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भ्रम और यथार्थ के दो पाटों के बीच किसान आंदोलन…

“भ्रम और यथार्थ के दो पाटों के बीच किसान आंदोलन”

कृषि सुधार कानून, उससे उपजे आंदोलन में छिपी हुई मंशा और उससे आगे की बात करें, उससे पहले मेरी अपनी बात। वह इसलिए कि आपनी भी गर्भनाल खेत में गड़ी है। देश में मेरे जैसे साठ से सत्तर प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनकी दोहरी पहचान है। गाँव है, अपने खेत हैं इसलिए किसान, लेकिन जीविका का आधार नौकरी व अन्य व्यवसाय।.. मसलन मैं पत्रकार, कोई शिक्षक, तो कोई अन्यवृत्ति से जुड़ा।

यह सही है कि खेती यदि लाभ और रसूख का व्ववसाय होता तो यह प्रतिशत साठ-सत्तर से घटकर काफी नीचे रहता, शायद मैं भी पूरपार किसान ही होता। इसलिए अब तक का सर्वसिद्ध तथ्य यही है कि अकेले खेती के दमपर इज्ज़दार व आराम की जिंदगी बसर नहीं हो सकती। क्यों..?

क्योंकि यह लाभ का व्यवसाय नहीं है। झगड़ा इसे लाभ का व्यवसाय बनाने से जुड़ा हुआ है। सरकार कहती है कि हमें खेती को हर-हाल पर लाभ का सौदा बनाना है और हरियाणा-पंजाब के किसान ( या किसानों का खोल ओढ़े सियासतदान..? राम जाने) कहते हैं कि कृषि सुधार के तीनों कानून किसानों को लाभ दिलाने की बजाय उन्हें गुलाम बना देंगे।

पहले अपनी बात-भोपाल के एक अखबार का संपादक रहते हुए एक बार ब्यूरो आफिस खोलने विदिशा जाना हुआ। लौटने लगा तो ब्यूरो चीफ ने दो बोरिया कार की डिक्की में रख दीं। मैंने पूछा-ये क्या? वह बोला-इसमें गेंहू है। मैंने चौकते हुए कहा कि यह क्या बेहूदगी है ..? विदिशा से दो बोरी गेहूं लाद के ले जाऊंगा.. मैं।

तो वह पत्रकार साथी बोला साहब यह विदिशा का गेहूं है.. यह विदिशा वालों को भी नसीब नहीं। खड़ी फसल बिक जाती है। इसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ गेहूं कहा जाता है इसकी कीमत सामान्य गेहूं से दोगुनी चौगुनी होती है। वहीं मैंने जाना कि मध्यप्रदेश के सिहोर और आष्टा का गेंहूँ भी इसी कोटि का है, बल्कि इससे उम्दा।

भोपाल से इंदौर से जाते वक्त राजमार्ग के किनारे नजर ड़ालेंगे तो सिहोर से देवास के बीच कई नीले रंग के खूबसूरत गोदाम दिख जाएंगे। ये गोदाम फूड कार्पोरेशन आफ इंडिया(एफसीआई) के नहीं हैं..। ये गोदाम हैं आईटीसी के जिसके आशीर्वाद ब्रांड के आटे को दुनियाभर में सबसे ज्यादा बिकने का खिताब मिला हुआ है।

आईटीसी (इंडियन टोबैको कार्पोरेशन अँग्रेजों के जमाने की कंपनी है जो पहले सिगरेट और तंबाकू का व्यापार करती थी)। विल्स जैसे ब्रांड इसी के हैं समय के साथ इस कंपनी ने भी रूप बदला और अब फूड इंडस्ट्री की टायकून कंपनी है।

तो ये गोदाम किसानों के ई-चौपाल के नाम से जाने जाते हैं। विदिशा, आष्टा, सिहोर के प्रायः किसान अपना गेंहूँ आईटीसी को ही बेंचते हैं। इनके कांट्रैक्ट में पारले, ब्रिटानिया जैसी कंपनियां भी रहती हैं जो खलिहानों से अन्न उठाती हैं। यहां के किसान आईटीसी, पारले, ब्रिटानिया को इसलिए अपनी उपज बेंचते हैं क्योंकि इन्हें यहां एमएसपी से डेढ़ से दो गुना दाम मिलता है।

