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भारत के दैदीप्यमान नक्षत्र वीर सावरकर

1936 का समय था, जब देश के प्रख्यात पत्रकार, शिक्षाविद, लेखक, कवि और नाटक व फिल्म के कलाकार पीके अत्रे जी ने सावरकर जी को “स्वातंत्र्यवीर” की उपाधि से विभूषित किया।

यह एक कटु सत्य है कि भारत माँ के जिस सपूत ने अपने जीवन का सर्वस्व भारत की स्वतंत्रता की वेदी पर आहूत कर दिया उन्हें भारतीय राजनीति के सिरमौर तथाकथित लोगों ने उनके समर्पण को कलंकित करने में लेशमात्र विचार नहीं किया।

अथाह, असहनीय यातना सहकर देह से सांसों का संबंध तब भी इसीलिए अटूट था क्योंकि वह स्वतंत्र भारत का अरुणोदय अपने अथक आंखों से अपलक निहारना चाहते थे, किंतु स्वतंत्र भारत के तथाकथित कर्मवीरों ने अपनी मातृभूमि के स्वतंत्रतोत्सव से उन्हें वंचित कर दिया। तन तो देश में था किंतु मन एक लंबे वनवास के लिए निकल पड़ा।

एक नहीं दो-दो बार काले पानी की अनंत यातना देने वाली मृत्यु तुल्य सजा मिलने के पश्चात भी भारत माँ के वात्सल्यमयी आँचल की छाँव में आने के लिए लालायित, अंडमान निकोबार से भारत तक की लंबी यात्रा अथाह अगम सागर की छाती को चीरते हुए तैरकर पूर्ण करने वाले स्वातंत्र्यवीर सावरकर को स्वतंत्र भारत में स्वीकार करने वाला कोई भी न था…!!!

एक सच्चे देशभक्त के लिए मृत्यु ने भी अभिवादन करके राष्ट्र कार्य के लिए जिन का मार्ग प्रशस्त किया स्वतंत्र भारत में उनकी साँसे, उनका जीवन बोझिल हो गया था।

जिनके आत्म भाव कविताओं में गढ़कर आज भी आत्मा को उद्वेलित करते हैं। जिनकी लेखनी ने वामपंथी विचारधारा से प्रभावित इतिहास को भारत के वास्तविक इतिहास का आइना दिखाया, जिनके रचित शब्दों ने भाव रूपी नाटक के माध्यम से जन जागृति की मशाल जलाई ऐसे प्रखर कवि,इतिहासकार, नाटककार, प्रबल राजनीतिज्ञ दार्शनिक पर अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी की हत्या के झूठे आरोप मढ़े गए ।

अहिंसा समर्थकों ने हिंसात्मक कार्यवाही करके उन्हें हानि पहुंचाई। यहाँ तक कि तत्कालीन सरकार ने उन्हें आतंकवादी घोषित कर कारागार में डाल दिया। न्यायालय द्वारा उन्हें निरपराधी घोषित करने के पश्चात इस आश्वासन के साथ मुक्त किया कि वह राजनीतिज्ञ क्षेत्र से संन्यास ले ले…यह सभी सावरकर जी के साथ स्वतंत्र भारत में ही घटित हुआ था।

आश्चर्य कि जिन सावरकर को 1937 में हिंदू महासभा का सदस्य बनाया गया था, जिन सावरकर ने हिंदू एकता पर जोर दिया था, जिन सावरकर ने “हिंदू” शब्द को गढ़ा था। दूषित राजनीति के चलते कोई भी हिंदू सावरकर का संरक्षण करने के लिए संगठित नहीं हुआ।

इतिहास पुरुष जिसने परतंत्रता के विरुद्ध लड़ाई तो लड़ी परंतु स्वतंत्रता उनके कार्यों का यशोगान न कर सकी। भारत भूमि न कभी सपूतों से विहीन थी न है और न कभी रहेगी किंतु राष्ट्र विरोधी विचारधारा की तीव्र सुनामी में युगों-युगों से इन सपूतों के निस्वार्थ सेवा कार्य, राष्ट्र के प्रति समर्पण प्रभावित होते रहेंगे।

राष्ट्र के प्रति कार्य करने वाले लोगों का सामर्थ्य कभी समाप्त नहीं होगा किंतु अब ऐसे स्वतंत्र वीर सावरकर के जन्मोत्सव (28 मई 1883) पर आत्मोत्कर्ष के साथ-साथ भावों का, विचारों का, समर्पण का मंथन कर, स्वार्थ के विष को त्याग के स्वविवेक से, स्वतंत्रता के यज्ञ में आहुति बने इन महापुरुषों के पवित्र ध्येय को स्वीकार कर अमृतोपन करना होगा।

सावरकर एक व्यक्ति नहीं हैं, एक विचार हैं. वो एक चिंगारी नहीं हैं, एक अंगार हैं. वो सीमित नहीं हैं, एक विस्तार हैं।

जब हम इन महापुरुषों के पवित्र समर्पण को स्वीकार करेंगे तभी भारत की स्वतंत्रता फलीभूत होगी! तभी हिंदू अपने वैभव के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करेगा। हिंदु और हिंदुस्तान परम वैभव को प्राप्त करके समग्र, संपूर्ण, सशक्त और स्वाभिमानी भारत के रूप में विश्व गुरु के शीर्षासन पर आसीन होगा।

डॉ. नुपूर निखिल देशकर की कलम से