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पश्चिम की विज्ञान दृष्टि: विनाश का सरंजाम

पश्चिम की विज्ञान दृष्टि भौतिकतावाद, क्षणिकवाद, भोगवाद अथवा जगत के स्थूल स्वरूप तक ही सीमित रही। ऐसा इसलिए हुआ की पश्चिमी जगत के समाज का दृष्टिकोण वाहा जगत-स्थूल जगत तक ही सीमित रहा। उन्होंने पदार्थ को ही सब कुछ मान लिया।

मैटर, अलग है और माइंड अलग है। तथा मैटर ही विज्ञान का विषय है तथा जो भी माइंड को मैटर से जोड़ने की बात करता है, वह अवैज्ञानिक है, ऐसी सोच पश्चिम की बनी। बेकन और देकार्ते के चिंतन के कारण गणिती व्याख्या और प्रयोग में जो बात सिद्ध हो वही सत्य है। इस अवधारणा के कारण जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों, पहलुओं को अलग कर दिया अथवा नकार दिया गया। परिणाम स्वरूप एक पक्षीय या एकाकी चिंतन पैदा हुआ। जोकि अज्ञानता का जनक है व जिसने विनाश के सरंजाम जुटाए।

न्यूटन ने मशीनी ब्रह्मांड की अवधारणा प्रस्तुत कि जिसके अनुसार यह जगत एक यंत्र है। और यंत्र का ज्ञान प्राप्त करके उस पर नियंत्रण किया जा सकता है। नियंत्रण के दृष्टिकोण से प्रकृति को जीतने की मानसिकता उत्पन्न हुई व ‘भोग्या’ (भोगवाद) की अवधारणा आई। और वैज्ञानिक क्षमता से प्रकृति को पीड़ित कर अपने सुख-सुविधा के साधन जुटाने की मनोवृति विकसित हुई जो आज की अनेक समस्याओं का कारण है।

voyager: न्यूटन की 'वैज्ञानिक' मान्यताएं

जब न्यूटन ने मशीनी ब्रह्मांड की अवधारणा प्रस्तुत की अर्थात्त निश्चित नियमों से सब कुछ चलता है। तब इसे डार्विन ने जीव शास्त्र के क्षेत्र में, जॉनलॉक ने समाजशास्त्र के क्षेत्र में, कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के क्षेत्र में, माल्थस ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में लागू किया जिसमें से एक जड़ परंतु कठोर व्यवस्था विकसित हुई। ‘ऊर्जापुंज’ और ‘सापेक्षता सिद्धांत’ ने यांत्रिक ब्रह्मांड, निश्चय्यत्मकता तथा कुछ मूलभूत कणों की अवधारणा को ध्वस्त किया। क्योंकि परमाणु के अंदर अनेकों ऊर्जा पुंज इलेक्ट्रॉन, हेड्राने, मेसोन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन आदि आपस में टकरा रहे हैं, नये ऊर्जापुन्ज बन रहे हैं। अतः आप निश्चित नहीं कह सकते कि इस समय परमाणु में क्या हो रहा है।
ईशावास्योपनिषद में ऋषि कहता है-

तदजेती तन्नेजति तद् दूरे तदंतीके
तद्नतरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य वाहात:।

अर्थात- वह चलता है, वह नहीं चलता, वह दूर है, वह पास है, वह सबके अंदर है, वह सब की बाहर है।

आज का विज्ञान कहता है कि संपूर्ण जगत में द्वंद है। मैटर है, एंटीमैटर है। यदि ब्रह्मांड में एक ऊर्जाणु दक्षिणावर्त (clockwise) घूम कर ऊपर जा रहा है तो इसका साथी दूसरी जगह वामावर्त (anti clockwise) नीचे आ रहा है। जबकि भारतीय दार्शनिकों ने भी प्रारंभ से कहा जगत द्वंदात्मक है। पुरुष-प्रकृति, सुख-दुख, शीत-ऊष्ण, दिन-रात, आकाश-धरती, अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ, देव-दानव, सत्य-असत्य, प्रकाश-अंधकार।

आज विज्ञान संपूर्ण दुनिया में आपसी संबंध को व्यक्त करते हुए कहता है कि- Inseparable quantum inter connectness where every particle contains every other particle. अर्थात- प्रत्येक ऊर्जाणु के भीतर बाकी सारे ऊर्जाणु विद्यमान हैं। भारतवर्ष के ऋषियों ने इस सत्य को बहुत पहले जान लिया था की ‘ वृक्ष में बीज, बीज में वृक्ष’ एक बीज में पूरा वृक्ष समाया है। इसी प्रकार – यत पिन्डे तद् ब्रम्हाण्डे’ जो पिन्ड में है वही ब्रह्मांड में है और ब्रह्मांड का सूक्ष्म रुप ही पिंड है अर्थात जो अणु में है वही विभु में है। इस प्रकार विज्ञान के विकास के साथ पश्चिमी वैज्ञानिक भी अब सोचने लगे हैं कि सत्य की खोज मात्र भौतिक धरातल पर ही नहीं हो सकती है।

