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जेवनारा का महादेव मेला…!

सभ्यता रूपी शरीर की आत्मा यदि संस्कृति है और आत्मा का लक्ष्य परमानन्द को प्राप्त करना है तो उस परमानन्द की प्राप्ति का अभ्यास हिन्दू अपने जीवन में अपने तीज- त्यौहार, परम्परा, संस्कार तथा दस्तूरों में सतत करते रहता है। राष्ट्र की आत्मा उसकी संस्कृति, उसमें उत्पन्न उसके जन्म के संस्कारों से पल्लवित एवं पुष्पित हो अपनी सुगंध को इस विराट वसुंधरा पर प्रसारित करती है।
प्राचीन काल से हमारा देश भारत कृषि प्रधान देश रहा है कृषि कार्य में रत कृषक ने समय-समय पर अपने आनन्द के लिए समयोनुकुल तथा रितु अनुकूल अपने तीज-त्यौहारों का सृजन स्वविवेक से किया है। इस सनातन भारत में आध्यात्म की प्रधानता सनातनी है इसीलिए आध्यात्म के मार्ग को सनातन धर्म का नाम दे दिया गया है और स्वतः ही हमारी संस्कृति सनातनी बन गई है- कवि ने ठीक ही कहा है-
यहां उठे स्वाहा के स्वर और यहां स्वधा के मंत्र बने,
ऐसा प्यारा देश पुरातन ज्ञान निधान हमारा है,
हिन्दुस्तान हमारा है यह भारत वर्ष हमारा है।
प्रकृति के सानिध्य में पले हमारे संस्कार और हमारे दस्तूर आज भी हमारे धर्म-कर्म में सर्वत्र विद्यमान हैं। आध्यात्म एवं आनंद को समेटे हुए सांस्कृतिक एकता का विराट स्वरूप हमें हमारे देश में लगने वाले महाकुंभों में दिखाई देता है और उसी के लघु स्वरूप को हम अपने गांवों में लगने वाले मढ़ई-मेले में भी अनुभव कर सकते हैं।
गांव में लगने वाले मढ़ई-मेले एक ओर ग्रामीण जनों की खुशी को प्रकट करते हैं तो दूसरी ओर आध्यात्म से जोड़कर राष्ट्रीय एकता को परिपक्व बनाते हैं। जिस मेले का वर्णन मैं कर रहा हूँ उसका नाम है “जेवनारा का महादेव मेला’। इसे पढ़ने के बाद आप निश्चित ही इस बात पर मतैक्य होंगे कि भारत की सांस्कृतिक एकता की जड़ें कितनी गहराई से इसे पोषित कर रही हैं।
मध्यप्रदेश  के सिवनी जिले की एक तहसील है बरघाट। सिवनी से बालाघाट रोड पर 23 कि.मी.दूर बरघाट से 4 कि.मी. पश्चिम में इसी रोड पर ग्राम है जेवनारा महाशिवरात्रि के पुण्य काल में इस जेवनारा ग्राम में वर्षो-वर्षों से उदिवसीय मेले का शुभारंभ महाशिवरात्रि के दिन से मां बैनगंगा की सह गर्भिणी हिर्रा नदी के पावन तट पर होता है। हिर्रा नदी के तट पर प्राकृतिक शिवलिंग पाषाण की कंदराओं में पता नहीं कब से मान्यता प्राप्त कर पूज्यनीय एवं दर्शनीय बना हुआ है।
महाशिवरात्रि के अवसर पर इस स्थान की धार्मिकता कई गुना बढ़ जाती। इस दिन दूर-दूर से लोग पवित्र नदी में स्नान कर तथा शिवलिंग का पूजन अर्चन कर अपने व्रत की सार्थकता समझते हैं। स्थानीय लोग जेवनारा के महादेव मेले में आकर मिलने वाली संतुष्टि में, हरिद्वार में गंगा स्नान से मिलने वाली संतुष्टि की कल्पना करते हैं ऐसे अवसर पर संत शिरोमणि रविदास जी महाराज की वाणी “मन चंगा तो कठौती में गंगा” चरितार्थ होती दिखाई देती है।
जेवनारा का महादेव मेला पूर्णतः भूत भावन भगवान शंकर को समर्पित है भगवान शंकर से मांगी गई मनौती के पूर्ण होने पर भक्त, भोला शंकर का नांदिया (नंदी) अपने घर से सजाकर लाते हैं अपने घर में जन्में बैल को भक्त अपने परिवार एवं रिश्तेदारों के साथ नांदिया बनाकर लाता है यह रिवाज अत्यंत भावुक होता है। नांदिया के लिए घर में उसी प्रकार संस्कार किये जाते हैं जैसे कोई वर (दुल्हा) के वधु बिहाने ससुराल जाते समय होते हैं।
