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मानव के बदलते स्वरूप पर प्रकृति का प्रकोप…

मानव के बदलते स्वरूप पर प्रकृति का प्रकोप…

वर्तमान परिदृश्य की बात करना तो अब जैसे कोई आम बात सी हो गयी है, अत्याधुनिकता का प्रभाव तो देखिये कोई अपनी गलती स्वीकार करने को जैसे तैयार ही नही है, बस मानव स्वार्थ साधना चाहता है।

जैसे क्या हम आधुनिक सुविधा को त्याग कर के कष्ठ सहन करने के काबिल नहीं है,आधुनिकता का प्रभाव तो देखिए अब हम शुद्ध ऑक्सीजन तक नहीं ले पा रहे हैं, जो मानव कभी पौधों को अपने परिवार के सदस्य के रूप में उसकी सेवा में व्यस्त रहता था क्या कभी वो मनाव पौधों का पुनः रोपण कर पाएगा।

क्या मानव अपने ही बनाये रास्तों को नकारेगा या फिर पुनः गलती करता जाएगा, वो कहते हैं न कि अंत ही प्रारंभ है पर क्या मानव आधुनिकता को त्याग कर नए युग का प्रारंभ कर पाएगा।

ऐसा सोचना तो अब एक सपना सा हो गया है। प्रकृति का ज़रूरत से ज्यादा दोहन करना मनाव को अब महँगा पड़ता जा रहा है वो एक समय था जब हम बचपन में नल और कुँए का पानी पी कर प्यास बुझाते थे, और आज मानव ने उस जल को प्लास्टिक में कैद कर दिया है।

लेकिन, प्रकृति का इसके विपरीत अनोखा उपहार देखिये आज कोरोना काल में प्रकृति ने मानव को प्लास्टिक में कैद होने के लिए मजबूर कर दिया है, क्या यह प्रकृति के दुरुपयोग का दुष्परिणाम हैं या फिर मानव आज भी नासमझ बना बैठा है।

मानव जहाँ अपनी पुरानी संस्कृति को भुला रहा है वही एक महामारी है जो मानव को अपनी संस्कृति पुनः अपनाने के लिए बाध्य कर रही है, सम्पूर्ण संसार में एक माहमारी इतनी शक्तिशाली हो सकती हैं क्या कभी किसी ने सोचा था? क्या आधुनिकता की मीठी शुगर की बिमारी से मानव बच पाएगा?

क्या अपनी संस्कृति को पुनः अपना कर मानव इस महामारी से जीत पाएगा, मानव को अब तो अपने रास्तों को मोड़ना चाहिए या फिर पागलों की तरह ख्वाइशों डूबे रहना चाहिए जो प्रकृति की थोड़ी सी बाढ़ में बह सी जाती हैं,ऐसी ख्वाइशों का तिरस्कार करना चाहिए?

ये बातें कहीं न कहीं मानव को ज़रूरत के अनुसार समय-समय पर अपने अस्तित्व का एहसास कराने का कार्य करती हैं। ऐसी ही अनेक बातें है जो प्रकृति को आज पुनः अपनी शक्ति का प्रयोग करने की ओर बाध्य कर रही हैं।

वो भी एक युग होता था जब मानव के बीमार होने पर मानव प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के प्रयोग से स्वास्थ्य लाभ लेता था,बिना किसी नुकसान के साथ इसकी तुलना में मानव पुनः पाश्चत्य विधि के प्रयोग से आज निदान के साथ अनेको बीमारी को खुला निमन्त्रण दे रहा है.

आखिर कब तक मानव इस छद्म में डूबा रहेगा या फिर पुनः अपनी नादानी को भूल रूप स्वीकार करते हुए अपने पुराने परिदृश्य की ओर लौटने का प्रयास करेगा।

वर्तमान समय में इन बातों का बस मोल रहा गया है अपने पुराने परिदृश्य में लौटना तो मात्र एक सपने सा लगता हैं जिसे साकार करना इतना भी आसान नही होने वाला है, मनुष्य को पुरातनकाल में प्रवेश करने के लिए हमें अनेक सुख-सुविधाओं का त्याग करना होगा जो इस पीढ़ी के लिए बिल्कुल आसान नही किन्तु नामुमकिन भी नहीं।

