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मुसलमान क्या इस्लामिक कानून मानते हैं?

ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में अदालत द्वारा दिये गये आदेश के अनुसार वीडियोग्राफी के लिये आयी टीम का विरोध कर मुसलमानों के एक वर्ग ने खुलेआम यह संकेत दे दिया कि वे न तो अदालत को मानते हैं, न ही भारत के संविधान को। इसको लेकर गंभीरतम सवाल उठ खड़ा हुआ है। इसे साधारण दखलअंदाजी मानकर नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। यह गत आठ सौ साल पुरानी मानसिकता का प्रतिरूप ही है। ऐसी मानसिकता न तो देश के लिये न ही मुसलमानों के लिये उचित मानी जा सकती है।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जिसका सारा काम काज संविधान के अनुसार ही सम्पन्न किया जाता है। इसमें किसी के हस्तक्षेप करने की किसी भी कोशिश को देशद्रोह के अंतर्गत ही समझा जाना चाहिये।

ज्ञानवापी इंतजामिया कमेटी के सचिव ने जो उस समय चार तर्क दिये हैं, वे बेहद गंभीर श्रेणी के हैं, पहला तर्क था कि हम किसी गैर-मुस्लिम को मस्जिद के अन्दर नहीं घुसने देंगे। दूसरा तर्क था अदालत ने हमारी बात नहीं सुनी इसलिये हम उसकी बात नहीं सुनेंगे, तीसरा तर्क था, मस्जिद के अंदर की वीडियोग्राफी या फोटो खींचने से हमारी सुरक्षा को खतरा है, चैथा तर्क था यदि अदालत कहे कि मेरी गर्दन काट ले आओ तो क्या अदालत द्वारा नियुक्त  अधिकारी को मैं अपनी गर्दन काट कर दे दूँगा।

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इन शर्तों के परिपेक्ष्य में न तो सरकार पर कुछ असर पड़ सकता है, न ही न्यायालय के लिये इसका कोई महत्व है। हाँ एक बात तो स्वाभाविक रूप से स्पष्ट हो ही जाती है कि विदेशी आक्रांताओं के समर्थकों का चाल, चरित्र और चेहरा कैसा है?

अब सर्वेक्षण भी हो चुका है और वीडियोग्राफी भी और उसकी रिपोर्ट भी अदालत को सौंपी जा चुकी है। औरंगजेब ने 1669 में मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना दी थी। ज्ञानवापी कूप आज भी विद्यमान है।

इस्लामिक लाॅ तो कहता है कि दूसरे समुदाय के धर्मस्थल पर मस्जिद नहीं बन सकती। तब ये हठीले कट्टरवादी  इस्लाम के नियमों की अनदेखी क्यों कर रहे हैं?

आततायी मुस्लिम शासक औरंगजेब ने अपने दबदबे को कायम रखने के लिये और हिन्दूओं को भयाकांत करने के उद्देश्य से देशभर में हजारों-लाखों हिन्दूदेव स्थलों को नष्ट-भृष्ट किया। ये तमाम तथ्य ऐतिहासिक है, इन्हें कौन झुठला सकता है।

इस्लामधर्मी वकील भी भले ही तरह-तरह की कलायें अदालत में दिखायें और दलीलें दें, लेकिन इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि उस दौर में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर भारी जुल्म और अत्याचार किये थे। ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा का कृष्ण मंदिर, कुतुब मीनार, ताजमहल आदि का स्वरूप बदला जाना उसी के नतीजे हैं।

क्या किसी मस्जिद का नाम ‘ज्ञानवापी’ होना संभव है? ‘ज्ञानवापी’ संस्कृत शब्द। इस मंदिर की ऐतिहासिकता और धार्मिकता को चुनौती दिया जाना सिवाय कम अक्ली के कुछ और नहीं है। इसे मस्जिद के रूप में एक दिन में तब्दील नहीं किया गया, लम्बे अर्से तक ऐसे दुष्कृत्य होते रहे। सन् 1194 से लेकर सन् 1669 तक यह दुष्कृत्य जारी रहा। इस सबका उल्लेख, विस्तृत वर्णन इतिहास की पुस्तिकों में उपलब्ध है। नजीरें दिये जाने की जरूरत ही नहीं है।

