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धर्म रक्षक गुरु गोबिंद सिंह जी

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म पटना (बिहार) में हुआ, किन्तु उनका कार्यक्षेत्र अधिकांश रूप से पंजाब ही रहा। स्वामी विवेकानन्द जी ने जिसका आदर्श हिन्दू समाज के सम्मुख रखा था, वे थे श्री गुरु गोबिन्द सिंह। उन्होंने कहा – ‘स्मरण रहे, यदि तुम अपने देश का कल्याण चाहते हो तो तुम में से प्रत्येक को श्री गुरु गोबिन्द सिंह बनना होगा।’

भारतीय समाज की सामाजिक समरसता के लिए उन्होंने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये। श्री गुरु गोबिन्द सिंह को सन् 1689 ई. में, प्रथम युद्ध इसी देश के राजाओं से इस कारण लडऩा पड़ा, क्योंकि  उन्होंने निम्न कही जाने वाली जातियों को ऊपर उठाकर बराबरी के स्तर पर सम्मान दिया था। इस युद्ध में विजय श्री गुरु गोबिन्द सिंह की ही हुई।

खालसा सृजन- श्री गुरु गोबिन्द सिंह से पूर्व से ही मुस्लिम सत्ता के साथ सिक्ख अनुयायियों का टकराव प्रारम्भ हो गया था। मुसलमानों को लगने लगा था कि ये संगठित सिक्ख समुदाय बनाकर इस्लाम के अत्याचारों के विरुद्ध नई चुनौती दे सकते हैं तथा किसी भी कीमत पर वे इस्लाम स्वीकार नहीं करेंगे।

इसी कारण सन् 1606 में पाँचवें गुरु श्री अर्जुनदेव जी को जहाँगीर ने तथा नौवें गुरु श्री गुरु तेगबहादुर जी को ई. सन् 1675 में औरंगजेब ने शहीद किया। छठे गुरु श्री हरिगोबिन्द जी ने शाहजहाँ के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष किया।

श्री गुरु गोबिन्द सिंह उस समय की परिस्थितियों के अध्ययन के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँच गए थे कि अब इस अत्याचारी इस्लामी शक्ति से संघर्ष करने के लिए सशस्त्र सेना की आवश्यकता है।

यह सेना सभी प्रकार के जातिगत भेदभावों से ऊपर तथा सम्पूर्ण देश की एकता में विश्वास करने वाली हो। इस्लाम से संघर्ष करने वाली यह शक्ति धर्माधिष्ठित हो तथा इसमें सम्मिलित होने वाला प्रत्येक सैनिक इस कार्य को ईश्वर द्वारा प्रदत्त दैवीय दायित्व समझकर अपना बलिदान देने को हर-क्षण तत्पर रहे।

इस दृष्टि से ई. सन् 1699 में बैसाखी के दिन श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा सृजन का एक अलौकिक कार्य सम्पन्न किया। देखते-देखते, निष्प्राण और निरीह-सा दिखने वाला भारतीय समाज इन सिक्ख गुरुओं की संगत से अपने पूर्वजों की वीरता को स्मरण करता हुआ, समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर, ‘दुर्जेय-सिक्ख-सैन्य-शक्ति’ के रूप में संगठित हो गया।

इस शक्ति ने न केवल मुग़लिया सल्तनत के दाँत खट्टे किए वरन् आतंक का पर्याय बने अफगानिस्तान के पठानों को उनके घरों में जाकर रौंद कर रख दिया। अध्यात्म प्रेरित शक्ति हाथ में तलवार और खाँड़े के साथ इस्लाम के अत्याचारों से भारतीय समाज की रक्षा के लिए खड़ी हो गई।

भाई संतोख सिंह उस समय की परिस्थितियों में श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी की भूमिका के बारे में लिखते हैं कि- ‘यदि श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज की पवित्र मूर्ति अवतरित न हुई होती तो लोगों के अपने-अपने विविध धर्म पालन का अधिकार समाप्त होकर केवल इस्लाम ही यहाँ शेष रह जाता। सभी धर्मशास्त्र समाप्त हो जाते और केवल कुरान ही शेष रह जाती।चारों ओर पाप का ही बोलबाला होता और धर्म नष्ट हो जाता। न्याय का शासन, देवी-देवता, वेदों और पुराणों की कथाएँ तथा रीति-रिवाज भी सुरक्षित नहीं रहते।’

सामाजिक विषमताओं का परिष्कार- श्री गुरु गोबिन्द सिंह सभी प्रकार की सामाजिक विषमताओं का खण्डन करते हुए मनुष्य की जाति एक ही मानते हैं। वे किसी भी भेद को अस्वीकार करते हैं तथा सभी के अन्दर एक ही जोत की प्रतिष्ठा में उनकी आस्था है। ‘दशम ग्रन्थ’ में वे लिखते हैं- मानस की जात सबै एकै पहचानबो।’

