“रानी झांसी के समान ही यदि हर हिन्दी हो जाए। मिटे हुकूमत अंग्रेजी, भारत में सुख स्वराज आए”
इस पुस्तक के प्रकाशन पर तत्कालीन उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री (उन दिनों प्रधानमंत्री लिखा जाता था) गोविन्दबल्लभ पन्त ने विधानसभा में राजाराम शास्त्री के एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि ‘ये पंक्तियाँ आपत्तिजनक हैं- हिंसा को बढ़ावा देने वाली हैं. इन सब बातों को देखकर हमारी (कांग्रेस) सरकार ने पुस्तक जब्त की है। 92 वर्ष पूर्व सन् 1939 में यह पुस्तक जब्त की गयी थी. कांग्रेस और कांग्रेस शासन का रवैया प्रारम्भ से ही बलिदानी क्रान्तिकारियों के प्रति घोर उपेक्षा भरा रहा है। (उस समय उत्तरपदेश को संयुक्त प्रान्त और मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था)
छाती से खून बह रहा था, रानी का आधा सिर कट चुका था. गम्भीर रूप से घायल होकर घोड़े से गिरते देख अंगरक्षक रघुनाथ ने अनकी देह को थाम लिया. बिलखते हुये रघुनाथ को देखकर महारानी के होंठ हिले और कहा ‘‘साहस मत छोड़ों, स्वराज के भवन की नींव का पत्थर बनना ही था. यह तो अच्छा हुआ मेरी आँख कट गयी कम से कम पराजय अपनी दो आँखों से नहीं देख पाऊँगी. साहस और वीरता की प्रतिमूर्ति रानी ने अंतिम क्षण में भी यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय महिलायें अबला नहीं, सबला भी होती हैं. ऐसी थी महारानी झाँसी लक्ष्मीबाई. इतिहास में ऐसा अनूठा उदाहरण मिलना कठिन है’’.
महान बलिदानी झाँसी की रानी सन् 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थी, जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की अवस्था में ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की किन्तु जीवित रहते अंग्रेजों को झाँसी पर कब्जा करने का अवसर नहीं दिया. अंतिम क्षण तक घोड़े की लगाम मुँह में थामे हुये दोनों हाथों से तलवार चलाते हुये रणचण्डी से समान शत्रुओं का संहार करती रही. सिंर का एक हिस्सा कट चुका था. इस हालत में भी गिरते-गिरते शत्रुओं की गर्दन काटना नहीं भूलीं. ऐसा महान बलिदानी महारानी का जन्म 19 नवम्बर 1828 को वाराणसी के भदैनी नामक नगर में हुआ था.
प्रख्यात कवियित्री सुभद्रा कुमारी चैहान ने उनकी वीरता और साहस की प्रशंसा करते हुये इन पंक्तियों में लिखा है:-
“गुमी हुयी आजादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी, चमक उठी सन् सन्तावन में वह तलवार पुरानी थी, बुन्देलें हर बोलों के मुँह से हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी.”
दस वर्ष की आयु में विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव से हो गया। बाद में पति का निधन हो गया. इस तरह महारानी को एक के बाद एक महान दुःख झेलने पड़े. तरह तरह की विपरीत परिस्थितियों में उन्हें राज्य की बागडोर भी सम्हालना पड़ी. इधर पड़ोसी राजा महाराजा भी जब तब आक्रमण करते, कभी अंग्रेज शासक परेशान करते.
अंततः उन्होंने घोषणा कर दी कि ‘झाँसी मेरी है, मैं अंग्रेजों को झाँसी कभी नहीं दूँगी. मैं अंतिम समय तक युद्ध करूंगी. पड़ोसी ओरछा नरेश के दीवान नत्थे खाँ को उसके हमले जबाव दिया पर तोपची मारा गया और किले की दीवार टूट गयी परिणामतः दुर्ग से बाहर जाना पड़ा. वे अपने सैनिकों के साथ पीठ पर अपने दत्तक पुत्र को बाँधकर ग्वालियर चली गयी. तात्याटोपे भी वहाँ पहुंच चुके थे. यहाँ ग्वालियर के राजा जियाजी राव को हराकर किले पर कब्जा कर लिया. राजा भाग कर अंग्रेजों की शरण में चला गया. इधर ह्यूरोज ने ग्वालियर पर हमला बोल दिया. सैनिकों ने वीरता पूर्वक अंग्रेजों की फौज का मुकाबला किया किन्तु सफलता नहीं मिल सकी.
अंतिम समय में गम्भीर रूप से आहत होने के बाद प्राण शून्य हो चुकी महारानी के शव को उनके अंगरक्षको ने पास की कुटिया में ले जाकर अंतिम संस्कार कर दिया. अंग्रेजों की चाल जिन्दा पकड़ने की धूर धूसरित हो गयी. इस दौरान घिर चुके रानी के सैनिकों के साथ क्षेत्र के सन्तों और साधुओं ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुये अंग्रेज सैनिकों को रानी के पार्थिव शरीर के पास तक आने से रोके रखा इस अंतिम समय में हुये भीषण संग्राम में लगभग 745 सन्तों-साधुओं ने अपनी आहुति देकर उस कुटिया में हो रहे अग्नि संस्कार तक पूरी मुस्तैदी से डटे रहे अपना बलिदान देकर उन्होंने वीरांगना के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया.
लेखक :- डॉ. किशन कछवाहा संपर्क सूत्र :- 9424744170