संसार और उसके विविध आयाम। हम कौन हैं, क्या हैं, इस धरा पर जन्म क्यों मिला है? हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? हमारा कर्तव्य क्या है? हम दुःखों से छुटकारा कैसे पा सकते हैं?

श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सम्भवत्ः पहली बार कर्मयोग की इतनी स्पष्ट व्याख्या की है, जो अन्यत्र किसी शास्त्र में उपलब्ध नहीं है। कर्म हमें बाँधता है, कर्म की अविराम श्रृंखला है। जो कर्म हमारे द्वारा किये जाते हैं, उनका परिणाम भोगने हम विवश हैं, फिर वे शुभ हों या अशुभ। अध्याच-2 के चालीसवें श्लोक में उन्होंने कहा है कि ‘‘थोड़ा सा भी इस धर्म मार्ग का आचरण हमें जीवन-स्मरण के महान भय से मुक्ति दे सकता है।’’

श्रीमद्भगवद् गीता में ज्ञान को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। कर्मयोगी का आत्मसाक्षात्कार ज्ञान के बिना असम्भव है। सम्पूर्ण कर्मों की पराकाष्ठा ज्ञान ही है। ज्ञान के बिना इच्छा तथा आसक्ति का त्याग सम्भव नहीं है।

लेखक:- डाॅ. किशन कछवाहा