वे निश्चिंत हैं क्योंकि यदि इन कंपनियों ने अन्न नहीं खरीदा तो मंडियां हैं ही। फर्ज करिए यदि आईटीसी की चौपालें नहीं होतीं तो क्या पाँच एकड़ का काश्तकार अच्छे दाम पाने के लिए पं बंगाल जाने की कुब्बत रखता..आईटीसी का मुख्यालय कोलकाता में है। अब यहां आईटीसी का भी एकाधिकार नहीं बचा, फार्च्यून और रामदेव का पतंजलि समूह भी कूद पड़ा है।

यानी कि सरकारी मंड़ी के बाहर एक स्पर्धात्मक बाजार बना है जहां किसान अच्छे से अच्छे दाम पर अपनी उपज बेंच सकता है। और हाँ ये ई चौपालें कोई आज की बनी हुई नहीं हैं..कृषि सुधार कानूनों के लागू होने के दशकों पहले की हैं। भोपाल के गुलमोहर इलाके में जहां मैं रहता हूँ मेरी सोसायटी की कदम भर की दूरी पर रिलायंस फ्रेश, बिग बाजार, आनडोर के आउटलेट्स हैं।

यहां ताजी सब्जियां और फल मिलते हैं। सोसायटी के सामने लगने वाली छोटी सी सब्जी मंडी है। आनडोर, बिग बाजार में यहां से तीस से चालीस प्रतिशत कम दामों में सब्जी-फल बिकते हैं। मैंने सड़कपर बैठे सब्जी वाले से पूछा- तुम्हारी सब्जियां वहां से मँहगी क्यों…?

उसके जवाब को इन सुधार कानूनों के बरक्स सुनिए..। वो (रिलायंस फ्रेश, बिग-बाजार, आनडोर) मंडियों की बजाय किसानों से सीधे खरीदते हैं। और हम लोग मंडियों से..तो मंडी टैक्स, अढ़तिए का कमीशन, नगरनिगम का शुल्क मिलाकार दाम इतना बढ़ जाता है कि हम चाहकर भी सस्ती सब्जी नहीं दे सकते।

वो बड़े स्टोर वाले मंडी टैक्स, आढ़तियों के कमीशन और नगरनिगम के प्रवेश व बैठकी टैक्स की झंझट से मुक्त रहते हैं, वहां किसानों को अढ़तियों से ज्यादा दाम मिलता है, यानी कि यहां किसान और व्यापारी के बीच का मिडिलमैन गायब। मतलब यह कि यहां भी किसानों को मंडी से ज्यादा दाम मिलता है और दूसरी ओर उपभोक्ता को अपेक्षाकृत कमदाम पर सब्जियाँ।

क्योंकि आधे से ज्यादा मुनाफा खाने वाले अढ़तिए, मंड़ी, मुनिस्पल्टी वाले बीच में नहीं होते। सब्जी और फल बेचने वाले रिटेल स्टोर किसानों से फसल बोने के साथ ही कान्ट्रेक्ट कर लेते हैं। यह व्यवस्था कोई आज की नहीं यूपीए के जमाने की है जिसने खुदरा व्यापार में मल्टीनेशनल्स के निवेश के रास्ते खोले थे।

पत्रकार के साथ-साथ मैं एक छोटा सा किसान भी हूँ। गांव में पंद्रह से बीस एकड़ की काश्तकारी है। शहर से लगा तीन एकड़ का सब्जियों का फार्म है।अब मेरी व्यथा सुनिए..