अतः इस प्रकार टुकड़ों में नहीं तो समग्रता से विचार करना पड़ेगा और आज ‘होलिस्टिक अप्रोच’ की चर्चा चल रही है। किंतु आज भी विज्ञान खेमों में बटा हुआ है। एक समग्र दृष्टिकोण का अभाव है। इसी का परिणाम है कि वैज्ञानिक विकास के साथ मानव सुख एवं समस्या के दोराहे पर खड़ा है तभी तो वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि- ” विज्ञान प्लेटिनम को डिनेचर कर सकता है पर मानव मन से बुराइयों को डिनेचर नहीं कर पाया है। अतः आज एक तरफ विज्ञान ने मानव को सुविधा के समुद्र में तेरा दिया है वहीं दूसरी ओर मानव जाति के अस्तित्व के लिए भयानक संकट खड़ा कर दिया है।”

विज्ञान ने आज मानवता को एक ऐसी जगह पर खड़ा कर दिया है जहां एक और विज्ञान की सहायता से मानव अंतरिक्ष में टहल आया, चांद की सैर कर ली। जमीन में गहरे गर्भ में छुपे खनिज भंडारों का अवलोकन बैठे-बैठे अपनी स्क्रीन पर करता है। मस्तिष्क के सूक्ष्म तंतुओं (Neurons) को देखना आज संभव है।

आज कोई भी 24 घंटे में पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर आ सकता है। 1 सेकेंड से भी कम समय में धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक अपना संदेश पहुंचा सकता है। अपने ड्राइंग रूम में बैठे विश्व में घटने वाली घटना को टी वी की स्क्रीन पर देख सकता है। यह विकास अत्यंत तीव्र गति से हो रहा है। यह विज्ञान के विधेयात्मक पहलू हैं।

दूसरी और प्रकृति के प्रति मातृत्व की भावना के स्थान पर ‘भोग्या’ (भोग) की अवधारणा के कारण विज्ञान समूची जैब सृष्टि का दुश्मन बनता जा रहा है। विभिन्न उद्योगों से निकलने वाली किरणें एक ओर अनेक घातक रोगों का कारण बन रही हैं तो दूसरी ओर ओजोन परत जो सूर्य से आने वाली घातक पराबैगनी किरणों से सृष्टि की रक्षा करती हैं। उसमें ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप बराबर छिद्र हो चुका है। जंगल कट रहे हैं अतः मौसम अनियमित हो रहा है। अनियंत्रित औद्योगिकरण व ओजोन छिद्र से पृथ्वी का तापमान वृद्घि/ग्लोबल वार्मिंग हो रहा है।

साइंटिस्टों ने पृथ्वी सम्मेलन (ग्लोबल कॉन्फ्रेंस) में चेतावनी दी है कि यदि 2.5 या 3 डिग्री सेंटीग्रेड पृथ्वी का औसत तापमान और बड़ा तो ग्लेशियर (ध्रुवों) के पिघल जाएंगे, समुद्र का जल स्तर 80 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा जिससे पृथ्वी के कई नगर तथा द्वीप समुद्र में जल समाधिस्थ हो जाएंगे। ध्वनि प्रदूषण पागलपन के निकट ले आया है। दिल्ली की वायु का AQI 392 तक पहुंच गया है। उद्योगों का वेस्टेज नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है। पशुओं को अपने स्वार्थ परता -सुख के लिए मारा जा रहा है। तो आज सारी वृक्ष, पशु, जैब सृष्टि खतरे में है। हथियारों के उत्पादन व विक्री की वैश्विक होड़ विश्व को विनाश के कगार पर खड़े किए हुए है। कुल मिलाकर आज विश्व में चहु – ओर, अशांति, कलुशित ,युद्ध उन्माद का वातावरण बना हुआ है। संपूर्ण विनाश के लिए कभी भी बस एक चिंगारी की आवश्यकता मात्र रह गई है। स्थिति बहुत भयावह है।

बट्रेंड रसैल अपने ग्रंथ – ‘साइंस एंड इट्स इंपैक्ट ऑन सोसाइटी’ में लिखते हैं कि-
“आज का मानव मानवीय कौशल तथा मानवीय मूर्खता के बीच जी रहा है। यदि मानवी कौशल के साथ उसकी समझ में वृद्धि नहीं हुई तो अधिकाधिक विकास का अंत अधिकाधिक दुख में होगा।”

