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महा महारथी – महान् क्रांतिकारी योद्धा श्रीयुत कन्हाई लाल दत्त के अवतरण दिवस पर शत् शत् नमन है

वीर गाथा का शुभारंभ कहाँ से करुं? क्यों करुं? अक्सर क्यों लिखता हूँ? इन प्रश्नों के उत्तर में केवल इतना कहना है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इन जैंसे महानायकों को हाशिए में रखकर तथाकथित नकली नायकों को प्रमुख नायक बताकर – इतिहास लेखन का जो पाप हुआ है उसका शमन करना है साथ ही बालीवुड के तथाकथित भांड, नर्तकों और विदूषकों को नायक और नायिकाओं के रुप में एक सोची समझी साजिश के साथ प्रतिष्ठित किया गया है जिस कारण हमारी पीढ़ियां वास्तविक नायक-नायिकाओं से अपरिचित सी हो गईं! इसलिए लिखता हूँ

आईये आज मिलते हैं महारथी श्रीयुत कन्हाई लाल दत्त से.. अंततः महारथी श्रीयुत कन्हाई लाल दत्त को फाँसी की सजा सुनाई गई तो वो मुस्कुराने लगे अंग्रेज जेलर ने उस दिन इस महारथी से पूँछा – “तुम इतने प्रसन्न क्यों हो?” महारथी ने जवाब दिया कि “मैं अगले जन्म की तैयारी में व्यस्त हूँ और यही मेरी प्रसन्नता का कारण है ताकि पुनः मातृभूमि की सेवा के लिए आ सकूँ जिस दिन फाँसी हुई थी उस दिन अंग्रेज जेलर की आँखों में आँसू थे उसने प्रोफेसर चारुचंद्र राय से कहा था कि” इस जैंसे 100 क्रांतिकारी मिल जायें तो हमें ये देश छोड़ना पड़ सकता है “..विश्व में ऐंसा बहुत कम ही देखा गया है कि जब फाँसी के बाद भी मृत शरीर के चेहरे पर मुस्कुराहट हो

कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि 30 अगस्त 1888 को कलकत्ता के समीप चंद्रनगर में इनका अवतरण हुआ इसलिए माता-पिता ने” कन्हाई लाल “नाम रखा था पिता का स्थानांतरण बॉम्बे में होने के कारण 5 वर्ष की आयु में ही वे परिवार के साथ बॉम्बे आ गए. कन्हाई लाल ने अपनी शुरूआती पढ़ाई बॉम्बे के आर्य शिक्षा सोसाइटी स्कूल में पूरी की. इसके बाद ये वापस चंद्रनगर आ गए. यहां उन्होंने हुगली कॉलेज में प्रवेश ले लिया. इस बीच इनकी रूचि क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ बढ़ने लगी. इसके चलते ब्रिटिश हुकूमत ने उनकी डिग्री भी रोक ली. इनको चेतावनी भी दी गई, परंतु इसके बावजूद ये अंग्रेजों के खिलाफ अपनी मुहिम चलाते रहे.

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स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही उनकी मुलाकात प्रोफ़ेसर चारुचंद्र से हुई. ये उनके विचारों से बहुत प्रभावित हुए. प्रोफ़ेसर ने चंद्रनगर में ही ‘युगांतर पार्टी’ नामक एक संगठन बनाया था. उन्होंने ही कन्हाई लाल को भारतीय क्रांतिकारी आंदोलनों में शामिल होने के लिए प्रेरित किया.

यह वही समय था, जब बंगाल के विभाजन को लेकर देश में गर्मागर्मी का माहौल बना हुआ था. बंगाल विभाजन के खिलाफ कई आंदोलन खड़े हो चुके थे. ऐसे में उन्होंने भी बंगाल विभाजन के खिलाफ बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, इसी के साथ ही कई स्थानों पर सबसे आगे भी रहे. उस दौरान उनकी मुलाकात देश के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों से होती है, इसी बीच कन्हाई लाल बन्दूक व अन्य हथियार चलाने की प्रशिक्षण भी लेते हैं. इसके साथ ही वे भारत की स्वतंत्रता संग्राम के लिए युवाओं का एक दल तैयार करते हैं. फिर, उनको लाठी व अन्य हथियारों के गुप्त प्रशिक्षण की व्यवस्था भी कराते हैं, इसके साथ ही हथियार बनाने की कला भी सीख ली थी।

बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कन्हाई लाल कलकत्ता चले गए. यहीं उनकी मुलाकात मशहूर क्रांतिकारी अरविन्द घोष के भाई बारीन्द्र घोष से हुई बारीन्द्र क्रांतिकारी होने के साथ ही एक सिविल सर्जन भी थे.

