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पावन संकल्पों को उद्घोषित करता संस्कृति का यह शंखनाद – डाॅ. किशन कछवाहा

जब संकल्प स्वयं अपने लिये न होकर समाज के लिये होता है, तो विराट विश्व के कोटि-कोटि परमाणु अपनी शक्ति और स्फूर्ति उस संकल्पधर्मी आस्थावान व्यक्ति को समर्पित करने लगते हैं, तब संकल्पधर्मी का वामन, विराट हो जाता है। यह संकल्प का प्रताप नहीं तो क्या है?

उत्साह ही मनुष्य को सर्वदा सब प्रकार के कामों में प्रवृत्त करने वाला है, और जीव जो कुछ कर्म करता है, उसे उत्साह ही सफल बनाता है। उद्देश्य श्रेष्ठ हो, लक्ष्य महान हो, एवं दिल में प्रबल भावना हो तो किये गये कार्य का प्रभाव तो परिलक्षित होगा ही।

जब कोई प्रधानमंत्री माँ गंगा को प्रणाम करता है, जूते उतारकर आचमन करता है, अपनी माँ के चरण स्पर्श करता है, अपने से बड़ों के आगे सिर झुकाता है और देश की सर्वोच्च संस्था संसद की सीढ़ी चढ़ने से पहले वहाँ सिर टेककर नमन करता है, तो यह देखकर हमारी भारतीय संस्कृति का सिर ऊँचा होता है।

श्री समर्थ रामदासस्वामी के पदस्पर्श से पावन हुए 'जांब' क्षेत्र की जानकारी  और कभी भी न रिक्त होनेवाले घी के गागर की विस्मयकारक कथा - सनातन ...

स्वामी समर्थ रामदास जी ने कहा था कि परमेश्वर को अधिष्ठान मानकर कर्म में निष्ठा रखने वाला ही विजयी होता है, भारत हमारे लिये जमीन का एक टुकड़ा नहीं है, वह हमारी भारत माता है। यही भारतीयता है, यही आत्मीयता है, यही इन्सानियत है।

सत्ता हाथ से निकल जाने के बाद काँग्रेस नेताओं की बौखलाहट, बुद्धि विपरीत कृत्य सामने आते जा रहे हैं। हिन्दूधर्म और हिन्दुत्व इस देश का प्राण है, उस संबंध में अनर्गल तर्क दिये जाना उनकी हताशा ही प्रगट करता है।

130 से भी अधिक वर्षों पुरानी पार्टी का आज हासिये पर आ जाना उसी का परिणाम है। उस अपनी औपनिवेशिक मानसिकता से वह बाहर निकल नहीं पा रही है, यही उसकी छटपटाहट का कारण है। यह वैसी की वैसी ही बनी हुयी है, जिस मानसिकता के साथ इसकी स्थापना इटावा में शासक रह चुके अंग्रेज ए.ओ. ह्यूम ने की थी, उसका तो उद्देश्य साफ था, उसे तो ऐनकेन प्रकारेण अंग्रेजी शासन बनाये रखने के लिऐ ही प्रयासरत रहना था।

अब ये नया भारत है। सोच बदलनी चाहिये थी। यह भी भुला दिया गया है कि कभी कांग्रेस में हिन्दुत्व के पुरोधा सर्वमान्य बाल गंगाधर तिलक, महामना मदनमोहन मालवीय, के.एम. मुंशी जैसे प्रातः स्मरणीय जन भी थे, वे लोक प्रिय जन नेता भी थे उन्हें अपने नाम के सामने ‘पंडित’ लिखने में गर्व का अनुभव होता था। अब तो ऐसे भी नेता हैं जिन्हें यह भी नही मालुम कि जनेऊ कपड़ों के ऊपर नहीं पहना जाता। हँसी तब आती है, वे ही हिन्दुत्व पर कीचड़ उछाल रहे हैं।

