प्रख्यात कवि सुमित्रानन्द पंत ने कहा था -‘‘प्रेमचन्द ने नवीन भारतीयता एवं नवीन राष्ट्रीयता का समुज्जवल आदर्श प्रस्तुत कर देश का पथ प्रदर्शन किया। वे भारतीयता के सच्चे प्रतीक थे। सशक्त मार्गदर्शन थे। उनके पुत्र कथाकार अमृतराय ने उल्लेख किया था कि क्या तो उनकी हुलिया थी, घुटनों से जरा नीचे तक पहुँचने वाली मिल की धोती, उसके ऊपर कुर्ता और पैरों में बन्ददार जूते।’’ यह वेशभूषा थी, हिन्दी के पहले साहित्यकार की। उन्होंने पश्चिम के पूंजीवादी और औद्योगिक स्वरूप से आने वाले संकट को समझ लिया था।
साहित्य का चिन्तन, समाज की चेतना बन जाता है। इससे समाज में जीवन बोध, समय बोध और युग बोध विकसित होता है। समाज की गतिविधियों को इससे प्रेरण मिलती। कभी-कभी प्रभावित होती है तो कभी परिवर्तित भी। स्वाधीनता युग में महापुरूषों, क्रान्तिकारियों, मुंशी प्रेमचन्द जैसे साहित्यकारों ने भी समाज-राष्ट्र का चैतन्य करने में अपनी महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। हिन्दी साहित्य का क्षेत्र व्यापक, बना है। शब्द शिल्पियों के चमत्कार को भी नकारा नहीं जा सकता। हालाँकि किसी भी साहित्यकार को किसी एक धारा के कथाकार के रूप में बाँधा जाना सम्भव नही है। उसका दायित्व होता है कि वह समाज का नेतृत्व करने वालों का पथ प्रदर्शन भी करे।
मुंशी प्रेमचन्द आदर्शवादी रचना कार तो थे ही, वे उर्दू भाषा के अच्छे जानकार थे। 31 जुलाई उनकी जन्मतिथि है। प्रेमचन्द के सम्पादन में ‘हँस’ का प्रवेशाँक का बसन्त पंचमी मार्च 1930 को प्रकाशन हुआ था। प्रख्यात कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा दिये गये सुझाव का यह प्रतिफल था। उन्हें यह भी आशा थी कि एक वर्ष के उपरान्त इस पत्रिका की आर्थिक स्थिति ठीक हो जायेगी। आर्थिक संकट तो झेलना ही था। इसका अन्दाज नहीं था कि अंग्रेज सरकार की संेसरशिप का भी सामना करना पड़ेगा। ‘जागरण’ के प्रकाशन के कारण आर्थिक स्थिति वैसे भी डांवाडोल हो चुकी थी। इसी बीच फिल्म डायरेक्टर भवनानी का आठ हजार रूपये महीने का ऑफर स्वीकार करना पहले तो अच्छा लगा लेकिन नौ महीनों में ही बनारस लौट आना पड़ा अंततः ‘हँस’ पत्रिका महात्मा गाँधी की अध्यक्षता में गठित साहित्य परिषद को सौंपना पड़ी। अंततः दो माह बाद कुछ ऐसी घटनायें घटी कि ‘हँस’ की पुनः वापिसी हो गयी।
सत्ता और साहित्य दोनों ही जनचेतना में अंकुरित होते हैं। इनमें सत्ता कर्मपथ पर आगे बढ़ती है और साहित्य विचार पथ पर। यदि दोनों जनसंवेदना से संवेदित हुये तो सत्ता शुभ कर्म बनती है। और साहित्य सद्-विचार।
यदि ये संवेदना से सिंचित न हो सके तो सत्ता अभिमानी हो जाती है और साहित्य भ्रान्ति का भरण-पोषण करने लगता है।
प्रेमचन्द जी का मानना था कि साहित्य की परिभाषा यही है कि जनहित के भाव सहित लेखन करना। सत्ता भी जनकल्याण के लिये हैं। जब यह जनकल्याण की दृष्टि से दूर होकर शक्ति पाने की आकाँक्षाओं को पालने में लग जाती है और इसी भ्रान्ति के दौर में वह अपनी प्रशंसा चाटुकारिता करने वालों को आश्रय देती है।