इस समय क्षेत्रीय जन अपने बनाये नांदिया में भगवान के नंदी का दर्शन कर अत्यंत रोमांचित होते हैं नाचते गाते हुए नांदिया को लेकर शीघ्र भगवान शिव के निवास स्थान पर अर्थात मेला स्थान पर ले जाना चाहते हैं उन्हें ऐसा लगता है कि हमारे नंदी के बिना हमारे प्रभु का विवाह नहीं हो पायेगा इसकी झलक उस समय मराठी मिश्रित स्थानीय भाषा में गाये जाने वाले गीतों में मिलती है जिसे पांच पावली कहते हैं जैसे-
देवा गा मांझे-s , जातु शंभु चा भेटीला-s
जातु शंभु चा भेटीला-s शंभु गणावर आहे पानी चा कुंड, तेथी करिन अहोंगर,
करिन शंभु सग भेट, शंभु च होते स्वयंबर, शंभु बसला नंदीवरअ ।
वाट पाहे शिवशंकरअ, वाट पाहे गौरानारअ।।
भगतों के द्वारा इस महादेव मेला में शिव के कैलाश की, माता गंगा की, उसके पवित्र जल के द्वारा अपने को पवित्र करने तत्पश्चात प्रभु से भेंट कर उसकी सवारी नांदिया को समर्पित करने की इस भोली भक्ति में श्रद्धा एवं समर्पण की असीम गहराई का अनुभव ज्ञानी लोग कर सकते हैं।
जेवनारा का महादेव मेला स्थानीय लोगों के लिए सबसे बड़ा तीर्थ है उन्हें यहां पहुंचने पर शिव की कल्याणी काशी का आनन्द प्राप्त होता है इसलिए भगत अपनी बहिन से कहता है- मैं सब कुछ छोड़कर काशी तीर्थ की यात्रा में जा रहा हूँ शिव मेरी राह देख रहे हैं जैसे- बहिनी गा मांझी… तुझा बंधु जाते काशी तीर्थाला, छोड़ जातु महाल माड़ी।
वाट पाहे भोला शंकरअ, वाट पाहे गौरा नारअ।।
भगत अपने परिवार एवं नांदिया के साथ मेले में पहुंचकर भगवान शिव के दरब में नांदिया को उपस्थित कर पूजन अर्चन करता है जिसे देव परसना कहते हैं मन ही मन अपने स्वामी से निवेदन करता है कि प्रभु हमने जो वचन आपसे कहा था उसे पूर्ण कर आपका नांदिया उपस्थित कर दिया है शीघ्र बरात की तैयारी करें माता गौरा आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रही है-
क्षेत्र के स्थानीय लोग नंदी बनाये गये बैल में सदैव शिव के नंदी के स्वरूप को मानकर मत्यु पर्यन्त अपने घर में बिना किसी काम में लिये पालते हैं मृत्यु पर उसकी मृत देह को माटी में गाड़कर पूर्ण श्रद्धा एवं पवित्रता के साथ अंतिम संस्कार कर तीर्थ भोज कराते हैं आज के युग में श्रद्धा का यह अप्रतिम उदाहरण है।
1889 से इस मेले को जेवनारा के मालगुजार इंकाप्रसाद राहंगडाले के द्वारा सुव्यवस्थित करने के बाद लगातार इसकी भव्यता में वृद्धि होती गई है वर्तमान में ग्राम की मेला समिति, इसकी व्यवस्था की देख-रेख करती है यह मेला धार्मिकता के साथ आधुनिक ज्ञान, विज्ञान की जागृति का भी केन्द्र बनते जा रहा है। कृषि से संबंधित प्रदर्शनी, स्काउट के केम्प, बैल जोड़ी की दौड़ प्रतियोगिता आदि का आयोजन इसी कालखण्ड में करके लोगों का मनोरंजन एवं मार्गदर्शन किया जा रहा है।
शंकराचार्य स्वरूपानंद जी सरस्वती महाराज के प्रवचनों का लाभ लगातार तीन दिन तक 1973 में जनता ने इस स्थान पर प्राप्त कर चुका है। शस्य श्यामला से सुसज्जित सिवनी जिले का बरघाट क्षेत्र और बरघाट क्षेत्र में धान की खेती से अपनी आर्थिक व्यवस्था को मजबूत करने वाले मजदूर किसान जेवनारा के महादेव मेला में शिवरात्रि के अवसर पर पहुंचकर अपने भाग्य को धन्य समझते हैं।
उनके द्वारा सृजित यह मेला उनका अपना है उसमें पहुंचकर वे एकात्मकता का अनुभव करते हैं। हमारे समाज के कृषक तथा मजदूरों की उस उच्च विचारधारा को यह मेला प्रदर्शित करता है जिसका वर्णन ऋषियों ने ऋग्वेद में किया है। “कारूरहं ततो भिषगुपल प्रक्षिणी नना’। अर्थात भारत का किसान आधिभौतिक स्तर पर कृषक या श्रमिक है तो आध्यात्मिक स्तर पर मंत्रदृष्टा या ऋषि भी है।
“हर बला हर हर महादेव’ के उद्घोष से गुंजायमान जेवनारा का महादेव मेला सामाजिक श्रद्धा, सद्भावना एवं आत्मिक उन्नति की धरोहर है इसकी पवित्रता एवं स्थायित्व को बनाये रखना वर्तमान पीढ़ी का कर्तव्य है।

 

 

 

लेखक:- हरकचंद टेमरे