इस व्यथा में मेरे जैसे बहुतेरे भी शामिल होंगे। गाँव में रहकर खेती कर नहीं सकता क्योंकि सिर्फ उसके माथे परिवार नहीं चलेगा। लिहाजा खेतों को ठास पर देता हूँ। ठास यानी कि इस कानून की परिभाषा में कांट्रैक्ट।

पिछले पाँच-सात सालों से असिंचित रकबे का दो से तीन हजार प्रति एकड़ व सिंचित रकबे का पाँच से छह हजार प्रति एकड़। यानी कि कुल काश्त (15 एकड़) का वर्ष भर में सिर्फ़ साठ से सत्तर हजार रुपए। ठास के अलावा कोई विकल्प नहीं.. वजह गाँवों में अब श्रमिक रहे नहीं। कम काश्त के लिए किराए या खरीद की मशीनरी का मतलब ‘जितने का ढ़ोल नहीं उतने का मजीरा’। ठास (कांट्रैक्ट) की रकम बढ़ाने की बात करि तो परिणाम में खेतों का परती पड़े रहना तय है।

हर गांव में ठास पर खेती लेने वालों का एक समूह है जो एक दूसरे के हित को देखता है। जैसे आपने एक को हटाकर दूसरा चुनना चाहा..तो सामने वाले का सवाल होगा.. आखिर इसे क्यों हटाया। एक नए किस्म की पराश्रिता।

और सब्जी वाले खेत का हाल यह कि चारों तरफ की तार बाड़ी, पंप हाउस, चौबीस घंटे बिजली, पहुंच के लिए काँक्रीट की रोड़, मंडी भी नजदीक लेकिन सात साल पहले पूरे रकबे का बीस हजार रुपए सालाना जो तय हुआ कोशिशों के बाद भी चार आना तक नहीं बढ़ा। इसमें बागवाँन को दोष दें वह भी सही नहीं। खेत की पालक मंड़ी में आजतक कभी भी दो रुपये गट्ठी से ज्यादा में नहीं बिकी।

और इधर सीजन में भी उपभोक्ताओं को दस रुपए गट्ठी से सस्ती नसीब नहीं हुई। दो रुपये की पालक दस रुपए में.. ये बीच के आठ रुपए कौन खाता है..? ये जो आठ रुपए खाने वाला सिस्टम है उसी सिस्टम के गड्ढे में किसान सालों साल से फँसा है। और सियासत की ताकते हैं कि उसे इस गडढे से निकलने नहीं देती.. जब भी सुधारों की बात होती है तो ये यही आभासी भय लेकर उनके बीच पहुंच जाते हैं।

अब यदि इतना सब कुछ पढ़ चुके हैं तो जानें कि कृषि सुधार के ये तीन कानूनों में है क्या..?

एक-कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020,
इस कानून के तहत किसान अपनी उपज मंडियों के बाहर, अन्य राज्यों में भी बिना कोई टैक्स दिए बेंच सकता है। यद्यपि सरकारी मंडी का विकल्प बना रहेगा। यानी कि जैसे आष्टा के गेहूँ की माँग गुजरात में है तो वह बिना किसी टैक्स के अपना अन्न बेंच सकेगा।

उसे जाने की भी जरूरत नहीं। ई-ट्रेडिंग आसान रास्ता है।कानून की मंशा यह कि किसान वो फसलें ज्यादा से ज्यादा लें जिनकी माँग और दाम ज्यादा से ज्यादा हैं। वह सिर्फ गेहूं चावल पैदाकर मंडी और एमएसपी पर आश्रित न रहे।

दो- किसान (सशक्तिकरण व संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक। यह कानून अनुबंध की खेती की इजाजत देता है। अनुबंध की खेती यानी कि जमीन को फसल उगाने के लिए लेना और उसके एवज में किसान को पैसे देना (जैसा कि अभी ठास व्यवस्था में है)। इसी में यह भी शामिल है कि हमारी फसल को बोने के साथ ही क्रय के लिए अनुबंधित कर लेना। यद्यपि यह व्यवस्था बिना कानून के आए ही चल रही थी।