आज भारत की जनता विश्वनाथ मंदिर कारिडोर, और श्री रामजन्म भूमि की खबर से ही आल्हादित है। लगभग 400 वर्षों पूर्व जिस विश्वनाथ मंदिर को औरंगजेब जैसे मुस्लिम आततायी शासक ने पूरी तरह से उसके अस्तित्व के साथ खिलवाड़ की थी, इसी मंदिर के पुनरूद्धार का पावन संकल्प 250 वर्ष पूर्व महारानी अहिल्याबाई ने लिया था, उसी स्थल को सजाकर प्रधानमंत्री ने हिन्दुओं की आस्था को स्वर्ण शिखर पर पहुँचा दिया है। पहले इस पावन स्थल का परिसर तीन हजार वर्ग फीट के आसपास ही था। अब उसका विस्तार 5,27,730 वर्गफीट तक हो चुका है। इसके पहले प्रधानमंत्री श्री मोदी अयोध्या में श्रीरामजन्म भूमि पर बनने वाले भव्यतम मंदिर की आधारशिला भी रख चुके हैं।

श्रीकृष्ण जन्म भूमि परिसर मथुरा को भी उसी संकल्प से गति मिलना है। अभी कुछ दिनों पहले ही केदारनाथ मंदिर तीर्थक्षेत्र के जीर्णोद्धार का पावन कार्य भी सम्पन्न हो चुका है। ऐसे कार्यों के सम्पन्न होने से ही माना जाता है कि अब संस्कृति का शंखनाद हुआ है।

सदियों तक हिन्दू जीवन पद्धति और पूजा पद्धति पर कुत्सित विचारों वाले विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा हुये हमलों को भारत ने झेला है। हिन्दु आस्था को क्षति पहुँचाने की कोशिशें हुयीं, फिर भी हिन्दू मुकाबला करते रहे, पीछे नहीं हटे। तब नहीं हटे तो अब क्यों हटेंगे?

गाँधी-नहेरू परिवार की धर्म निरपेक्षता की रट लगाये रहना स्वाभाविक एवं मान्य तब हो सकता था, जब वह हिन्दू विरोधी और मुस्लिम परस्ती की ओर झुकाव लिये हुये न होता? वोट बैंक के लोभ में हिन्दूधर्म पर प्रहार करना ही मुख्य उद्देश्य रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय तक में जाकर भी श्रीराम के अस्तित्व को नकारने की नापाक कोशिशें हुयीं। इस पार्टी के वरिष्ठ नेता सल्मान खुर्शीद हिन्दू धर्म की तुलना बोको हरम से भी करने से बाज नहीं आते। इतना ही नहीं। वे तो उसकी तुलना आई.एस.आई.एस से भी करने से नहीं चूकते, एक अन्य नेता शशि थरूर हिन्दू तालिबान तथा दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर ‘‘भगवा आतंकवाद शब्द का प्रयोग हिन्दूधर्म के खिलाफ करते ही रहते हैं। ऐसे में यही आशंका बढ़ जाती है कि ये लोग ‘धर्म’ का अर्थ समझते भी हैं कि नहीं। या कोरी बकवास करना ही इनका धर्म है।

इनसे मिलीजुली सहयोगी कुछ शक्तियाँ और हैं, जिन्हें धर्मपरक राजनीति व संस्कृति से जुड़े राष्ट्रवाद से परहेज रहा है। इसका मूल कारण यह रहा है कि ये ताकतें भारतीय इतिहास को मुगल-तुर्क आदि विदेशी हमलावरों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी से आगे बढ़कर दृष्टिपात करने की कोशिश ही नहीं करना चाहती थी। वही ओपनेवेशिक मानसिकता आड़े आती रही।

काशी विश्वनाथ मंदिर जैसे तीर्थ स्थलों को भारत के दर्शन, दृष्टि और विचार के साथ-साथ भारतीय सभ्यता संस्कृति, संस्कार, संघर्षशीलता और स्वाभिमान के साथ जोड़कर क्यों नहीं देखा जाता?

लेखक:- डाॅ. किशन कछवाहा