कन्हाई लाल उनके संगठन अनुशीलन दल से जुड़ गए और वहीं उन्हीं के घर में रहने लगे. दिलचस्प यह है कि उस घर में क्रांतिकारियों के लिए हथियार व गोलाबारूद आदि भी रखे जाते थे. यहां रहकर ये अंग्रेजों के विरुद्ध सक्रिय भूमिका में रहे, मानिकतल्ला बाग के बम बनाने के कारखाने में बम बनाना सीखा तथा क्रांतिकारियों को बमों की प्रतिपूर्ति करने लगे। मुजफ्फरनगर बम कांड (1908) के बाद से ही अंग्रेज़ों ने क्रांतिकारियों के विरुद्ध सघन अभियान छेड़ दिया था।

कई दिनों की जाँच पड़ताल के बाद अंग्रेजों को क्रांतिकारियों के उस अड्डे के बारे में पता चला, जहां कन्हाई लाल दत्त रहते हुए क्रांतिकारियों की मदद कर रहे थे, इसके बाद अंग्रेजों ने अरविन्द घोष के भाई बरिन्द्र घोष व कन्हाई लाल समेत 35 क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया. उन सभी को अलीपुर जेल में डालकर, अभियोग चलाया जाता है,जिसे अलीपुर षड्यंत्र का भी नाम दिया गया है। उनमें से एक नरेंद्र गोस्वामी (नरेन गोसाईं) नामक व्यक्ति को भी जेल में कैद किया गया था, वह अंग्रेजों के कहने पर सरकारी गवाह बन गया. ऐसे में सभी क्रांतिकारियों को अपने हर उस योजना पर पानी फिरने का डर सताने लगा, जो उन्होंने साथ मिलकर देश की स्वतंत्रता की खातिर बनाया था।

नरेंद्र के द्वारा देश से गद्दारी करने की वजह से सभी देशभक्तों में बहुत नाराजगी थी। एक बार तो मुकदमे के दौरान किसी क्रांतिकारी ने नरेंद्र को अदालत में गुप्त तरीके से एक लात मार दी थी। इसके बाद तो सरकार ने उसकी सुरक्षा के लिए दो सिपाही दे दिए. ऐसी परिस्थिति में कन्हाई लाल अपने साथी महारथी सत्येन्द्र बसु के साथ मिलकर उस देशद्रोही को मारने की एक अजीबोगरीब योजना बना डाली। उन्होंने निश्चय किया कि उसकी गवाही से पहले ही उसको जान से मार देंगे. अपनी योजना के तहत उन्होंने जेल के वार्डर के साथ घुलना मिलना शुरू कर दिया।

इसके बाद वो जेल में ही गुप्त तरीके (मछली और कटहल के अंदर छुपाकर लाई गई थीं) से दो पिस्तौल पाने में सफल रहे। इन दोनों ने जेल के अंदर ही नरेंद्र को मार गिराने की साजिश रची. इसके लिए सबसे पहले सत्येन्द्र ने बीमार पड़ने का नाटक किया और अस्पताल में भर्ती हो गए. इसके बाद कन्हाई लाल ने भी ऐसा ही किया।

दोनों ने किसी तरह से नरेंद्र (नरेन) को मिलने के लिए राजी कर लिया. जब नरेंद्र गोस्वामी 31 अगस्त 1908 को सत्येन्द्र से मिलने के लिए जेल की अस्पताल पहुंचा, तो दोनों ने उसको गोलियों से छलनी कर मौत के घाट उतार दिया।

इन दोनों महारथियों ने बड़ी दिलेरी के साथ पुलिस बल के सामने इस घटना को अंजाम दिया था। इसके बाद इनको दोबारा सलाखों के पीछे धकेल दिया गया और मुकदमा प्रारंभ हुआ। 21 अक्टूबर 1908 को मुकद्दमे के दौरान इन दोनों को फांसी की सजा सुनाई गई। फैसले में ये भी फरमान जारी हुआ कि कन्हाई लाल को अपील करने की भी इजाज़त नहीं है.

10 नवंबर 1908 को अंग्रेजों ने स्वतंत्रता के इस महान् योद्धा को फाँसी के दिन – कर्मचारी लेने पहुंचे तो वो गहरी नींद में सोये हुए थे।इसीलिए कहा जाता है कि जिनके सीने में जुनून होता है उनमें कभी मौत का खौफ नहीं होता. ऐसे में जेल कर्मचारियों ने उनको नींद से उठाया. सोकर उठने के बाद स्वाधीनता के योद्धा ने कर्मचारी से बेख़ौफ़ अंदाज में कहा कि “चलो कहां फाँसी चढ़ना है”। इसके बाद 10 नवंबर को केवल 20 वर्षीय युवा क्रांतिकारी ने फाँसी का फंदा चूम लिया।

लेखक:-डॉ आनंद सिंह राणा