श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी कहते हैं कि सभी मनुष्य उस एक परमात्मा के ही स्वरूप हैं। इनके मध्य किसी भी प्रकार का भेद विचार करना अनुचित है।

श्री गुरु गोबिन्द सिंह पृथ्वी पर अपने जन्म लेने के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए श्री विचित्र नाटक में बतलाते हैं, ‘हम तो धर्म स्थापना, दुष्ट लोगों का संहार तथा संत लोगों की रक्षा करने हेतु ही आए हैं। इसी कारण से हमने इस धरा पर जन्म लिया है। इस बात को सभी साधु लोग समझ लें।’

गुरु मानिओ ग्रन्थ- श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपने सामने ही ‘श्री गुरु ग्रन्थ साहिब’ को श्री गुरु स्थान पर स्थापित कर दिया।

आगिआ भई, अकाल की तबै चलायिओ पंथ।।

 सभ सिखनि को हुकुम है गुरु मानिओ ग्रन्थ।।

गुरुग्रन्थ जी मानिओ प्रगट गुरां की देह।। 

जो प्रभु को मिलबो चहै खोज शब्द में लेह।।

अर्थात् ‘अकाल’ (परमेश्वर) की आज्ञा से ही हमने यह खालसा पंथ चलाया है। अब सभी सिक्खों  को यही आज्ञा है कि श्री गुरुग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानें।

‘श्री गुरुग्रंथ साहिब’ को साक्षात् गुरु के शरीर के रूप में ही स्वीकार करें तथा यदि परमात्मा का साक्षात्कार चाहते हैं तो इसके शब्दों (पदों) अर्थात् वाणी में खोज कर उसे प्राप्त कर लें। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ‘श्री गुरुग्रन्थ साहिब’ जी का साक्षात् गुरु की देह की तरह पूजन का हुक्म देते हुए फरमाया कि प्रभु को पाने की अभिलाषा है तो ‘श्री गुरुग्रन्थ साहिब’ में निहित गुरुवाणी के शब्दों में उसे खोज लें।

‘श्री गुरुग्रन्थ साहिब’ को विधिवत् गुरु का दर्जा प्रदान करने के पश्चात् सिक्खों में व्यक्तिगत गुरु-प्रथा का अन्त हो गया।

हिन्दू-सिक्खों का मुग़लों विरुद्ध साझा संघर्ष- सिक्ख इतिहास के अध्ययन के पश्चात् हम कह सकते हैं कि सिक्खों का उद्भव एक विशेष परिस्थिति में हुआ है। वह इस्लाम के भीषण अत्याचारों का एक विचित्र काल था। इन दोनों ही समूहों में एक विशिष्ट प्रकार का संघर्ष और हर स्तर पर अस्तित्व रक्षा हेतु प्रतिस्पर्धा होने लगी।

यद्यपि मुसलमान राजनीतिक रूप से विजयी थे, किन्तु भारतीय भी अपने आप को पराजित मानने को तैयार नहीं हुए। मुसलमान हिन्दुओं के यहाँ प्रचलित सैकड़ों देवी-देवताओं की आलोचना करते थे और कहते थे कि हमारा ‘अल्लाह एक है’।

सिक्ख गुरुओं ने किसी देवी-देवता का निषेध किए बिना ‘एक ओंकार’ की आराधना की। मुसलमान एक पंक्ति में नमाज़ पढ़कर अपनी एकता प्रदर्शित करते थे, सिक्खों ने भी ‘एक संगत-एक पंगत’ से सामाजिक एकता का सन्देश दे डाला।

मुसलमान युद्ध के समय जोश भरने के लिए ‘अल्लाह-हु-अकबर’ का नारा लगाते थे, इधर इनके पास भी जवाब में अब ‘जो बोले सो निहाल सत् श्री अकाल’ का दमदार आह्वान था। मुसलमान लंबे समय से शासक होने के कारण अहंकार में डूबे थे, यहाँ भी प्रत्येक सिक्ख पगड़ी बाँधकर अपने को सरदार जी कहलवा कर गौरवान्वित था। मुसलमानों में प्रत्येक तरुण शस्त्र लेकर युद्ध के लिए तैयार रहता था, किन्तु हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था में शस्त्र धारण का अधिकार सभी जातियों को नहीं था।

सिक्खों ने सभी जातियों को सिंह बनाकर उनके हाथों में भाले और तलवारें पकड़ा दीं और उन्हें युद्ध के दर्शन में सम्मिलित कर लिया। परिस्थितियों के कारण इस्लाम की प्रत्येक आक्रामकता का उत्तर उन्हीं की भाषा में देने को अब वे कमर कसकर तैयार थे। 