मुसलमान शासक और औरंगजेब सहित अन्य यही समझते रहे हैं कि वे इन मंदिरों का विध्वंश करा कर इस्लाम की विजय पताका फहरा रहे हैं, यह उनका अति अभिमान था, जो सत्ता से उपजा था। समय कालावधि व्यतीत होते कई बार मंदिर टूटे और उनका पुनर्निर्माण भी हुआ। हिन्दू चुप नहीं बैठे। वे कभी चुप बैठ भी नहीं सकते। क्योंकि सनातन धर्म का जो गुण है, जो उसकी ताकत है, उसे दूसरा कोई समझ भी नही सकता। हर युग में आततायियों को जबाव मिला है।

सन् 1707 में इस आततायी शासक औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् सन् 1710 में मुस्तविक खाँ द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘मसीरे आलमगीरी आई, में विवरण मिलता है कि औरंगजेब के आदेश पर आदि विश्वेश्वर के मंदिर का विध्वंश किया गया और मस्जिद बनाने की तब्दीली का काम शुरू हुआ।’’

हिन्दू धर्म शास्त्रों में विश्वनाथ मंदिर के पश्चिम में ‘श्रृंगार मंडप’ का उल्लेख मिलता है- यही सबूत ढाँचे के पश्चिम भाग में भाग में अवस्थित है। (काशी खंड 97,120)-‘‘देवस्य दक्षिणे भागे तत्र वापी सुमोदकाः।’’ तात्पर्य यह कि वापी की उत्तर दिशा में भगवान विश्वनाथ विराजित हैं। अब वर्तमान तथ्य को समझ लिया जाना चाहिये-वर्तमान स्थिति के अनुसार इसी स्थान पर अभी मस्जिद बनी हुयी है।

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व में ज्ञान मंडप, पश्चिम में श्रृंगार मंडप उत्तर में ऐश्वर्य मंडप और दक्षिण में मुक्ति मंडप। ये तथ्य ‘शिव रहस्य’ ग्रंथ में उपलब्ध है। इसमें यह भी उल्लेख मिलता है कि प्रतिमा समस्त प्रकार के रत्नों से युक्त लिंगाकार में अवस्थित है। इन दिव्य रत्नों से रात्रि में भी प्रकाश की अनूभूति होती थी।

‘ज्ञानवापी’ परिसर अकेला प्रकरण नहीं है। काशी में अनेक स्थानों पर मंदिरों के अवशेष दबे पड़े हैं। ये सनातनी आस्था के केन्द्र  है, जिनके प्रमाण बहुतायत से मिल रहे हैं। काशी में कौने-कौने में ऐसी बुनियादें और खंडहरों पर मस्जिदों और दरगाहों के कंगूरे चमक रहे हैं। अब परिस्थितियाँ करवट ले रहीं हैं और मुसलमानों को यह सिद्ध करना ही होगा कि वे आतंकवाद और असहिष्णुता का समर्थन नहीं करते? तथा इस तरह के कृत्यों को रोकने के लिये उन्होंने अब तक क्या किया? बहुतों की यह शिकायत हो सकती है कि विश्व में एक लाबी मुसलमानों को बदनाम करने के लिये यह सब करवाती है। यह आंशिक सत्य हो सकता है लेकिन सच्चाई यह भी है कि बुद्धिजीवियों का चोला ओढ़ चरमपंथी हिन्दुत्व को हिन्दूधर्म से अलग बताने की असफल कोशिश करते रहे हैं, परन्तु उनके मुंह से हिन्दूधर्म के प्रति कभी कोई अच्छी बात नहीं निकलती।