अब तो बस इस प्रकार की बातें कर ही मानव शरीर ताजगी से महसूस करने लगता है, जैसे हमने पुराने परिवेश में प्रवेश कर लिया हो जैसे? अतः मानव को कही-न-कही इस आधुनिक परिवेश को पुरातनकाल में पुनः लौटने के लिए धीर-धीरे अपने कदम बढ़ाने होंगे और प्रत्येक व्यक्ति को इस पर कदम से कदम मिलाकर आगे आकर कार्य करना होगा, जो मानव के आने वाले भविष्य को सुरक्षित करने के साथ प्रकृति को स्वच्छ रखने के साथ प्रकृति की सुरक्षा की दृष्टि में एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

इस बात से मानव बिल्कुल भी इंकार नही कर सकता कि कोरोना की इस विकट परिस्थिति में मानव ने पुनः अपनी पुरानी संस्कृति को उपयोग किया और कहि-न-कहि पुनः अपनाने की ओर कुछ महत्वपूर्ण कदम भी बढ़ाये और इस ओर विचार किया।

इन विचारों के साथ मानव ने बहुत हद तक बदलाव देखे इसके सुखद परिणाम भी मानव को देखने मिले जो बदलाव की आहट के रूप में सुनाई दी।आगे देखना है क्या ये आहट विश्व पटल पर मानव को एक सफलता के रूप में पूर्ण होती दिखाई देती हैं या नहीं, यही बातें मानव के आने वाले भविष्य को निर्धारित करेंगी।

प्रकृति संसाधनों की सुरक्षा के साथ संसाधनों की स्वच्छता के साथ इन्हें भविष्य के लिए उपयोग अनुसार संजोय रखना एक चुनौती हैं, जो सम्पूर्ण पृथ्वी पर निवास करने वाले जीव-जंतुओं के साथ मनुष्य के भविष्य को निर्धारित करती हैं।

प्रकृति का दुरुपयोग मानव जीवन का अंत हैं, इस बात का निर्णय मानव को स्वयं करना है कि मानव अपना और अपनी आने वाली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित रखना चाहता है या नही? जो प्रथ्वी के साथ-साथ मानव जीवन के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। जिस प्रकार प्रकृति में मानव की उत्पत्ति एक जीव में रूप में हुई।

उसी अनुसार मानव ने अपने ज्ञान का उपयोग किया एवं उपयोग करने के साथ प्रकृति में बहुत से बदलाव किये, किन्तु बदलाव के साथ मानव को इस बदलाव के दुष्परिणाम इस प्पृथ्वी में देखने को मिले।

मानव ने प्रकृति के समकक्ष जब- जब सर्वशक्तिमान बनने के लिए कदम उठाये तब-तब प्रकृति ने मानव को नतमस्तक होने पर मजबूर कर दिया, मानव पृथ्वी के समकक्ष न कभी सर्वशक्तिमान था और न ही सर्वशक्तिमान होगा।

मानव की उत्पत्ति प्रकृति से हुई इस बात का मानव को हमेशा ध्यान रखना और इसी सत्यता को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ाना चाहिए, जिस प्रकृति ने मनाव की उत्पत्ति की उस प्रकृति ने मानव को वर्तमान भूत भविष्य की आवश्यकता के अनुसार संसाधन प्रदान करने का कार्य भी किया।

किन्तु, इसके विपरीत प्रतिकूल प्रभाव तो देखिए मानव ने प्रकृति को क्या दिया, मानव ने प्रकृति को एक प्रयोग की शाला समझ कर ज़रूरत से ज्यादा दुरुपयोग किया। मानव की नई-नई खोज के सकारात्मक परिणाम कम नकरात्मक परिणाम ज्यादा प्राप्त होते हैं।

वर्तमान समय की अनेक परेशानियों का जन्म मानव की प्रयोगशाला की देन हैं और इस जन्म दी गयी परेशानियों से स्वयं मानव को लड़ना है और अब इन्हें समाप्त भी स्वयं मानव को करना है, इस सच्चाई को मानव कभी नकार नही सकता कि आने वाले भविष्य को सुरक्षित करना मानव के हाथों में हैं।

मानव को इस सच्चाई को हमेशा स्वीकार करना होगा कि मानव को पुनः अपने परिवेश में लौटना होगा। मानव का भविष्य और इस पृथ्वी का संतुलन मानव के पुराने स्वरूप में लौटने पर ही निर्भर होगा।

अतः, इस पर कार्य भी मानव को करना है और इसे अमूल्य धरोहर के रूप में संजोय रखने का कार्य भी मानव को करना है। अंत में मेरे शब्द रहेंगे कि मानव सच्चाई को स्वीकार करे और और अपने भविष्य को सुरक्षित करे।