Trending Now

राष्ट्रीय पुनर्जागरण के पुरोधा एवं भारती संस्कृति के राजदूत स्वामी विवेकानन्द

भारत के आध्यात्मिक श्रेष्ठत्व को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त वक्ता के रूप में प्रस्तुत करने वाले वे एक अलौकिक एवं सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि सिद्ध हुये। उन्नीसवीं सदी में विश्व के सामने भारत के आध्यात्मिक विचारों और संस्कृति को अपनी बौद्धिक कुशलता से परिचत कराने वाले अद्भुत सन्यासी थे। उन्होंने भारत को नयी चेतना से ओतप्रोत भी किया।

उपनिषद के एक वाक्यांश ‘‘उतिष्ठत जागृत प्राप्य बरान्निबोधत’’ का प्रेरणा सूत्र देकर उन्होंने भारतीय युवा शक्ति को मानों सोते से जगा दिया। यह दैविक अंतर्दृष्टि स्वामी विवेकानंद में निहित थी। वे हिन्दू जागरण के अग्रदूत थे। उनकी साधुता, स्वदेशभक्ति, सम्पूर्ण मानव जाति के आध्यात्मिक उत्थान एवं प्राच्य तथा पाश्चात्य जगत के मध्य भ्रातृभाव का जागरण करने एवं सार्वभौमिक संदेश देने वाले विलक्षण सन्यासी के रूप में सराही गयी।

उन्होंने न केवल धार्मिक रूढ़ियों का विरोध किया वरन् दरिद्रता से ग्रस्त एक बहुत बड़ी आबादी के हित में अपने आपको समर्पित कर दिया। उन्होंने इस मूल तथ्य को गहराई से समझ लिया था कि भारत की आध्यात्मिक संस्कृति की अजस्त्र धारा अनौखी और अमूल्य है। इसके विकास के द्वारा ही राष्ट्रीय अस्मिता की सुरक्षा का दावा किया जा सकेगा। जब तक इस देश के एक भी व्यक्ति के पास भोजन और वस्त्रों का अभाव है, तब तक हम चैन से सांस कैसे ले सकते हैं? उन्होंने दो टूक शब्दों में चेतावनी भरे स्वरों का कहा था कि धर्म वही है, जो परोपकार और जनहित की पहल करता हो।

लगभग पौने दो सौ वर्षों पूर्व जन्में स्वामी विवकानंद का जन्म के समय की तात्कालिक परिस्थितियों की ओर यदि अपनी दृष्टि को ले जाया जाय तो ज्ञात होता है कि उस समय भारत एक हजार वर्षों की गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ था।

विदेशी आक्रान्ता हमारे प्रभु और शासक बन चुके थे। वे भारतीयों को हेय दृष्टि से देखते थे। न केवल भारतवासियों को वरन् भारतीय दर्शन, धर्म और देवताओं के प्रति आस्था को भी उपेक्षित दृष्टि से देखने की उनकी मानसिकता तीव्र हो गयी थी। ऐसे निराशापूर्ण वातावरण में कतिपय लोग सम्मानित जीवन जीने के लोभ में अपने आत्म सम्मान को भी दाँव पर लगा कर विदेशियों के खानपान, रहन-सहन, वेशभूषा, भाषा के साथ संलग्नता के साथ चाटुकारिता की आसान प्रक्रिया से गुजरने लग गये थे। ऐसी विषम परिस्थिति में स्वामी जी ने समाज में उत्पन्न नैराश्य एवं पराभव को समाप्त करने के उद्देश्य से कतिपय प्रयास प्रारम्भ किये। इस अकर्मण्यता और निराशा को आध्यात्मिकता, भक्ति और ईश्वराधन के द्वारा ही दूर किया जाना संभव था।

वे हमेशा कहा करते थे कि मेरी तो आकाँक्षा है कि मैं बार-बार भारत में ही जन्म लेता रहूँ ताकि भारत माता की इस दरिद्रता और अज्ञान से पीड़ित सन्तानों की सेवा करता रहूँ। केवल हिन्दू ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानव जाति के कल्याण में रत रह सकूँ। मैं मोक्ष की चाह नहीं रखता।

उनका मानना था कि हिन्दू धर्म का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिये वेदों और दर्शन शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है। स्वामी जी अक्सर कहा करते थे कि आज पढ़ना तो सब जानते हैं, पर पढ़ना क्या चाहिये यह कोई नहीं जानता।

