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महाकौशल के वीर हुतात्मा शंकर शाह- रघुनाथ शाह मंडावी

महाकौशल के वीर हुतात्मा शंकर शाह- रघुनाथ शाह मंडावी

राष्ट्र अर्चन में अर्पण सुमन कीजिए।

 फांसीयों के हवाले जो हंसकर हुए,

 उन शहीदों को पहले नमन कीजिए।।

  भारत भूमि आदिकाल से वीर प्रसूता रही है। मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व निछावर करना इस भूमि का संस्कार रहा है। इस भूमि के राजपूत वीरों के शोर्य की गाथाएं अनुपम- अप्रतिम रही हैं। राजस्थान के कई राजपूत वीर तो ऐसे हुए हैं कि युद्ध भूमि में जिनका शीश कट गया किंतु उनका धड़ तब तक लड़ता रहा जब तक कि संपूर्ण शत्रु सेना का संहार नहीं कर दिया।

राणा सांगा एक ऐसे वीर पुरुष थे जिनके शरीर पर पचासी घाव के निशान थे। महाराणा प्रताप ऐसे अजेय योद्धा थे कि अपने एक ही बार से शत्रु सेना के घुड़सवार सहित घोड़े के दो टुकड़े कर देते थे। जिनके युद्ध कौशल के किस्से सुनकर शत्रु कांपते थे।वीर शिवाजी की खड़ग के सामने कोई टिक नहीं पाता था।

गुरु गोविंद सिंह ने तो शत्रु सेनापति का एक ही तीर में मस्तिष्क भेद कर शत्रु सेना को खदेड़ दिया था। मेवाड़ के वीर दुर्गादास तो शत्रु के भी सपने में आते थे। भारत भूमि वीरों की शौर्य की गाथाओं  से भरी पड़ी है। इस भूमि के रक्त में वचन व स्वाभिमान के लिए प्राण निछावर की बलिदानी परंपरा का संस्कार रहा है। तभी प्राचीन काल से यह पुण्य भूमि संपूर्ण विश्व के लिए वंदनीय- अभिनंदनीय रही है ।

महाकौशल गढ़ा- मंडला रियासत के वीर राजा शंकर शाह पुत्र रघुनाथ शाह के बलिदान की गाथा वीरों के इतिहास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। 1857 की क्रांति की हुतात्मा शंकरशाह व रघुनाथ शाह गढ़ा -मंडला और जबलपुर के गोंड  राजवंश के प्रतापी राजा संग्राम शाह के वंशज थे ।

इस राजवंश की कई पीढ़ियों ने देश और आत्मसम्मान के लिए अपने प्राण निछावर किए थे ।राजा संग्रामशाह के बड़े पुत्र दलपत शाह थे इनकी पत्नी वीरांगना रानी दुर्गावती और पुत्र वीर नारायण ने अपनी मातृभूमि और आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए अकबर की सेना से युद्ध कर अपना बलिदान दिया ।

फिर अकबर ने अपने अधीनता में रानी दुर्गावती के देवर चंदा नरेश चंद्रशाह को राजा बनाया इन्हीं चंद्रशाह की 11 वीं पीढ़ी में अमर शहीद हुतात्मा शंकरशाह ने जन्म लिया 18 57 में भारत में अंग्रेजी राज के गवर्नर डलहौजी ने देसी रियासतों को हड़पने की अपनी नीति – ( Doctrine of laps ) के तहत बहुत ही क्रूरतम अत्याचार करते हुए अनेक राज्यों को एक षड्यंत्र के तहत हड़प्पा व राजाओं को फांसी तथा कठोर यातनाएं दी ।

शंकरशाह  व पुत्र रघुनाथ शाह ने अंग्रेजों की क्रूरता  के आगे समर्पण नहीं किया ।रानी झांसी लक्ष्मी बाई ने भी राजा शंकरशाह  को एक गुप्त पत्र लिखा जिसकी भनक अंग्रेजी  हुकूमत को लग गई और अंग्रेजी शासन ने अपने गुप्तचर महल में साधु के वेश में भेज कर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग की तैयारी की सूचना प्राप्त कर ली ।

जब अंग्रेजों को पता चला कि राजा शंकर शाह अपने पुत्र रघुनाथ शाह अंग्रेजी हुकूमत जिसने झांसी,अवध, नागपुर ,कानपुर, रामगढ़ को अपनी हड़प नीति के तहत व्यपगत कर लिया था ।इस कारण विद्रोह की आग संपूर्ण महाकौशल में फैल गई ।

तब  राजा शंकरशाह जमीदारों -मालगुजारौं  की सभाये करके अंग्रेजी सरकार के खिलाफ भड़काने के प्रयत्न कर रहे थे एवं बड़ा विद्रोह होने वाला था ।तब अचानक अंग्रेजी डिप्टी कमिश्नर ने अपने गुप्त चर चारों तरफ फैला दिए।14 सितंबर 1857 की मध्यरात्रि में अंग्रेजों ने लगभग 20 घुड़सवार और 40पैदल सिपाहियों के साथ राजा की हवेली पर धावा बोल दिया ।

राजा शंकरशाह व पुत्र कुंवर रघुनाथ शाह और 13 अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। पूरे महल की तलाशी ली गई जिसमें राजा द्वारा सरदारों व जमीदारों को लिखे गए पत्र और राजा की कविताएं हाथ लगी ।कविताएं कुछ इस प्रकार थीं ।

