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भारत माँ के वीर सपूत – वीर सावरकर…

वीर सावरकर एक ऐसा नाम जिसे भारत के तथा कथित बुद्धिजीवियों ने एक अपराधी की तरह भारत के जनमानस के सम्मुख रखा , किंतु भारत की जागृत चेतना ने भारत माँ के इस सपूत के जीवन पर, उनके कार्यों पर, उनके गीतों और कविताओं पर, उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर शोध करके जब इस आपराधिक पर्दे को हटाया तो पाया

कि यह चरित्र उदित सूर्य की भांति प्रकाशमय ज्योतिर्मय है. जिसने ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र को अपने व्यक्तित्व के प्रकाश से स्पर्श किया और भारत की विकृत, शोषित और निर्बल मानसिकता का स्वच्छंद रूप से मार्गदर्शन किया.

विनायक दामोदर सावरकर जिसमें एक कवि, एक लेखक,एक समालोचक, एक अधिवक्ता, एक दार्शनिक, एक विद्वान और एक महान क्रांतिकारी स्पंदित होता था. जिनकी वाणी का ओज राष्ट्रभक्ति के लिए चुंबकीय आकर्षण रखता था. आपके विचार राष्ट्र हित और चिंतन से विरक्त मन को एक पुष्प की भांति माँ भारती के चरणों में समर्पित करते थे.

आज भी जिनके लिखे गीत और कविताएँ शब्दस: हृदय के सुप्त तारों को झंकृत करके आत्मा प्रेरणा से भर देती हैं. सावरकर जी का जीवन चरित्र जीवन में आने वाले संघर्षों का सामना करने हेतु जीवटता का अध्याय पढ़ाता है. आपने दो बार काले पानी की सजा पानी के पश्चात भी विशाल खारे सागर को पार करके, मृत्यु को परास्त करके

अपनी भारत माता के शस्य श्यामल आँचल में आनंदलास्य किया. स्पष्टवादी इतने कि गांधीजी के कार्यों पर खुलकर आलोचना करते. जीवन में हिंसा कभी भी नहीं कि किंतु अहिंसा के विचारों का कभी समर्थन भी नहीं किया. प्रत्येक पग में देशद्रोहियों के द्वारा इन्हें प्रताड़ित किया गया किंतु इन्होंने अपनी प्रखर बुद्धि और विवेक से उनका सामना करते हुए.

“श्री महामंगले” गान पर विजय पताका फहराते हुए परतंत्रता से “पूर्ण स्वतंत्रता” के मात्र स्वप्न ही नहीं देखे उसे साकार करने के प्रयत्न किये और सफल रहे. जेल में साधनों के अभाव में भी अपने बौद्धिक, रचनात्मक कार्यों को विराम नहीं दिया. कोलू के चारों ओर जब मानवता के भावों को निचोड़ा जा रहा था.

तब मातृ भूमि से प्रेम के बंधन ने सामर्थ्य को शक्ति प्रदान की और एकाकी घोर कष्ट पूर्ण सजा को काटते काटते खारे सागर से मित्रता का मधुर संबंध जोड़ा, आशा की नई किरणों को संकलित किया और जब इन संग्रहित किरणों का ज्वालामुखी विस्फुट हुआ तब गुंजायमान हुआ “जयोस्तुते” का आत्मगान,

आज भी वीर सावरकर जी के चिंतन को समझने का, लिखने का सामर्थ किसी भी कलम में नहीं है. क्योंकि उस साधारण प्राणी के व्यक्तित्व में या तो कवि होगा या दार्शनिक या बुद्धि होगी या सामर्थ, सावरकर जी का व्यक्तित्व इससे कहीं अधिक सक्षम और श्रेष्ठ था. जब जीवनभर माँ भारती की धानी चूनर के लिए संघर्ष किया.

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तब जीवन के उत्तरार्ध में मृत्यु के देवता को आत्मसमर्पण क्यों किया? क्यों इच्छामृत्यु को स्वीकार कर चिरनिंद्रा में समाधिस्त हुए? क्यों स्वतंत्र भारत की स्वभूमि पर अपना स्व शांत चित्त होकर समर्पित कर दिया? इस पर फिर कभी चिंतन करेंगे.

डॉ. नुपूर निखिल देशकर की कलम से