पत्रकारिता का उद्देश्य मातृभूमि और राष्ट्रीयता के बोध को जगाना है। तिलक, गोखले, विपिन चन्द्र पाल, डाॅ. अम्बेडकर और डाॅ. लोहिया जैसे महानुभाव बाद की समयावधि में राजनीति और पत्रकारिता दोनों में ही सक्रिय रहे। पं. दीनदयाल जी उपाध्याय जैसे व्यक्तित्व विरले ही देखने को मिलते हैं, जिन्होंने संगठन, राजनैतिक संघर्ष और पत्रकारिता में एक साथ अपनी तपोनिष्ठता का दर्शन कराया। वहाँ लक्ष्य एक ही था ‘परमवैभवं नेतु मेतत् स्व राष्ट्रं। राष्ट्र संवर्धक लोकमत बनाने का काम पत्रकारिता का है और वही काम राजनीति का भी है। दोनों के माध्यम से लोकमत संस्कारित किया जा सकता है। आज के परिदृश्य में भले ही उसका अवमूल्यन हो रहा हो यह एक अलग प्रश्न है। हम लेखने वालों ने भी अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया। अपने लेख के द्वारा हमने साम्प्रदायिक द्वेष को मिटाने और साम्प्रदायिक सद्भाव पैदा करने की पुरजोर कोशिश नहीं की। अपने लेखन के द्वारा इस समस्या का समाधान ढूँढने की भी कोशिश नहीं की। आज भले ही कोई कितने पुरस्कार लौटा दें लेकिन यह कहने में बिल्कुल हिचक नहीं है कि देश की कलम ना समझ, गैर जिम्मेदार और कायर बनी रही। खबरों को बेचना काफी नहीं होता, जनता को यह दिखाना भी जरूरी होता है।
‘तवारीख की नजरों ने वो दौर भी देखा है, लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सजा पाई।’
कलम के तपस्वियों की स्वयं की पीड़ा भी अत्यन्त दुःखदायी है। जब सन् 1936 में प्रेमचन्द की मृत्यु बनारस में हुयी थी, तब उनकी शवयात्रा में वहाँ के साहित्यकार तक शामिल नहीं थे। इसी तरह महान पत्रकार बाबूराव विष्णु पराडकर से लगातार मुक्तिबोध, रांगेयराघव, कुबेरनाथ राय और शैलेश मटियानी जैसे दर्जनों नाम गिनाये जाते हैं, जो उपेक्षा के शिकार रहे। प्रेमचन्द को छोड़कर बाकी सबकी मृत्यु स्वतंत्र भारत में हुयी थी, जब हिन्दी राष्ट्रभाषा बन चुकी थी।
मुंशी जी के बारे में अक्सर कहा जाता है कि हिन्दी साहित्य उपन्यास सम्राट बनाने का श्रेय उनकी माता को है। ममतामयी माता अपने कोमल करकंजों से डुबकी दे देकर ललित कहानियाँ की सुमनुर ध्वनि से उनको सुलाती थी और वे न अंत होने वाली थी। 15/15 दिनों तक एक ही कहानी को विस्तार के साथ कहती रहती थी। इसी का उन पर असर भी हुआ।
प्रेमचन्द की रचनाओं में लोकरंजन के साथ ही साथ लोकमंगल की भावना भी समाहित है, जो सुधि-पाठकों के मन को बाँधे रहती है, कभी उबने नहीं देती है। प्रखर प्रज्ञा वाले गूढ़ से गूढ़ बातों को शीघ्रातिशीघ्र समझ जाते हैं। यदि कोई उत्तरभारत की भाषा-भाव, आचार-व्यवहार, आशा आकाँक्षा, सुख-दुःख और सूझ बूझ की जानकारी लेने का इच्छुक हो तो उसे प्रेमचन्द के साहित्य में निसन्देह उपलब्ध हो सकती है।
प्रेमचन्द के बिना हम समाज को नहीं समझ सकते है – यह कथन है – प्रख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव का।
मुंशी प्रेमचन्द की पत्रकारिता, कहानियाँ, नाटक और उपन्यास प्रारम्भिक काल से ही चर्चा का विषय बने रहे हैं। उनकी लोकप्रियता आज भी वैसी ही बनी हुयी है। उन्हें उपन्यास सम्राट भी कहा गया। उन्होंने 15 उपन्यास, 350 से अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवादित पुस्तकें, 7 बाल साहित्य संबंधी पुस्तके और हजारों लेख लिखे हैं।
सबसे अधिक आकर्षक पैदा कर देने वाला तथ्य यह है कि प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में आम आदमी के जीवन को महत्व दिया है। उनकी रचनाओं में आम आदमी की समस्यायें ही विशेष रूप से रेखांकित हैं।
उनका असली नाम धनपतराय था। अपने एक मित्र के आग्रह पर उपनाम के रूप ‘प्रेमचन्द’ लिखना प्रारम्भ किया था। उनकी कहानियों में जीवन की यथार्थता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। इस महान साहित्यकार का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही नामक ग्राम मेें हुआ था।