पाकिस्तानी लेखक इरफान हुसैन कहते हैं कि आक्रांताओं ने बहुत जुल्म और अत्याचार किये। उन्होंने लेशमात्र भी दया नहीं दिखायी। मुस्लिम आक्रांताओं के हाथ इस कदर खून से सने हैं कि इतिहासका यह कलंक मिटाना संभव नही है। ऐसे निरन्तर नरसंहार का जितना बड़ा कारण मजहबी कट्टरता थी, उतना ही हिन्दुओं से घृणा थीै।

हिन्दुत्व पर हमले के बहाने चरमपंथी बुद्धिजीवी लोकतंत्र द्वारा चुनी हुयी सरकार को कमजोर करने का निरन्तर और पुरजोर प्रयास भी करते रहते हैं। गत सात-आठ वर्षों में संघ, भाजपा और अन्य हिन्दूवादी संगठनों के सैकड़ों कार्यकर्ताओं की हत्या किसी उद्वेग का विषय नहीं बनी।

हिन्दू समाज के ही मणिशंकर अय्यर, रोमिला थापा जैसे अन्यान्य महानुभावों ने हिन्दूधर्म की खूब आलोचनायें की, मगर उन्हें बड़े बुद्धिजीवी का सम्मान मिलता रहा है कभी उन्हें गाली तक नहीं दी गयी, धमकी या मारना तो दूर रहा बल्कि उनके कथन को हिन्दू और पंडित प्रायः हंस कर टाल जाते हैं। इसके विपरीत इस्लाम की आलोचना करने वाले मुस्लिम लेखक-लेखिकाओं का अपमान, उन्हें मार डालनेके फतवे, और कोशिश क्यों होती है? क्या इस्लाम का ही मान सम्मान है? क्या दूसरे धर्मों के सम्मान की चिन्ता भी नहीं होनी चाहिये?

मौलाना खुर्शीद आलम ने यह तो स्वीकार किया कि ‘मुसलमान इस्लाम एवं कौम से मुहब्बत करता है, मुल्क से नहीं, जबकि हिन्दुज्म के पुजारी राष्ट्रवादिता में विश्वास रखते हैं। जहाँ तक मुस्लिम कानून का ताल्लुक है, वह कौम-मुस्लिम सिर्फ अपने स्वार्थ की हद तक ही मानती है।’

भारत सहिष्णु हिन्दुओं का देश है। यहाँ सेक्यूलरिज्म का कोई महत्व इसलिये नहीं कि यहाँ चीटियों को आटा-शक्कर, पशु- पक्षियों, जीव जन्तुओं की भी संरक्षण पालन पोषण का विधान और इतिहास है। मानव-मानव में भेदभाव का तो सवाल ही नहीं है।

सन् 1920 के मोपला दंगे, इसके पूर्व इस्लामी आक्रांताओं के हमले, सन् 1946 में जिन्ना के डायरेक्टर एक्शन का आव्हान और सन् 1947 के बंटवारे के दौरान जिस तरह की अमानुषिग घटनाओं को अंजाम दिया गया, उसके घाव गहरे हैं। सन् 1947 के बाद भी दंगों, हिन्दुओं के तीज-त्यौहार के अवसरों पर उत्पन्न किये विवाद और अशांतिपूर्व कृत्य जारी रहे हैं जो अब तक थमे नहीं हैं।

इन सब वारदातों के बावजूद इस्लाम के अनुयायी सत्य को जानते हुये भी उसको स्वीकार करने के बजाय न तो न्यायालय का सम्मान करते हैं, न ही संविधान का। इसे किस दृष्टिकोण से देखा जाये?

