किसी फिल्म की समीक्षा आजतक नहीं लिखी क्योंकि कभी मन उद्वेलित नही हुआ किसी फिल्म को देखकर लेकिन आज जब ये फ़िल्म देखी तो जो समझ आया वो लिखने का प्रयास किया है।
ऋषि कश्यप की पवित्र भूमि जिनके नाम पर है कश्मीर का नामकरण हुआ। शंकराचार्य की तपोभूमि, कला- संस्कृति, शिक्षा- अनुसंधान का सबसे बड़ा केंद्र, प्राकृतिक सुषमा, शान्ति का सबसे बड़ा स्थल जिसे न जाने किसकी नज़र लगी और ये बन गया गोलियों बारूदों और हिंदुओं के रक्त से सना हुआ कश्मीर।
19 जनवरी 1990 वो दिन जब कश्मीरी हिंदुओं को केवल तीन विकल्प दिए गए थे – धर्म परिवर्तन करो, कश्मीर छोड़ो या मरने के लिये तैयार रहो. साथ में खेलने वाले, पड़ोस में रहने वाले, एक हिंदू शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करने वाले तक ने अपने उन कश्मीरी हिंदुओं को मारने, मरवाने में कोई कोताही नहीं बरती जिनके साथ वो बरसों से रह रहे थे।
कश्मीर में अलगाववादी नेताओं, आतंकवाद को पनपने, फलने फूलने, पालने पोसने का पूरा इंतज़ाम “सरकारी” था। ऐसा करने वाली केंद्र और जम्मू कश्मीर में सरकारें किस पार्टी, परिवार की रही हैं सबको पता है।
विशेष बात ये रही कि अपने ईको सिस्टम का भरपूर उपयोग करते हुए, मीडिया मैनेजमेंट करके खबरों को “छलनी” लगाकर और झूठ को सच बताकर पूरी दुनिया को परोसा गया।
फ़िल्म में एक डायलॉग है “जब तक सच जूते पहनता है, तब तक झूठ सारी दुनिया का चक्कर लगा चुका होता है”
जिन तथाकथित अलगाववादी नेताओं को गोलियों से भून दिया जाना चाहिए था, जेल की सलाखों के पीछे डाल देना चाहिए था उन्हें बाक़ायदा दिल्ली बुलाया जाता था, उनके साथ गलबहियां की जाती थीं, उन्हें “आज़ादी के लड़ाके” कहा जाता था।
फ़िल्म पूरे समय बाँधे रखती है, फ़िल्म का नायक जो जेएनयू में पढ़ता है जिसके मां, पिता, भाई को मार दिया जाता है जिससे वो अनभिज्ञ हैऔर जे एन यू में “आज़ादी” का जो मतलब समझाया जाता है वही नैरेटिव बरसों बरस सभी के दिलो दिमाग में सेट किया गया, उस झूठ को चाशनी में लपेटकर बड़े बड़े चाटुकार शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों ने देश की जनता को परोसा है।
असली आतंकी वो नहीं जो हथियार हाथ में लेकर निर्दोषों के प्राण ले लेता है, असली आतंकी ये “सफेदपोश” लोग हैं जो देश के सिस्टम में बरसों तक बैठे थे और इन्होंने सिस्टम को इतना सड़ाया, गलाया कि उसकी बदबू से घबराकर ही एक साधारण भारतीय ने उससे दूरी बनाए रखना ज़्यादा उचित समझा।
इसी नैरेटिव की नायक द्वारा ही धज्जियाँ उड़ाते हुए देखना अपने आपमें एक अनूठा अनुभव है, जेएनयू के ऑडिटोरियम में “आज़ादी के इन मतवालों” के सामने कश्मीर का सच बताना मन मस्तिष्क को झकझोरकर रख देनेवाला है।
एक अलगाववादी नेता का ये कहना कि – “नेहरूजी और अटलजी मुल्क के दो ऐसे वज़ीरे आज़म (प्रधानमंत्री) थे जो चाहते थे कि लोग उनसे मोहब्बत करें, लेकिन मुल्क के मौजूदा वज़ीरे आज़म ये चाहते हैं कि इस मुल्क के लोग उनसे डरें”
यही बात तो उन्होंने स्वयं कही भी थी “कुछ लोगों को तो डरना पड़ेगा”
इन्हीं “डरे हुए (?)” लोगों का असली रूप 2014 से पूरा देश देख रहा है। बहुतों के चेहरों से नकाब उतरे हैं और हमने उन्हें वज़ीरे आज़म बनाया ही इसीलिए था कि कुछ लोग उसने डरें और वो उन्होंने कर दिखाया है।
जिस धारा 370 के बारे में तमाम सेकुलर नेता कसमें खाते थे कि वो इस जनम में तो क्या, अगले किसी जनम में भी खत्म नहीं कर पायेंगे वो भी उन्होंने ख़तम करके दिखा दी है।
एक के बदले 10 गोलियां चलाई जा रही है, शांति के कबूतर उड़ाना, लव लेटर सब बंद कर दिए गए हैं, पाकिस्तान अब कश्मीर का राग अलापना भूल गया है, दो दो बार पाकिस्तान को घर में घुसकर मारा है, पूरी दुनिया के सामने उसे नंगा कर दिया गया है, पाकिस्तान के हिमायती हमारे देश के गद्दारों की पहचान उजागर होती जा रही है।
इस फ़िल्म को अवश्य देखने जाईये, अपने मित्रों, परिजनों, 14 वर्ष के ऊपर के बच्चों के साथ देखने जाईये, एक बार, दो बार, तीन बार जितनी बार आपका मन करे फ़िल्म देखिये, सीखिये, समझिये.
जीवन में पहली बार इतना सन्नाटा देखा किसी थिएटर में किसी फिल्म को देखने के दौरान और समाप्ति के बाद रोते देखा है, स्वयं भी रोई हूँ. और पीछे से किसी की आवाज़ आती है मोदी जी का होना कितना जरूरी है।
बस एक बार तो अवश्य देखिये।
विवेक रंजन अग्निहोत्री जी आपको साधुवाद, कोटि-कोटि नमन है इस फ़िल्म के लिये, आपके साहस के सामने आज भारत वर्ष नतमस्तक है। युवा साथी के साथ आज पूरा भारत जान पा रहा है सच वो काला सच जिसे आज तक कोई जान नहीं पाया था न कभी पढ़ाया गया था।