सिक्ख इतिहास को जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि भारतीय हिन्दू समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर एक साथ कई मोर्चों पर ये गुरु साहिबान संघर्ष कर रहे हैं। वे निराकार-निर्गुणभक्ति का सन्देश देकर, ढोंग, पाखण्ड तथा कर्मकाण्ड से समाज को बाहर ला रहे हैं, वही ‘चण्डीस्तोत्र’, ‘रामावतार’, ‘कृष्णावतार’ तथा ‘विचित्र नाटक’ आदि रचनाएँ लिखकर शौर्य जगाते हुए शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सभी को भक्तिभाव से जोड़ भी रहे हैं।

वेद तथा संस्कृत अध्ययन के लिए सिक्खों (निर्मलों) को काशी भेजते हैं और लोकभाषा में साहित्य रचना करते हैं। देश भर के संतों एवं भक्तों की वाणियों को गुरुमुखी लिपि देकर, विदेशी भाषा अरबी और फारसी से समाज को बचाते भी हैं।

सभी के लिए एक-संगत, एक-पंगत, एक गुरुद्वारा की परम्परा डालकर जातिभेद नहीं मानते तथा खालसा सजाकर नीची कही जाने वाली जातियों को सम्मानित कर गुरुस्थान पर बैठाकर, उन्हीं से दीक्षा लेकर सामाजिक समरसता का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

अध्यात्म तथा भक्तिभाव को केन्द्र बिन्दु में रखकर सामाजिक मूल्यों, सामाजिक समरसता, सामाजिक एकजुटता एवं समाज की रक्षा का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती हुई पंजाब की यह ‘सिक्ख-गुरु-संत-परम्परा’ अद्भुत रूप से विकसित हुई। क्या विश्व के इतिहास में इसका कोई सादृश्य संभव है ?

सर्ववंशदानी- गुरू गोबिंद सिंह के अनूठे व्यक्त्वि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है उनका सर्ववंशदानी होना। केवल पिता ही नहीं, उन्होंने अपने बेटों को शस्त्र प्रदान करते हुए कहा था कि “जाओ दुश्मन का सामना करो और शहीदी जाम को पियो।”

यह बात सर्वविदित है कि उनके दो बड़े पुत्र चमकौर की लड़ाई में शहीद हुए तो दो छोटे पुत्र सरहिंद की दीवारों में जिंदा ही चुनवा दिए गए थे। गौरतलब हो कि भाई दया सिंह ने जब चमकौर के युद्ध में शहीद हो जाने वाले वाले गुरु गोबिंद सिंह के दो पुत्रों अजीत सिंह और जुझार सिंह के पार्थिव शरीर को चादर से ढकने की आज्ञा मांगी तो दशम गुरू का कहना था कि सभी मृत वीरों की देह को भी ढकने के बाद ही इन दोनों को ढका जाए।

यही नहीं, जब अपने चारों पुत्रों की शहादत से अंजान उनकी मां ने गुरू जी से उनके विषय में पूछा, तो गुरू जी का उत्तर था, “इन पुत्रन के शीश पर वार दिए सुत चार, चार मुये तो क्या हुआ जीवत कई हजार..।” देश के बलिवेदी पर कुर्बानी का ऐसा उदाहरण इतिहास में कोई दूसरा नहीं मिलता।

गुरु गोविंद सिंह जी इतिहास के वो आध्यात्मिक किरदार हैं जिन्होंने इस गुलाम धरा के लोगों के झुके सिर को पुनः उठाकर जीना सिखाया, लोगों को विपत्तियों से लड़ना सिखाया, यह विश्वास दिलाया कि अगर राष्ट्र आज गुलाम है तो इसका भाग्य हम ही बदल सकते हैं।

वो गुरु गोविंद सिंह जी ही थे जिन्होंने अपने भक्तों को एक सैनिक बना दिया, उनकी श्रद्धा और भक्ति शक्ति में बदल दी, जिनके नेतृत्व में इस देश का हर नागरिक एक वीर योद्धा बन गया। गुरु गोविंद सिंह जी की पुरानी हर सीख आज भी प्रासंगिक है।

उनके बताए पथ पर चलकर जिस देश ने अपना इतिहास बदला आज एक बार फिर से उन्हीं का अनुसरण करके हम अपने देश का भविष्य बदल सकते हैं, आवश्यकता है अपनी आने वाली पीढ़ी को उनके बताए संस्कारों से जोड़ने की।

मलकीत सिंह ऊना
(लेखक पत्रकार हैं)