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धर्मक्षेत्रे – कुरूक्षेत्रे !

भगवद् गीता के प्रथम श्लोक के ‘धर्म’ शब्द के अर्थ पर नवीन विमर्श
(बौद्ध साहित्य में प्राप्त कुरू-धर्म के उल्लेख के आधार पर विवेचना)
श्रीमद् भगवद्गीता के प्रथम श्लोक- धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजयः।। के ‘धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे’ का बहुधा ‘धर्म भूमि कुरूक्षेत्र में’ अर्थ लिया जाता है। मेरी दृष्टि में इसका सही अर्थ ‘कुरू धर्म की भूमि में’ किया जाना चाहिए। यहाँ ‘कुरूक्षेत्र’ को नहीं ‘कुरूधर्म’ को महत्व दिया गया है। वह क्षेत्र जहाँ ‘कुरू धर्म’ का पालन किया जाता था।
प्राचीन आर्ष साहित्य एवं बौद्ध साहित्य अनेक स्थानों पर एक-दूसरे के अनुपूरक हैं, किन्तु बुद्ध को विष्णु के अवतार माने जाने के बावजूद बौद्ध-साहित्य को कृष्ण द्वारा गायी गई गीता के अर्थ- निष्पादन में उपयोग नहीं किया गया। ‘धर्मक्षेत्र’ को समझने-समझाने में बोद्ध-साहित्य का प्रस्तुत प्रयोग अत्यन्त ध्याना कर्षक है।

‘कुरू धर्म’ का विशेष विवरण बोद्ध-साहित्य में प्राप्त होता है। भगवान बुद्ध के 550 पूर्व-जन्म की कथाएँ पालि जातक में मिलती हैं, जिसमें 276वाँ जातक का शीर्षक ‘कुरूधम्म जातक’ है। (कुरू-धम्म-जातक, जातक सँख्या 276, भदन्त आनन्द कौशल्यायन, जातक, खण्ड 3, प्रयाग, 1946, पृष्ठ 89-102)
‘कुरूधम्म जातक’ की कथा भगवान् बुद्ध ने श्रावस्ती के जेतवन विहार में कही थी। कथा का सार-सङ्क्षेप इस प्रकार है- श्रावस्ती के दो मित्र धम्म -सम्पदा लिए थे। अचिरवती नदी के किनारे उड़ते हुये दो हंसों में से एक की आँख पर निशाना लगाने की होड़ में छोटे मित्र ने हंस की जान ले ली। जीवित प्राणी के हत्या के अधर्म पर लज्जा व विषाद करते वे तथागत (बुद्ध) के पास गए। बुद्ध ने उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था, कहते हुए अपने पूर्व जन्म की एक कथा सुनाई।
कथा में कलिङ्ग देश में अवर्षण से अकाल के संदर्भ में कुरू राज्य के इन्द्रप्रस्थ नगर के राजा धनञ्जय का उल्लेख हुआ है। धनञ्जय के पुत्र के रूप में बोधिसत्व का जन्म हुआ था। वे तक्षशिला में शिक्षित हुए और पिता की मृत्यु के बाद राजा बने। कुरू- धम्म (धर्म) का पालन करते हुए वे दस राज्यधर्मों का पालन करते थे।
कुरू-धर्म का अर्थ था पाँच सद्गुण (शील)। जिनका पालन वे अपने क्रिया-कलाप में करते थे। उन्हीं (राजा) की भाँति उन सद्गुणों का पालन उनकी राजमाता, महारानी, युवराज (लघु भ्राता), पुरोहित (ब्राह्मण), रज्जुक (अमात्य), सारथी, श्रेष्ठी (सेठ), द्रोणमापक (महामात्य), दौवारिक (द्वारपाल), गणिका (राजनर्तकी) ये सभी 11 लोग (जन) कुरू-धर्म का पालन करते थे(ऐकादस जना कुरूधम्मे पतिट्ठिता)।
कलिङ्ग देश के अवर्षण से अकाल पड़ा। लोगों ने राज-नगर दन्तपुर में जाकर राजा से दुक्ख निवारणार्थ निवेदन किया। राजा ने व्रत रख कर प्रयास किया, किन्तु वर्षा न हुई। कलिङ्ग के लोगों को ज्ञात हुआ कि कुरू देश में अञ्जन वसभ नाम का मङ्गल हाथी है, जिसके आने से वर्षा होगी। कलिङ्ग के लोग उस हाथी को कुरू देश के राजा से दान में माँग कर ले आये, किन्तु वर्षा फिर भी नहीं हुई। तब कुरू देश में राजा द्वारा पालन किये जाने वाले धर्म के पालन से उनका देश सुवर्षण से सुखी व समृद्धिशाली हो सकेगा।