इस व्यवस्था के सबसे बड़े कांट्रैक्टर भी पंजाबी किसान ही हैं जो मध्यप्रदेश की नर्मदा पट्टी और छत्तीसगढ़ की धान पट्टी में ऐसा कर रहे है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट किया है कि कांट्रैक्ट फार्मिंग में अच्छे खाद बीज अधोसंरचना की जिम्मेदारी कांट्रेक्टर की होगी। जमीन लीज पर नहीं रहेगी यहां तक कि कांट्रेक्टर की बनाई अधोसंरचना में वह कभी अपना हक नहीं जमा सकेगा। फसल के उच्चतम दाम में खरीद के काँट्रैक्ट तय होने के बाद कान्ट्रैक्टर मुकरेगा नहीं।

इसका एक हालिया उदाहरण है। फार्च्यून ग्रुप ने होशंगाबाद के किसानों से उच्चतम मूल्यपर चावल खरीदी का करार किया था। चावल की पैदावार को देखते उसका बाजार दाम गिरा.. फार्च्यून ग्रुप  जब खरीदी से मुकरने लगा तब एसडीएम ने हस्तक्षेप कर नए कानून के मुताबिक उतना भुगतान करने हेतु बाध्य किया जितने का पूर्व में करार था।

कांट्रेक्ट वाला कानून आने के बाद उन पचास साठ लोगों को जमीन व उपज के अच्छे अनुबंधित दाम मिलेंगे जो अभी तक औने-पौने दाम पर ठास में देने हेतु विवश थे। बड़ा व्यवसायी छोटे छोटे किसानों की जमीन को मिलाकर जब बड़े पैमाने की खेती करेगा तो खेतों की अधोसंरचना के विकास के साथ उसके मूल्य बढ़ेंगे।

तीन-आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, यह कानून अनाज, दालें, आलू, प्याज जैसे खाद्य पदार्थों की आपूर्ति व वितरण को विनियमित करता है। सिर्फ आपदा और युद्ध काल को छोड़कर शेष समय इनका व्यापार और भंडारण की सीमा मुक्त रहेगी। इसमें भंडारण की सीमा को मुक्त रखने की बड़ी आपत्ति है। आशंका यह कि जमाखोरी बढ़ेगी जो महँगाई को बेलगाम करेगी।

वस्तुतः सरकारी खरीद की मजबूरी के चलते एफसीआई के गोदाम जरूरत से ज्यादा भरे हैं। भंडारण व्यवस्था न होने से अरबों टन अन्न प्रति वर्ष सड़ता है जिसे समुद्र में फेकने के लिए भी सरकार को धन खर्च करना पड़ता है। भंडारण में छूट देने से एफसीआई पर दवाब कम होगा। अन्नों का निर्यात बढ़ेगा।

दुर्भाग्य यह कि देश में अन्न के बंपर उत्पादन के बाद भी वह निर्यात में दुनिया भर में बहुत पीछे है। सरकारी खरीद की सुनिश्चितता मानते हुए किसान (पंजाब और हरियाणा के) जबरदस्त खाद और पेस्टीसाइड के बूते घटिया अन्न उपजाते हैं वही एफसीआई के गोदामों को भरता है। सो स्टाक लिमिट को मुक्त करना जमाखोरी की बजाय विश्व व्यापार को बढ़ाएगा।

अब जानते है कि किसान गुस्साए क्यों हैं..? अव्वल तो यह कि यह आंदोलन पंजाब-हरियाणा का है। इसमें वास्तविक किसानों का सरोकार कितना है इस पर भी सवाल है। सो इसे देश भर के किसानों का आंदोलन कहना गलत है। उदाहरण के तौर पर इसी आंदोलन के दरम्यान ही राजस्थान में पंचायतों के चुनाव हुए,

इन चुनावों में भाजपा की ऐतिहासिक जीत हुई जबकि 65 प्रतिशत वोटर किसान ही थे। सो राजस्थान जो कि दिल्ली से सटा है के किसानो पर इस आंदोलन कोई खास असर नहीं रहा। बहरहाल तहरीर चौक की जस्मिन क्रांति का ख्वाब पाले वहां एक जमावड़ा तो है ही जो हाइवेज पर कब्जा किए बैठा है। अब उसकी मांगों पर आते हैं।

