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ज्ञानवापी भारतीय दर्शन एवं संस्कृति का दर्पण है

ज्ञानवापी मंदिर का सत्य प्रकट हो चुका है। सर्वें के दौरान सब कुछ साफ हो गया है। सत्य तो सत्य होता है। 7 मई 1679 का एक दस्तावेज जो राजस्थान के बीकानेर संग्रहालय में संग्रहीत कर रखा हुआ है, उसमें विस्तार से इस तथ्य का उल्लेख मिलता है कि औरंगजेब ने हमारे हिन्दू-मंदिरों को तोड़कर उनमें स्थापित राम-कृष्ण, शिव-पार्वती की मूर्तियों को जामामस्जिद की सीढ़ियों में दबाया गया है।

डाॅ. अम्बेडकर ने भी इतिहासकार अल-उतवी की पुस्तक का उल्लेख का संदर्भ दिया है, जिसमें  लिखा है कि ‘‘उसने (गजनी) ने मूर्तियों को तोड़ा और इस्लाम की स्थापना की, उसने शहरों पर अधिकार जमाया हिन्दुओं की हत्यायें की, मूर्तिपूजकों को कठोर से कठोर दंड दिये।’’

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इसी तरह इतिहासकार हसन निजामी ने भी लिखा है- ‘उन्होंने (मुहम्मदगौरी) अपनी तलवार से हिन्द को कुपर की गंदगी से साफ किया और पाप से मुक्त किया। (बहुदेववाद के अंतर्गत चल रही पूजा पद्धति को समाप्त कराया-मूर्तिपूजा की अपवित्रता से पाक किया।)’ उसने अपने शाही शौर्य और साहस का प्रदर्शन करते हुये एक भी मंदिर को खड़ा नहीं रहने दिया।

सदियों बाद आज ज्ञानवापी मंदिर मुद्दा बना है। यह इतिहास का विषय है। इस सच्चाई को ज्यादा दिनों तक छिपा के रखा भी नही जा सकता। ज्ञानवापी का अर्थ होता है, ज्ञान प्राप्ति का स्थान। वापी याने कूप या कुण्ड। जहाँ ज्ञान का भंडार विद्यमान हो। हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथ ‘स्कन्द पुराण’ जो सातवीं शताब्दी की रचना है, उसमें शिव मंदिर, ज्ञानवापी मंदिर का उल्लेख मिलता है।

मुस्लिमों का कथन और दलीलें, यहां गलत हो जाती हैं। हिन्दू पहले से थे, मुगल बाद में आये, वे हमलावर थे, आक्रान्ता थे, लूट-पाट करने वाले थे। मुस्लिम आक्रान्ताओं का लम्बा इतिहास है। उक्त ग्रंथ की रचना होने के कई सौ वर्षों के बाद मुस्लिम आक्रान्ता भारत आये। तब ये सब देव स्थान मुस्लिमों के कैसे हो गये? बल्कि उन्होंने अत्याचार किये, हिन्दुओं की पहचान नष्ट करने का घोर पाप किया, भारतीय संस्कृति का नष्ट-भृष्ट करने की जी-जान से कोशिश करने अनेकानेक प्रकार के दुष्कृत्य किये। इन मंदिरों के भीतर पायी जा रही खण्डित मूर्तियाँ और हिन्दू चित्र इस्लामिक अत्याचार के साक्षी हैं।

ज्ञानवापी मंदिर में सन् 1947 में भी पूजा हो रही थी, सन् 1991 में भी। यदि हिन्दू पूजक सैकड़ों वर्षों से अपनी आस्था व्यक्त कर रहा था, वह आस्था आज भी बनी हुयी है।

आज जो मुसलमान विरोध कर रहें, वे भी दो-चार-छैः पीढ़ियों पहलूे हिन्दू थे, उन्हें तलवार की दहशत दिखाकर या प्रलोभन देकर जबरन मुसलमान बनाया गया है। इसीलिये उन्हें चोर-लुटेरों आतंकी एवं आक्रान्ताओं के साथ अपना संबंध नहीं जोड़ना चाहिये, वे उनके पुरखे नहीं हो सकते। राजनैतिक रोटियाँ सेंकने के उद्देश्य से मुस्लिम युवाओं को उकसा रहे हैं-इसे सच्चाई के संदर्भ में समझा जाना चाहिये।

मंदिर के द्वार की ओर मुंह किये हुये नन्दी की मूर्ति का होना और उसके सामने की तरफ कुछ ही दूरी पर शिवजी की मूर्ति मिलना-स्पष्ट संकेत है कि यह वही स्थान है, जहाँ भगवान शिव की मूर्ति थी। यह अकाट्य सत्य है, इसका उल्लेख अनेकों धर्मग्रंथों में आया है। इसे भी झुठलाने की जो कोशिशें हो रही हैं, वे निसन्देह अनुचित एवं निन्दनीय ही है। यह विवाद का विषय होना ही नहीं चाहिये था।

इन विषयों पर मुसलमान इतिहासकारों ने भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि हिन्दू जिन्हें काफिर कहा जाता था, उनके साथ बड़ी बेरहमी बरती गयी थी। वहां मंदिर था, मंदिर है, और मंदिर ही रहेगा।

हिन्दुओं के मानबिन्दुओं के पुनस्र्थापित होने के लिये जागरण की प्रक्रिया तेजी से प्रारम्भ भी हो चुकी है, अब उसे विश्व की कोई भी ताकत रोक नहीं सकेगी। सदियों से हिन्दू आकांक्षाओं को दबाकर रखा गया था, ऐतिहासिक पक्ष से भी अवगत होने नहीं दिया गया, अब उसका प्रगटीकरण जन जन में हो रहा है। कुंयें के अंदर हुयी वीडियोग्राफी में शिवजी की मूर्ति झांकती सी स्पष्ट नजर आने लगी है। सभी शंकायें आशंकायें निर्मूल सिद्ध हो चुकी है। छिपाये जाने को अब शेष क्या रह गया है? सार्थक बहस का कोई मुद्दा शेष रह ही नहीं गया।

अब प्रश्न वहाँ उपस्थित होगा, जहां ज्ञानवापी इंतजामिया कमेटी के सचिव ने अदालत में जो चार तर्क पेश किये थे, उनकी गम्भीरता को समझा जाना है। ‘‘पहला तर्क यह था कि हम किसी गैर मुस्लिम को मस्जिद के अंदर घुसने नहीं देकंगे, दूसरा यह था कि कोर्ट ने हमारी बात नहीं सुनी इसलिये हम कोर्ट की बात नहीं सुनेंगे। तीसरा तर्क था मंदिर के अंदर की वीडियोग्राफी या फोटो खींचने से हमारी सुरक्षा को खतरा है। यह वीडियोग्राफी मार्केट में आ जायेगी चैथा अत्यन्त आपत्तिजनक तर्क था कि ऐसे तो यदि कोर्ट कहे कि मेरी गर्दन काट के ले आओ तो क्या कोर्ट द्वारा नियुक्त अधिकारी को मैं अपनी गर्दन काटकर दे दूँगा।’’ ऐसे तर्क कोई सभ्य समाज का व्यक्ति जो भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे के अन्दर रहता है, न्यायालय के सामने रखने का साहस कैसे कर सकता है? क्या उसकी मंशा न्यायालय के कार्य में हस्तक्षेप करना या व्यवधान उपस्थित करने की रही है? भले ही ये तर्क न्यायालय के लिये महत्व न रखते हों पर 800 साल से चले आ रहे आक्रांताओं के समर्थकों की मंशा, चरित्र व चेहरे  को तो उजागर करते ही हैं।

ऐसे ही भारत में अनेक तत्व हो सकते हैं, जो देश की राजनीति में अशांति और अस्थिरता पैदा करने की कोशिशों के अंतर्गत मुस्लिम युवाओं को उकसाने की चेष्टा करते हैं। वे केवल मुसलमानों के बारे में सोचते हैं, इतना ही नहीं जिहादियों और आतंकियों को भी प्रोत्साहित करते हैं।

पिछले वर्षों में भारत की अनेक मस्जिदों-मदरसों, में मिले गोला, बारूद, हथियार, बम, आतंकियों को छिपाया जाना आदि को क्या झुठलाया जा सकता है? सत्य की खोज के लिये न्यायालय ने एक कदम आगे बढ़कर अपने पावन कर्तव्य की शुरूआत की है, उसमें व्यवधान डालने की कोशिशें उचित नहीं है। भारतीय सच्चाई को स्वीकार कर लिया जाना समय की मांग है। बहकावे में आकर देश के आक्रान्ताओं के साथ अपना संबंध जोड़ना अहित कर ही सिद्ध होगा।

आज भारतीय ज्ञान सम्पदा और भारतीय संस्कृति को विश्व भी मान्यता देने में पीछे नहीं है। अमेंरिका ने स्वीकार किया है कि तुलसी और पीपल के वृक्षों में चमत्कारिक महत्व छिपा हुआ है। वे अत्यंत उपयोगी हैं।

घोर कम्युनिष्ट देश चीन ने भारत के दाहसंस्कार के महत्व को समझकर उसे उचित माना है। वहीं फ्रांस ने भारत के शंख से उत्पन्न  ध्वनि को अलौकिक और इजरायल ने यज्ञ की महत्ता को स्वीकार करते हुये कहा है कि इससे वायरस दूर रहते हैं। एलडोस हक्सली जैसे पाश्चात्य विद्वान एवं ईसाई प्रचारक ने भी हिन्दुत्व को शाश्वत दर्शन माना है।

औरंगजेब ने काशी के मंदिर के आगे के हिस्से में मस्जिद ही नही बनवायी। इसके साथ ही  हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनने मजबूर किया। वह भारतीय जनता पर इस्लामी शरीयत के कानून लागू करवाना चाहता था। उसने भारत की सर्वग्राही संस्कृति के मानकों को न केवल अपमानित किया था वरन् उन्हें अपमानित करते रहने का दुष्चक्र चलाया था। पौराणिक ग्रंथों में तो शिवलिंग होने के उल्लेख जगह-जगह मिलते ही हैं। ‘मासिर-ए-आलमगीरी’ से लेकर ‘वाराणसी वैभव’ तक में विश्वेश्वर मंदिर के विध्वंश का उल्लेख है।

ज्ञानवापी परिसर अकेला एक स्थल नहीं है, जहां सनातनी आस्था केन्द्र के प्रमाण बहुतायत से मिल रहे हैं। काशी में सेकड़ों स्थल विद्यमान हैं जिनकी बुनियादों और खंडहरों पर मस्जिदों और दरगाहों के कंगूरे चमक रहे हंैं। खोज का सिलसिला तो अब शुरू हुआ है।

ज्ञानवापी में श्रृंगार गौरी की पूजा सन् 1991 तक लगातार प्रतिदिन होती रही है। अभी भी यह पूजा वर्ष में दो बार होती है। ज्ञानवापी हिन्दुओं की गहन आस्था का प्रतीक स्थल है। उस अत्यन्त पवित्र स्थल का हाथ-पैर धोने और कुल्ला करने के लिये जाने-अनजाने में प्रयोग किया गया है। इन तथ्यों की जानकारी प्रकाश में आते ही हिन्दुओें की आस्था पर गहरी चोट पहुंची है, ये कृत्य सहनशीलता की हदों को पार करने वाले हैं इन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये। इस कूप के जल से काशी विश्वनाथ का जलाभिषेक किया जाता रहा है। ये मठ-मंदिर और इनमें विराजमान आकृतियाँ, मूर्तियाँ, इमारतें मामूली मिट्टी या पत्थर से बनी हुयी भले ही दिखाई देती हों, इन मूर्तियों में, इन मंदिरों में ईश्वर का विराट स्वरूप समाया हुआ है, भारतीयों की आत्मा, उसकी संस्कृति में बसती है।

इस प्रकार श्रृंखलाबद्ध किये विध्वंशों की पीड़ा को हिन्दु पीढ़ियों-दर पीढ़ी अपनी छाती से चिपकाये चली आ रही है। वे अत्याचारियों के अत्याचारों और जुल्मों को भूले भी नहीं हैं। भुूलाया जाना आसान भी नहीं है। सदियों से हिन्दू समाज उस दिन की प्रतीक्षा करता चला आ रहा है, जब हिन्दू शक्ति का जागरण होगा और अपनी अस्मिता की पुनः स्थापना करेगा।

मुस्लिम आक्रान्ता अपनी ताकत के घमंड में शायद यह भूल गये थे कि हिन्दू समाज के मन में राम, कृष्ण और शिव शक्ति के रूप में  विराजमान हैं। एक दिन हिन्दू जागेगा। ऐसा नहीं है कि इन आठ सौ वर्षों के कालखण्ड में इन आततायियों को चुनौती नहीं दी गयी। बराबर दी जाती रही है।  मराठी के प्रख्यात लेखक एवं ज्ञान पीठ पुरस्कार प्राप्त डाॅ. भालचन्द नेमाडे ने कहा था कि ‘‘हिन्दू संस्कृति ही पूरे विश्व को एक रख सकती है।’’ भारत में निवास करने वाले सभी हिन्दू हैं, मुसलमानों में भी एक बड़ी संख्या में लोग खुद को हिन्दू समझते हैं और हिन्दू रीतिरिवाजों के अनुसार चलते भी हैं।

लगभग 20 साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक भारतीय व विदेशी विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हुये तथा मोनियर विलियम्स को उद्घृत करते हुये अपने निर्णय में लिखा था कि ‘‘हिन्दुत्व विश्व भर के सभी लोगों को अपना लेने के विचार पर आधारित है।’’ इसने सदैव परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाला है और पिछले तीन हजार वर्षों से विभिन्न विचारों और पंथों को अपनाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है।

रूस के प्रसिद्ध साहित्यकार लियो टालस्ताय (1828-1910) ने कहा था कि ’’हिन्दू और हिन्दुत्व ही एक दिन दुनिया पर राज करेंगे, क्योंकि इन्हीं में ज्ञान और बुद्धि का संयोजन है।’’ इसी प्रकार अनेक पश्चिमी दार्शनिकों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं।

लेखक:- डॉ. किशन कछवाहा
सम्पर्क सुत्र:- 9424744170