आज तक जितना जो कुछ उजागर हो चुका है, उससे यह तो पता चलता ही है कि ये विध्वंश किसी एक मंदिर या ढाँचे के लिये नहीं किये गये थे बल्कि उनका उद्देश्य एक सभ्यता, संस्कृति आस्था और करोड़ों लोगों के विश्वास का विध्वंश करना था।

कुतुबमीनार में लगा शिलालेख घोषणा करता है कि इसे 27 हिन्दू मंदिरों को तोड़कर बनाया गया था।

जहाँ तक सन् 1991के कानून का सवाल है, वह जिस मंशा से बनाया गया था, उसकी चतुराई भी सामने आ चुकी है। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञानवापी मामले में सुनवायी करते हुये यह भी कह दिया है कि किसी स्थान के धार्मिक चरित्र यानी उसके रूप-स्वरूप का आंकलन प्रतिबंधित नहीं है। उक्त कानून किसी स्थान के धार्मिक चरित्र के आंकलन पर पाबंदी नहीं लगाता।

आस्था से जुड़े भावनात्मक मामलों में जन भावना की अनदेखी करने वाले कानून उसमें न तो सफल होते हैं, न ही प्रभावी।

किसी भी उपासना पद्धति के पूजा स्थल उस समाज की आस्था के केन्द्र और उसके स्वाभिमान के प्रतीक होते हैं। जब ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हों कि उन्हें तहस-नहस करके दूसरी उपासना पद्धति के धार्मिक केन्द्र के रूप में जबरन परिवर्तित किया गया, तो उसमें आस्था रखने वाले समाज को पहुंची ठेस का अनुमान लगाया जाना कठिन नहीं।

उक्त धर्मस्थल कानून के बारे में 15 अगस्त 1947 की समय सीमा वाली दलीलें तो दी जा रहीं हैं, लेकिन इसी कानून की धारा 4(3) और पाँच के बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा, जिसमें कुछ अपवाद हैं; जिन पर उक्त कानून लागू नहीं होता। धारा 4(3) का उपखंड(क) यह कहता है कि यदि कोई उपासना स्थल जो प्राचीन स्मारक एवं पौराणिक स्थल और अवशेष हैं, तो उस पर यह कानून लागू नहीं होगा।

आश्चर्य तो यह है कि मंदिरों को तोड़ा भी और लिखकर भी छोड़ गये। ये सेकुलेरिटी धर्मनिरपेक्षता एक तरफा नहीं हो सकती। यह अवश्य ध्यान देने योग्य है कि भारत पंथ निरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र है, क्योंकि उसे बहुसंख्यक हिन्दुओं ने चाहा है। बहुसंख्यक मुस्लिमों की मांग उठी और भारत का बंटवारा हो गया परिणाम स्वरूप पाकिस्तान बना। जिन्होंने पाकिस्तान बनने के लिये शतप्रतिशत मतदान किया था, वे भी पाकिस्तान नहीं गये। भारत में ही रह गये। पाकिस्तान बनने के बाद भी भारत के हिस्सों पर कब्जा कर लेने की नापाक कोशिशें जारी हैं।

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि राष्ट्र को, न्यायालय को, संविधान को ही न मानने वाले तत्वों की अराजकता पूर्ण मांगों के आगे समर्पण का सिलसिला कब तक चलेगा? इस ओर भी ध्यान देने की बात यह है कि गजवा-ए-हिन्द की अवधारणा को जन्म देने वाला अरब राष्ट्र जय श्रीराम बोलता है, रामायण सिरपर रखकर आदर देता है।

भारत की आजादी के पूर्व से ही इस मजहबी समुदाय की मांगों का सुरसा नाम की राक्षसी की भांति मुंह फैला लेने जैसा कोई अंत दिखाई नहीं देता। ‘‘गजवा-ए-हिन्द’’ का मुकाबला राष्ट्रवाद की भावनाओं के ज्वार पर सवार होकर सेक्यूलरिज्म के अरण्यरोदन गान से संभव नहीं दिखता। वह भी जब अतीत में श्रीराम को काल्पनिक तक कहा गया। अभी हाल ही का समाचार है कि गाम्बिया 57वाँ मुस्लिम राष्ट्र बना है। जनसंख्या अधिक होते ही इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया गया।

सेक्युलरिज्म तब तक चला,
जब तक मुस्लिम अल्पसंख्यक थे।

लेखक:- डॉ. किशन कछवाहा
सम्पर्क सुत्र:- 9424744170