एक- तीनों कृषि कानूनों को वापस लो। क्यों वापस लो इस बात पर किसान वार्ता करने को तैयार नहीं। यह एक लठमार जिद है जिसके चलते वे (उनकी खोल में बैठे मोदी विरोधी गठबंधिए) सरकार को झुका हुआ देखना चाहते है।

दो- एमएसपी व एफसीआई माडल की खरीद जारी रहे। केन्द्र सरकार ने लिखित स्पष्ट किया है कि एमएसपी जारी रहेगी और जो कहता है कि सरकारी मंडियां बंद हो जाएंगी वह किसानों से झूठ बोलता है। अब इसे ऐसे समझिए-वोटीय राजनीति के चलते पीडीएस सिस्टम कभी खत्म नहीं होगा।

यूपीए सरकार के बनाए कानून के मुताबिक खाद्य सुरक्षा के प्रावधान को जारी रखना होगा। इसके लिए सरकार को अन्न की जरूरत होगी। वह न भी चाहे तो भी एमएसपी पर ही खरीद करनी होगी और एफसीआई के गोदामों को भरे रखना होगा। सो यह भी किसानों को बरगलाने का प्रपोगंडा मात्र है..।

तीन- किसान संगठनों को संदेह है कि किसानों की रियायती व मुफ्त बिजली बंद कर दी जाएगी क्योंकि 2003 के बिजली कानून का संशोधन विधेयक आया है। सही बात यह कि पंजाब के रसूखदार कभी नहीं चाहेंगे कि उनके फार्महाउसों की बत्ती गुल हो। सीमांत और लघु किसानों के लिए रियायती व मुफ्त की बिजली मिलनी जारी रहेगी। वैसे यह राज्यों का मामला है वे चाहे जैसे भी अपनी बिजली लुटा सकते हैं।

चार- अब असली मांग यह है कि पराली जलाने के जुर्म में 5 साल की जेल और 1 करोड़ का जुर्माना रद्द हो तथा जिन किसानों को इस जुर्म में पकड़ा गया है उन्हें बाइज्ज़त बरी किया जाए। अब क्या बताए.. समूचे पंजाब को कैंसर के और दिल्ली को अस्थमा के आगोश में पहुँचाने के लिए यहां की खेती की पद्धति और तौर तरीके ही जिम्मेदार हैं।

इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन तक ने गंभीरता से लिया है। दूसरों की जिंदगी को दाँव पर लगाकर किसानी के नामपर किसी को भी नंगानाच करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। हरित क्रांति के जनक एमएस स्वामिनाथन गाँधीवादी खेती के पैरोकार है जहाँ प्रकृति और पर्यावरण से छेड़छाड़ न हो।

कृषि सुधार कानूनों के आने के बाद ‘द वायर’ को दिए एक इन्टरव्यू में स्वामिनाथन ने कृषि सुधार के प्रयासों को सामयिक कदम बताया और कहा कि इसकी सफलता इसे लागू करने की ईमानदारी पर निर्भर है। प्राख्यात अर्थशास्त्री गुरुचरण दास कहते हैं कि यदि इन कृषि सुधार कानूनों को लागू करने से पहले किसानों को समझा दिया जाता तो आज की तस्वीर ही कुछ और होती। बहरहाल सुधार के ये कदम उतने ही ऐतिहासिक व क्रांतिकारी हैं,

जो 1991 में नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार ने शुरू किए थे। उस सुधार के आड़े भी वामपंथी आए थे और इस सुधार के सामने भी वे किसानों का खोल ओढ़े खड़े हैं। और अंत मेंं माकपा की किसान यूनियन की महिला कार्यकर्ताओं के नारे- हाय हाय मोदी.. मर जा तू.. को याद रखिए और बिना बताए जान लीजिए कि इस कथित किसान आंदोलन की निगाहें कहाँ हैं और निशाने पर कौन है।

जयराम शुक्ल                                 

संपर्क:- 8225812813               

(वरिष्ट लेखक और पत्रकार )