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राजेंद्र बाबु के 59वीं पूण्यतिथि पर विनम्र श्रध्दांजलि

डॉ. राजेंद्र प्रसाद जिस तरह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे ठीक उसी अनुरूप उनका कर्तव्य और उप्लान्धियीं रही है राजेंद्र बाबु का नाम उन चुनिन्दा सपूतो में है जो अपने देश के लिए पूरा जीवन देश सेवा में समर्पित कर दिए. वे अपने समाज और देश को नई दिशा और दशा देने में लग गए इस दौरान अनेको दायित्वों को बखूबी से निर्वहन किये.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे और उन्हें सभी प्यार से राजेंद्र बाबू कहते है. राजेंद्र बाबु महात्मा गाँधी जी के सच्ची अनुयायी थे और उनका जीवन गांधीजी के विचार “सादा जीवन और उच्च विचार से प्रभावित था. उनका जीवन सादगी, सच्चाई तथा इमानदारी की मिशाल है.

राजेंद्र प्रसाद का धरती पर अवतरण उस समय हुआ जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद पूरी तरह से अपने पाँव फैला चूकी थी. खाने-पीने, कपडे, शिक्षा से लेकर लगभग हरेक क्षेत्र में ब्रिटिश सरकार लगभग अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था.

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद

राजेंद्र प्रसाद का जन्म बिहार राज्य के सीवान जिले में जीरादेई गाँव में एक साधारण एवं संयुक्त परिवार में 3 दिसम्बर 1884 को हुआ था. उनके पिताजी का नाम श्री महादेव सहाय था जो एक संस्कृत  और फारसी के विद्वान् थे और उनके माताजी का नाम श्रीमती कमलेश्वरी था जो एक कुशल गृहणी और धार्मिक महिला थी. उनकी माँ रोज भजन-कीर्तन करती और उनको रामायण एवं महाभारत की कहानियां सुनाया करती थी.

राजेंद्र प्रसाद बचपन से ही मेधावी विद्धार्थी थे. उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा बिहार से प्राप्त करने के पश्चात उन्होंने 1902 उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता में दाखिल लिये और 1905 में स्नातक में प्रथम श्रेणी में पास किये.

1907 में कलकत्ता विश्वविद्धालय से अर्थशास्त्र में स्नातोकतर पास कने के बाद बिहार के लंगट सिंह कॉलेज मुजफ्फरपुर, बिहार में बतौर अंग्रेजी के प्राध्यापक बने और फिर बाद में प्राचार्य पद को संभाला. 1909 में नौकरी छोड़ कर मास्टर्स इन-ला कलकत्ता विश्वविद्धायल से प्राप्त किये.

इलाहाबाद विश्वविद्धालय द्वारा “डॉक्टर ऑफ ला” की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था – “बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब वकील के व्यवसाय में चरम उत्कर्ष की उपलब्धि दूर नहीं रह गई थी, इन्हें राष्ट्रीय कार्य के लिए आह्वान मिला और उन्होंने व्यक्तिगत भावी उन्नति की सभी संभावनाओं को त्यागकर गाँवों में गरीबों तथा दीन कृषकों के बीच काम करना स्वीकार किया।”

1916 में पटना उच्च न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस प्रारंभ किये लेकिन राजेंद्र बाबु देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए इतने आतुर थे कि उन्होंने वकालत की नौकरी को बिना संकोच किये तिलांजलि देकर गाँधी जी के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. कुछ ही समय में वे अपने देशभक्ति से जनमानस में क्रांतिकारी का शंखनाद भर दिए.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद के विषय में महात्मा गाँधी जी प्रशंशा करते हुए कहते है ‘नवजीवन’ में लिखे थे – “बिहार रत्न राजेंद्र बाबु जिस प्रकार चले और खद्दर का प्रचार कर मेरी सहयता कर रहे है यदि सब प्रान्त के नेता वैसे ही सहायता करें तो मैं विशवास दिलाता हूँ की स्वराज्य बहुत जल्द आप-से आप मिल जाए -मुझे दूसरा काम करने की आवश्यकता ही न पड़े.

राजेंद्र बाबु गांधीजी के असहयोग आन्दोलन से जुड़ कर स्वतंत्रता संग्राम में जुड़ कर अपना राजनैतिक सफ़र गाँधी जी से प्रेरित होकर स्वदेशी आन्दोलन के साथ शुरू किये जिसमें उन्होंने विदेशी कपडे को आहुति दे दिये.

बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचंद्र पाल जैसे कई नेताओं ने विदेशी चीजो का बहिष्कार और स्वदेशी चीजो को प्रयोग कंरना आरंभ किये. इस आन्दोलन के कारन ही भारत के लोग भारतीय वस्तुओ पर गर्व करना सीखा और भारतीय उद्धोग को प्रत्साहन देने लगे.

राजेंद्र बाबु चंपारण आन्दोलन के दैरान गांधीजी के वफादार साथी बन गए एवं अपने रुढ़िवादी एवं पुराने विचारधारा को त्याग दिए और उन्होंने यह स्वीकार किया कि, “मैं ब्राह्मण के अलावा किसी का छुआ भोजन नहीं खाता था. चंपारण में गाँधी जी ने उन्हें अपने पुराने विचारों को छोड़ देने के लिए कहा. आखिरकार उनहोंने समझाया की जब वे साथ-साथ एक ध्येय को लेकर कार्य करते है तो उन सबकी केवल एक जाती होती है अर्थात वे सब साथी कार्यकर्त्ता है.”

किसी भी देश का भविष्य उसकी युवा एवं भावी पीढ़ी पर आधारित होता है. हमारे युवा पीढ़ी को राजेंद्र बाबु जैसे महापुरुषों के चरित्र से प्रेरणा लेनी चाहिए. यदि आज के नवयुवक और नवयुवतियो राजेंद्र बाबु के चरित्र का कुछ भी अंश अपने जीवन में उतार सके तो देश में सादगी, इमानदारी, सौम्यता, गंभीरत, लगन, कर्तव्यनिष्ट तथा उच्च बौधिक स्तर का एक नया दौर जाग उठेगा.

राजेंद्र बाबु शिक्षा के प्रति गहरा लगाव था जिसके सहायता से अमीरों और गरीबो के घरो में प्रकश फैलाना चाहते थे. उनका मानना था कि “शिक्षा ही ऐसी चाबी थी जो महिलाओं को स्वतंतत्रा दिलवा सकती थी शिक्षा का अर्थ था व्यक्तिव का पूर्ण विकास न कि कुछ पुस्तकें को रटना. वह मानते थे कि शिक्षा जनता की मातृभाषा में होनी चाहिए / यदि हमें आधुनिक विश्व के साथ अपनी गति बनाए रखनी है तो अंग्रेजी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए” उन्होंने कई विशिष्ट किताबें लिखे है जिनमें उनकी “चंपारण में सत्याग्रह” (1922) “आत्मकथा” (194६) “इण्डिया डिवाइडेड” (1946) “महात्मा गाँधी एंड बिहार, सम रेमिनिसेंसेज” (1949) “बापू के कदमो में” (1954).  राजेंद्र प्रसाद हिंदी के साथ -साथ अन्य भारतीय भाषाओँ के सच्चे हिमायती होने के बावजूद वे अंग्रेजी का कभी विरोध नहीं किये/ उन्होंने हिंदी में ‘देश’ नामक और अंगेजी में ‘पटना ला वीकली’ समाचार पत्र का संपादन किये/

सरोजिनी नायडू उनके बारे में कहती है “उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है/ गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वाही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जाँन का था”

सन 1962 में राष्ट्रपति का पद से अवकाश प्राप्त करने के बाद जीवन के अंतिम समय पटना के सदाकत आश्रम में बिताये/ 1962 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था / 1962 में  ही पत्नी के निधन के बाद राजेंद्र बाबू अन्दर से एकदम टूट चुके थे / 28 फरवरी 1963 को उनका स्वर्गवास पटना के सदाकत आश्रम में हो गया/

उनके 59वीं पूण्यतिथि पर विनम्र श्रध्दांजलि अर्पित करते है/ अपने जीवन का हर क्षण राष्ट्र व् समाज की उन्नति एवं प्रगति में अर्पित कर देने वाले डा राजेंद्र बाबु को भारत देश हमेशा याद करता रहेगा/

लेखक:- शिवनाथ कुमार शर्मा