भूलचूक के सबक से परिश्रम की पराकाष्ठा तक…
भाजपा की ही एक वैचारिक पत्रिका का संपादन करते हुए शिवराजसिंह चौहान पर एक विशेषांक निकाला था, यह बात पिछले चुनाव के ठीक एक साल पहले की है। इस विशेषांक की खास बात यह थी कि इसमें अपने विचार देने के लिए राजधानी के उन सभी वरिष्ठ व ख्यातनाम पत्रकार मित्रों से आग्रह किया था
जिनकी पहचान भाजपा सरकार के विरोधी और मुख्यमंत्री श्री चौहान की समय बेसमय खिंचाई करने वालों की थी। यह एक दुस्साहस था लेकिन मैंने किया। इसमें जितने भी लेख आए उनमें प्रायः मूलस्वर यही था कि स्थितियां कैसे भी हों पर मुख्यमंत्री की सहजता, सर्वग्राहिता और समन्वयी दृष्टि का कोई जवाब नहीं।
स्वास्थ्य एवं शिक्षा क्षेत्र के पिछड़ेपन की बात को रेखांकित करने के सिवाय आलोचना म़े ज्यादा कुछ नहीं था। बल्कि सामाजिक सरोकारों की योजनाओं को लेकर तारीफ ही की गई थी। मुख्यमंत्री का दायित्व सँभालते हुए शिवराज जी की यह दूसरी पारी है। पिछली पारी 13 वर्ष की थी। यह पारी मार्च में एक साल पूरी होगी। मेरी आज भी उन पत्रकार मित्रों से प्रायः चर्चाएं होती हैं कि वे शिवराज जी पर क्या राय रखते हैं.?
एक वरिष्ठ पत्रकार की राय थी कि पिछली पारी के आखिरी दो वर्षों में शिवराज जी के व्यक्तित्व व कार्यशैली में काफी कुछ बदलाव आया था। न जाने क्यों वे इतनी हड़बड़ी में रहते थे, जबकि धैर्य ही उनकी वो मूल्यवान पूँजी थी जिसकी वजह से वे यहां तक की यात्रा तय की।
मैंने पूछा कोई उदाहरण ? वे बोले- कई हैं, लेकिन मेरी समझ में उनकी प्रमोशन में रिजर्वेशन वाली बात सबसे उल्लेखनीय है। वो एक गंभीर और बेहद सूझबूझ वाला नीतिगत मामला था। जिसे पहले संगठन के पदाधिकारियों, फिर कैबिनेट के सदस्यों से विचार विमर्श करना था उसके मायनस और प्लस का आँकलन किया जाना था, फिर वे किसी निर्णय पर आते।
शिवराज जी के वो- माई के लाल.. वाली बात को वैसे ही हाइप मिली रही है जैसे कि उस समय दिग्विजय सिंह के उस कथित वक्तव्य को कि.. सवर्णों आपना वोट धर लो..। ये पत्रकार मित्र मुख्यमंत्रित्व की पिछली पारी की शिवराज जी की सबसे बड़ी चूक मानते हैं। समय की नब्ज पर नजर रखने वाले एक वरिष्ठ रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारी भी हैरत जताते हैं।
कभी मुख्यमंत्री के मुँह से भावावेश में कई बातें निकल जाती थी जो अधिकारियों को असमंजस में डालने वाली होती थीं लेकिन उनका जनता में सम्मान और संवेदना और बढ़ा देती थीं। मुझे याद है कि एक बार मालवा में ओलापाला पड़ा था तो वे गहरी संवेदना के साथ बोल गए- ये ओला फसल पर नहीं मेरे दिल पर गिरे हैंं मैं अधिकारियों से कहता हूँ कि जहाँ चार आने का भी नुकसान हुआ हो वहां बारह आने का नुकसान लिखें।
सांप्रदायिक समरसता के मामले हाल यह था कि मोदीजी के स्वभाव के विपरीत शिवराज जी कभी भी रोजाअफ्तर करने व ऐसे मौकों पर जालीदार टोपी पहनने से नहीं कतराए। मेरे मित्र पत्रकार ने लिखा था कि आजकी तारीख में पूरे देशभर के मुसलमानों के लिए भाजपा में यदि सबसे भरोसेमंद कोई चेहरा है तो वह शिवराज सिंह चौहान का है। जबकि चौहान बाल स्वयंसेवक रहे हैं और उनके रगरग में संघ बसा है।
वे समाज के सबसे सर्वग्राही राजनेता रहे हैं पर जो बात तीन साल पहले रही उसमें कुछ गर्द सी जम गई है। माई के लाल..का सीधा परिणाम मानने वालों की आज भी बड़ी संख्या है जिसके चलते पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी महज 10 सीटों से सरकार बनाने से चूक गई। यह तो कमलनाथ का अहंकारी कारपोरेटी स्वभाव था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनौती देदी और जूनियर सिंधिया ने 1967 में अपनी दादी की तर्ज पर सरकार गिरा दी।