एक सभा में एक वक्ता ने कहा विज्ञान आज से 100 वर्ष बाद जो समस्या उत्पन्न होने वाली है उसका आज ही विचार करता है जैसे 100 वर्ष बाद कोयला समाप्त हो जाएगा तो ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत की खोज वह आज करता है। इस पर एक विद्वान आचार्य ने कहा- ” जैसा आज का वैज्ञानिक विकास नीति विहीन, मूल्य विहीन तथा जैब सृष्टि का दुश्मन बन रहा है, जैसे रासायनिक और आणविक सन्हारक अस्त्र बने हैं। और मानव जैसा स्वार्थी और लोलुप हो रहा है उससे आने वाले वर्षों में विज्ञान का यह सामर्थ्य सारी दुनिया को ही कोयला बना देगा। अत: विकल्प कोयले का नहीं, पर कोयला बनी दुनिया के उस कोयले को जलाएगा कौन ??? इसका विचार करने की आवश्यकता है।”

भारतीय विज्ञान दृष्टि कल्याणकारी, सृजनकारी, मंगलमयि है। जिसके अनुसार संपूर्ण जगत में एक ही सत्य व्याप्त है। इस अनुभूति से ऐकात्म दृष्टि विकसित हुई जो व्यक्ति – समाज व प्रकृति का टुकड़ों में नहीं अपितु समग्रता से विचार करती है। जगत का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने हेतु भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार का ज्ञान आवश्यक है। इसे गीता में ‘क्षेत्र’ व ‘क्षेत्रज्ञ’, उपनिषद में ‘पारा’ व ‘अपरा’ एवं शंकराचार्य ‘वस्तुतंत्र’ व ‘पुरुषतंत्र’ के रूप में अभिव्यक्त किया है।

अतः भारतीय संस्कृति में भौतिकता अध्यात्म की विरोधी नहीं अपितु उसकी स्थूल अभिव्यक्ति मात्र है। भारतीय दृष्टि में प्रकृति को मां मानकर व्यवहार किया गया है “माता भूमि: पुत्रोंस्यम प्रथिव्या” अर्थात- पृथ्वी माता है व हम इसके पुत्र हैं। “हरि व्यापक सर्वत्र समाना” अथवा ‘ एक नूर ते सब जग उपज्या’ अर्थात- संपूर्ण विश्व ब्रह्मांड में एक ही तत्व/ सत्य की व्याप्ति है। अतः “एकं सद विप्रा बहुधा वदंति” एक ही सत्य की विद्वानों ने भिन्न-भिन्न व्याख्या, अभिव्यक्ति की है। किंतु भाव एक ही है।

इस प्रकार चौराहे पर खड़ी मानवता हेतु’ विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय ‘की कुंजी भारतीय मनीषा के पास है। और भविष्य में भारत को इसे निभाना है। इंग्लैंड के इतिहासविद, नोबेल पुरस्कार विजेता अर्नाल्ड टायनबी ने कहा है कि –
India will be leader in 21st century. India will make great progress in every field and what is more,will harmonise science and religion,the only country that could and would do it.

“21वीं सदी का नेता भारत होगा, प्रत्येक क्षेत्र में भारत की महान प्रगति होगी। उससे भी अधिक वह विज्ञान एवं धर्म को समन्वित करेगा। मात्र भारत यह कर सकता है और करेगा भी।”

 

स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “हमें पश्चिम का विज्ञान और पूर्व का अध्यात्म चाहिए तभी मानवता पूर्णत्व की प्राप्ति करेगी।”

स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन

21वीं सदी भारत की है। भारत अब अपनी आध्यात्मिक शक्ति, मूल्यों के बल पर वैश्विक पराक्रम करके वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। विश्व के विज्ञानी ,चिंतक, इतिहासकार व मनीषी भारत की भूमिका के बारे में आशा भरी नजर से देख रहे हैं। विज्ञान व अध्यात्म का मिलन यानी’ वैज्ञानिक अध्यात्मवाद’ की दिशा में भारत के प्रयत्न अब निरंतर प्रगतिशील है। भारत ही अब विनाश के कगार पर खड़ी दुनिया को उज्जवल भविष्य, सृजन की राह दिखाएगा। भारत 2026 में विश्व का ‘सिरमौर’ – ‘विश्वगुरु’ बनेगा। अब यही भारत की नियति है। जिस पर किसी को भी शंका नहीं होनी चाहिए।

लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया