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तुलसीदास जी कैसे हुए गोस्वामी तुलसीदास

श्रीरामचरित मानस के बालकांड में के 26 वे दोहे में तुलसीदास जी ने लिखा है –

नामु राम को कल्पतरु,
कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें,
तुलसी तुलसीदासु॥

अर्थात्- तुलसी बाबा ने अपने आराध्य भगवान श्री राम जी के राम नाम को कल्पतरु की संज्ञा दी है, जिनकी छाया में जाते ही मनुष्य की सभी कल्पनाएँ साकार होती हैं, पूर्ण होती है। जिन की शरण में जाकर शरणागत को कल्याण अर्थात् शिवत्व अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। तुलसी बाबा कहते हैं कि राम नाम के स्मरण मात्र से मेरे जैसा निकृष्ट तुलसीदास भी तुलसी दल की तरह पवित्र हो गया।

मानस के अतिरिक्त तुलसीदास जी के ऐसे कितने ग्रंथ है जिसमें उन्होंने अपने आराध्य देव भगवान श्री राम नाम की महिमा का वर्णन किया है, ऐसे में तुलसी बाबा के नाम के साथ गोस्वामी शब्द का प्रयोग किस प्रकार हुआ? जबकि सामान्य भाषा में गोस्वामी शब्द से तात्पर्य (गो+स्वामी) गायों का स्वामी से है। गायों के स्वामी का संकेत भगवान श्री कृष्ण की ओर जाता है।

आदि गुरु शंकराचार्य जी ने धर्म की हानि रोकने के लिए, गृहस्थ ऋषि समाज के लोगों में से एक नए संप्रदाय को प्रारंभ किया, जिन्हें गुसाईं या गोस्वामी या गोसाईं कहा गया।

यदि भारत के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें तो सन् 1168 से 1194 के लगभग काशी में गहडवाली राजा विजय चंद्र के पुत्र जयचंद्र जी ने राजपाट संभाल रखा था। यह वही जयचंद थे, जिनकी पुत्री संयोगिता से सम्राट पृथ्वीराज ने विवाह किया था।

जयचंद के वंश से संबंधित एक महिला थी जो बालविधवा थी और काशी में ही लोलार्क कुंड के पास श्री राधा कृष्ण मठ की स्वामिनी भी थी। इस मठ में एक गौशाला थी जिसमें लाखों की संख्या में गोवंश था किंतु मठ के महंत की स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण एक ओर श्री राधा कृष्ण जी की मूर्तियों के आभूषणों की चोरियाँ हो रही थी वहीं दूसरी ओर गोवंश भी कम हो रहा था।

मठ की स्वामिनी बहुत चिंतित हुई और इस विषय के संबंध में उन्होंने टोडरमल जी से बात की। टोडरमल जो अकबर के नौ रत्नों में से एक थे। टोडरमल जी ने यह बात तुलसीदास जी के वैदिक गुरु श्री शेष सनातन जी से कहीं और इस संबंध में उनसे विचार विमर्श किया जिसके पश्चात उनके गुरु जी ने तुलसीदास जी को मठ में जाकर देखरेख करने का आदेश दिया।

तुलसीदास जी गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके मठ की देखरेख करने के लिए कुछ काल तक मठ में रहे। तुलसीदास जी की देखरेख से मठ में सब सुचारू रूप से चलने लगा, गोवंश में भी अभिवृद्धि हुई मठ को सुव्यवस्थित करने के पश्चात् तुलसीदास जी ने अपने घर वापस जाने का विचार किया अतः उन्होंने मठ की स्वामिनी से मठ के महंत के दायित्व से मुक्त होने की बात की और वापस जाने की आज्ञा माँगी।

मठ स्वामिनी ने तुलसीदास जी से कुछ समय और रुकने का आग्रह किया किंतु सब व्यर्थ था। तब उन्होंने तुलसीदास जी को पारिश्रमिक देने का प्रयास किया जो तुलसीदास जी ने यह कह कर अस्वीकार कर दिया- यह मेरी सेवा थी चाकरी नहीं। हार कर मठ स्वामिनी ने उनसे आग्रह किया कि आप हमारे श्रीराधा कृष्ण मठ के महंत और गौशाला के प्रबंधक रहे हैं अतः मैं आपको गोस्वामी उपरोक्त पदवी प्रदान करना चाहती हूँ।

तुलसीदास जी ने मंदिर के महंत और प्रबंधक होने के नाते “गोस्वामी” उपरोक्त उपाधि को आजीवन स्वीकार करने का वचन दिया और श्रीराधा कृष्ण मठ से विदा ली। तभी से तुलसीदास जी गोस्वामी तुलसीदास हुए।

एक और मत के अनुसार उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पुरोहित वंश को गोसाईं कहा जाता था। आपके पिताजी श्री आत्माराम दुबे जी भी उत्कृष्ट ब्राह्मण वंश से थे। आपके वंश में दीक्षा देने की भी परंपरा रही।

तुलसीदास जी ने भी अपने कुछ शिष्यों को दीक्षा दी थी अतः इस अर्थ से भी वह गोस्वामी या गोसाईं कहलाएँ। कहते हैं तुलसी बाबा ने अंतिम दीक्षा श्रावण शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अपने जीवन के अंतिम क्षणों में स्वामी रामदास समर्थ को दी (जो छत्रपति शिवाजी महाराज के आध्यात्मिक गुरु हुए) और उनकी ही गोद में सिर रखकर स्वस्थ चित्त, अपने ईष्ट के प्रति पवित्र आस्था के साथ महाप्रयाण किया। मृत्यु से पूर्व आपने निम्नलिखित दोहे का उच्चारण किया -:

राम नाम जस बरनिकै
भयउ चहत अब मौन।
तुलसी के मुख दीजिए,
अब ही तुलसी सोन।।

शोध आलेख

डॉ नुपूर निखिल देशकर की कलम से

संपर्क सूत्र – 94251 54571