 मार अंग्रेज रेज,कर देई  मात चंडी

 बचौ नहीं बैरी,बाल बच्चे सन्हारिका

 शंकर की रक्षाकर, दास प्रतिपाल कर

 दीन की सुन ,आय मात कालिका

 खाई लेत मलेछन को,झेल नहीं करो अब।

 भच्छन कर तच्छ्न  धारै माता कालीका ।।

 इस तरह की कविता रघुनाथ शाह की हस्तलिपि में भी मिली ।इन्ही  कविताओं को आधार बनाकर उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया ।राजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथ को बंदी बना कर हाईकोर्ट एलगिन हॉस्पिटल के पास जबलपुर में रखा गया है।

वर्तमान में इस स्थान पर वन विभाग का कार्यालय बन गया है ।बतलाया जाता है कि राजा के सामने कुछ शर्तें रखी गई -जिनमें अंग्रेजों से संधि करना ,अपना हिंदू धर्म त्याग कर ईसाई धर्म अपनाना  मुख्य थी ।पर राजा ने उन्हें मानने से इनकार कर दिया ।अंग्रेजों को डर था कि अगर राजा ज्यादा दिन कैद में रहे तो छावनी के सैनिक और जनता विद्रोह कर देगी ।

अंग्रेजों ने तुरंत सैनिक अदालत का गठन किया और सैनिक आयोग बनाने का ढोंग किया ।इसी बीच 52 वीं  रेजीमेंट के सैनिकों ने राजा व राजकुमार को जेल से मुक्त कराने का प्रयास किया जो सफल नहीं हो सका। अदालत ने राजा शंकरशाह व कुंवर रघुनाथ शाह कों देशद्रोही कविताएं लिखने और लोगों को भड़काने के आरोप में मृत्युदंड की सजा सुनाई ।

राजा व राजकुमार को गिरफ्तारी के कुछ दिन के अंदर 18 सितंबर अट्ठारह सौ सत्तावन जबलपुर एजेंसी हाउस के सामने फांसी परेड हुई ।दोनों को अहाते में लाया गया। दोनों को देखने के लिए विशाल जनसैलाब उमड़ रहा था ।जो आक्रोशित था राजा शंकर शाह व कुंवर रघुनाथ शाह  32 वर्ष के चेहरे पर कोई डर नहीं था।

दोनों के चेहरे शांत और दृण  थे। दोनों की हथकड़ियां खोल दी गई और दोनों को तोपों के मुंह से बांध दिया गया। तोप से बांधते समय राजा व राजकुमार दोनों तेजमय  चेहरे के साथ गर्व भाव से चलकर तोपों के सामने आए और दोनों ने सीना तानकर अपनी देवी की प्रार्थना की ।तोप के चलते ही राजा व कुंवर के शरीर क्षत-विक्षत हो गए।

उनकी हाथ व पैर तोप के पास गिरे क्योंकि तोप  से बंधे थे शरीर के भाग लगभग 50 फीट तक दूर  गए। चेहरे को कोई क्षति नहीं पहुंची ,उनकी गरिमा अक्षुण्य रही।

राज परिवार के अन्य सदस्यों को छोड़ दिया गया ।राजा शंकर शाह  की पत्नी फूल कुवर वाई ने दोनों के शरीर को एकत्र कर अंतिम क्रिया- कर्म करवाया और अंग्रेजों से बदला लेने का प्राण (संकल्प) किया परंतु अंग्रेजों के इस क्रूरकर्म से जनता भयभीत ना होकर भड़क गई। लोगों द्वारा दूसरे ही दिन इसी स्थान की पूजा की जाने लगी।

52 वीं  रेजीमेंट के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और इनकी टुकड़ी पाटन दमोह की ओर कूच कर गई । क्रांति की ज्वाला मंडला ,दमोह, नरसिंहपुर, सिवनी, रामगढ़ तक फैल गई ।इसी बलिदान की संख्या में 52 वी रेजीमेंट की  उप छावनी नरसिंहपुर के एक सिपाही गदाधर तिवारी ने मंगल पांडे की तरह विद्रोह कर दिया जिसे पकड़ लिया गया एवं 10 अक्टूबर 1857 की प्रातः 5 बजे नरसिंहपुर के परेठा पुलिस मैदान में तोप से बांधकर अंग्रेजी हुकूमत ने उड़ा दिया ।

महाकौशल क्षेत्र में जगह-जगह क्रांति जन आक्रोश फैल गया रानीफूल कुंवर बाई  ने मंडला आकर क्रांति को जारी रखा और अंततः आत्मोत्सर्ग किया वतन की राह में। मंडला में खैरी की लड़ाई में अवंती बाई ने अंग्रेजों को हराकर संपूर्ण मंडला को अंग्रेजों से मुक्त करा दिया।

महाकौशल के इन वीर हुतात्माओ की स्मृति को अक्षुण्ण रखने हेतु जबलपुर में एलगिन हॉस्पिटल जिसे वर्तमान में रानी दुर्गावती चिकित्सालय के नाम से पुकारा जाता है के नज़दीक दोनों अमर बलिदानीओं का एक स्मारक( मूर्ति स्थापित) बनाया गया है। इसके समक्ष प्रतिवर्ष 18 सितंबर को जबलपुर में बलिदान- हुतात्मा दिवस मनाया जाता है ।श्रद्धा -सुमन अर्पित किए जाते हैं।

 वर्तमान पीढ़ी को देश की बलिदानी परंपरा, विरासत से अवगत कराना आज का युगधर्म, परम कर्तव्य,राष्ट्रधर्म बन गया है । जिसे प्रत्येक देशवासी -भारतवासी को पालन करना ही चाहिए तभी हम सच्चे व अच्छे भारतवासी कहला सकेंगे एवं पूर्वजों के रिण से उरिण हो सकेंगे।

 शहीदों की चिताओं पर ,

 भरेंगे हर बरस मेले

 वतन पे मरने वालों का ,

 बांकी यही निशा होगा।।

डॉ. नितिन सहारिया
(लेखक सामाजिक चिंतक एवं विचारक)