‘कुरूधम्म जातक’ की कथा में 11 कथाओं के सम्पुञ्जन से ‘कुरू धर्म’ के पाँच सद्गुणों को बताया गया है-
-जीव हिंसा न करना (अहिंसा)
-चोरी न करना (अस्तेय)
-कामोपभोग सबंधी मिथ्याचार न करना (परस्त्रीगमन निषेध),
-असत्य न बोलना (मिथ्याभाषण निषेध), और
– मद्यपान न करना (मद्यपान निषेध)
इतना ही नहीं सोच में भी इस प्रकार की बातें आने पर धर्म का पालन करने वाला अपनी धर्म -च्युति मानता था। (प्राचीन भारतीय लिपिमाला, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, अजमेर, 1918, पृ. 5, टिप्पणी 8 एवं भदन्त आनन्द कौसल्यायन, जातक, खण्ड-3, प्रयाग, 1946, पृष्ठ 94) कुरू-धर्म के मूल तत्वों को स्वर्ण-पट्टिका पर अंकित करके कलिङ्ग की राजधानी दन्तपुर लाया गया और राजा ने ‘कुरू-धर्म’ में स्थित हो पाँच शीलों को पूर्ण किया, परिणामतः सुवृष्टि हुई और जनपद समृद्धशाली हो गया। (भदन्त आनन्द कौशल्यायन, जातक, खण्ड-3, प्रयाग, 1946, पृष्ठ 101)।
कुरू-धर्म का प्रथम लक्ष्य ही ‘‘अहिंसा’’ जीव हत्या न करना था और यह कैसी विडम्बना थी कि समस्त कुरूवंश एक-दूसरे की हत्या करके विजय की आकांक्षा लिए समुपस्थित था। इस विरोधाभास को ही धृतराष्ट्र के माध्यम से व्यास ने कहा है।
स्मरणीय है कि इसी प्रकार के विरोधाभास को कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किये बुद्ध के शरीर-भस्म के लिए युद्ध पर उतारू तत्कालीन आठ जनपदों के राजाओं-मगध, लिच्छवि, शाक्य, बुलि, कोलिय, वेथदीप, पावा और कुशीनगर के मल्ल को इंगित करते हुए कि जिस महापुरूष ने हमें अहिंसा का पाठ पढ़ाया, उन्हीं के शरीर-भस्म के लिए युद्ध उचित नहीं है (महापरिनिर्वाण-सूत्र, दीर्घनिकाय, 16 ।16 ।40) कहकर द्रोण नामक ब्राह्मण ने राजाओं की सद्बुद्धि को प्रस्फुरित कर युद्ध-वृत्ति को शान्त कर दिया था।
किन्तु धृतराष्ट्र अपने कुरू-धर्म को जानते हुए कि जीव-हत्या निषेध सर्वोपरि है और युद्ध पर उतारू अपने व पाण्डु के पुत्रों पर आश्चर्य करते हैं, परन्तु युद्ध रोक नहीं पाये।
ध्यातव्य है कि गीता का यह प्रथम श्लोक संजय कथित नहीं है। संजय कथित कृष्ण के गीता के वचन तो अध्याय 2 के श्लोग 2 से आरम्भ होते हैं (कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम)।
बौद्ध-साहित्य में संदर्भित कुरू -धर्म के परिप्रेक्ष्य में धुतराष्ट्र का उपस्थापित विरोधाभास कितना सटीक था, यह कृष्ण के इस वचन से स्पष्ट होता है कि वे होने वालीे युद्ध की हत्याओं को पाप मानते ही नहीं (ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि। गीता, 2।38)। अर्जुन ने युद्ध में उपस्थित स्वजनों को देख कर शोकातुर (विषीदन्निदमब्रवीत। गीता, 1 ।28) हो स्वजनों की हत्या में अकल्याण देखते हुए (गीता, 2 ।31) वह उनकी हत्या नहीं करना चाहते (न हन्तुमिच्छामि। गीता, 1 ।35) कि पाप ही लगेगा (पापमेवाश्रयेदस्मान । गीता, 1 ।36) इसलिए उन्हें ने मारने का निर्णय कर (तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं। गीता, 1 ।35) युद्धोत्तर के दुष्परिणामों को बताते हुए (गीता, 1 ।39-44) अपने प्रस्तुत कर्म को महापाप मानते हुए (अहो बत महत्पापं क कर्तु व्यवसिता वयम। गीता,1 ।45) बाण-सहित अपने धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए (रथोपस्थ उपाविशत। विसृज्य सशरं चापं। गीता, 1 ।47) और कृष्ण द्वारा आरम्भिक तौर पर समझाने (गीता, 2 ।3) के बावजूद अर्जुन ने युद्ध करना स्पष्टतः इंकार कर दिया (न योत्स्य। गीता, 2 ।9)। यहाँ तक अर्जुन स्पष्ट ही बोद्ध-साहित्य में सन्दर्भित उपरिउल्लिखित ‘कुरू – धम्म’ (कुरू धर्म) का पालन करते दिखते हैं। किन्तु कृष्ण ने उन्हें युद्ध करने के लिए गीता में श्लोक 2 ।3 के प्रथम प्रयास (क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तोतिष्ठ परन्तप) के अतिरिक्त 3 स्थानों पर संकेत भाव से कहा है (गीता, 4 ।42 उत्तिष्ठ भारत, गीता, 8 ।46 योगी भवार्जुनय गीता, 11 ।33 उत्तिष्ठ यशो लभस्व) और 4 बार स्पष्ट रूप से कहा है (गीता, 2 ।27 तस्मात्वमुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः, गीता, 2 ।38 ततो युद्धाय युज्यस्वय गीता, 8 ।7 मामनुस्मर युध्य च, गीता, 11 ।34 युद्धस्व जेतासि रणे सपत्नान)। अर्जुन इतने के बावजूद युद्ध में होने वाली हत्याओं से विरक्त भाव ही रखे थे और कृष्ण को 18 वें अध्याय तक ज्ञान देने (इति ते ज्ञानमाख्यातं, गीता, 18 ।63 प्रथम पाद) के बाद भी यह कहना पड़ा कि जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो (यथेच्छसि तथा कुरू, गीता, 18 ।63); किन्तु फिर भी वे उन्हें प्रभावित करने हेतु कहते हैं कि तुम्हारे हित के लिए मैं कहता हूँँ (ततो वक्ष्यामि ते हितम, गीता, 18 ।64) कि तुम मेरी ही बात मानो (मन्मना मद्भक्तो मद्याजी माँ नमस्कुरू, (मामेकं शरणं व्रज, गीता 18 ।66) और पाप से विचिकित्स हुए अर्जुन (पापमेवाश्रयेदस्मान, गीता, 1 ।36) को जैसा कि अध्याय 2 में कहा था (ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि, गीता, 2 ।38) वैसा ही अपने सारे प्रवचन के बाद 18वें अध्याय के लगभग अन्त में फिर कहते हैं कि (यदि अभी भी तुम युद्ध में होने वाली हत्याओं के पाप के भागी बनोगे ऐसा समझते हो तो) मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर-
(अहं सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः, गीता 18 ।66)।
इस प्रकार ‘कुरू-धम्म’ (कुरू-धर्म) से विपरीत जा कर जो हिंसा हुई, उसका परिणाम भयंकर हुआ, असंख्य कालकवलित हुए, कल्पना ही की जा सकती है, युद्धोत्तर काल के महा हाहाकार की।
बौद्ध जातक के ‘कुरू- धम्म’ (कुरू-धर्म) का परिणाम सुख व समृद्धि वर्णित किया गया है, जो कुरू तथा कलिंग दोनों ही देशों में समान प्रतिफलित थी।
‘कुरूक्षेत्र’ एकक्षेत्र -वाची शब्द है, नगर-वाची शब्द नहीं है। महाभारत में कुरूक्षेत्र को एक स्थान पर ‘तपःक्षेत्र’ की संज्ञा दी गई है (कुरूक्षेत्रे तपः क्षेते शृणु त्वं पृथिवीते, 6 ।1 ।2) और ‘कुरूक्षेत्र’ का भाँति ही ‘तपः क्षेत्रे शब्द का प्रयोग है, जो ‘धर्मक्षेत्रे’ का ही समानार्थी है।
बौद्ध जातक में महाभारत के ‘तप’ की तरह ही ‘शील’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार महाभारत और बोद्ध-साहित्य के प्रयोगों में तादात्म्य है, महाभारत के श्रीमद् भगवद् गीता में प्रयुक्त ‘धर्मक्षेत्रे कुरूक्षे़त्रे’ के स्थान पर बौद्ध-साहित्य के जातक में ‘कुरू-धम्म’ अर्थात् ‘कुरू-धर्म’ शब्द प्रयुक्त है।

लेखक:- दीनबंधु पाण्डेय