जगद्गुरू के रूप में प्रख्यात एवं प्रतिष्ठा प्राप्त इस हिन्दू राष्ट्र को वर्तमान हालातों में पश्चिमी दुनिया की ओर नहीं वरन् अपनी अतंरात्मा में झाँकने की जरूरत है। यहाँ का जन जीवन गरीबी से संघर्ष कर रहा है, तब वहाँ के लोग विलासितापूर्ण जीवन से ऊबकर निराशा के गर्त में डूबते जा रहे हैं। यहाँ के लोगों के पास खाने-पहनने की चीजों की कमी महसूस हो रही है और वहाँ के लोग सामग्रियों की अधिकता के कारण आत्मविश्वास तक खो रहे हैं।

स्वामी जी का मानना था कि इस प्रकार की तमाम बुराईयों को शिक्षा के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से समाप्त करने में ही मदद मिलेगी। दुःख का विषय यह है कि हम अपने प्राचीन ज्ञान, गरिमा और परम्पराओं का विस्मरित कर चुके हैं। धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का  अब पुनः स्मरण किये जाने का अवसर उपस्थित है।

सन् 1895 में अमेरिका स्थित अपने गुरूभाई स्वामी रामकृष्णानंद को लिखे पत्र में अपने उद्गार व्यक्त किये थे कि – ‘‘सब शास्त्रों का कथन है कि जो त्रिविध दुःख हैं, वे नैसर्गिक नहीं हैं और वे हट सकते हैं। कीचड़ के द्वारा कीचड़ नहीं धोया जाता। इसी प्रकार भेदभाव से अभेद साधित होना असंभव है। सभी प्रकार के दुःखों का मूल अविद्या है और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है। जिस कर्म के द्वारा इस आत्मभाव का विकास होता है, वह अकर्म है, अतः कर्म या अकर्म का निर्णय व्यक्तिगत, देशगत और कालगत परिस्थितियों अनुसार ही सम्पन्न किये जाने चाहिये।’’

नारी सुधार के बारे में भी स्वामी जी ने उस पत्र में लिखा था कि स्त्रियों की दशा सुधारे बिना जगत् के कल्याण की बात कैसे सोची जा सकती है? क्या पक्षी का एक पंख से उड़ना संभव है? यह भारत देश का सौभाग्य है कि राष्ट्र को जागृत करने वाली अजर-अमर संस्कृति को नव जीवन प्रदान करने के उद्देश्य से अनेक ऋषि-मुनियों, सन्त-महात्मा जनजन को आसुरी शक्तियों को सामना करने हेतु समय पर प्रेरित करते रहे।

स्वामी विवेकानंद की वेदांत दृष्टि बृहद सामाजिक, आर्थिक रूपान्तरण की आधारभूमि प्रदान करती है। उनकी वाणी ने समस्त देशवासियों में स्वतः स्फूर्त आत्म-गौरव का सुखद विस्तार भी किया है। वास्तव में राष्ट्र की जिस गौरवशाली पुनः प्रतिष्ठा का सूत्रपात स्वामीजी द्वारा शिकागो की धर्म महासभा में किया गया था,

आज का हिन्दू जागरण उसी दिशा में बढ़ता हुआ कदम प्रतीत होता है। नियति की भी शायद यही स्वीकृति है कि यह जागरण स्वामी जी के सपनों का भारत निर्माण करने का आधार बन सकेगा। अतः हिन्दू जागरण के इस परमपावन कार्य को साम्प्रदायिकता से जोड़कर देखना हिन्दुत्व के महान विचार को अपमानित किया जाना ही माना जाना चाहिये।

सम्पूर्ण राष्ट्रों का इतिहास इस तथ्य को उजागर करता है कि शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों ने ही सदैव शक्तिहीनों को ऐतिहासिक मंच से हाशिये पर ढकेला है। शक्तिहीनों का कहीं कोई आश्रय नहीं होता है। स्वामी जी कहा करते थे, ‘‘बड़े काम करने के लिए बलवान शरीर की आवश्यकता है। आपके स्नायु लौहे जैसे और धमनियाँ फौलाद जैसी होनी चाहिये। आपकी देशभक्ति आपके शक्तिमान शरीर की आशा करती है।’’

स्वामी विवेकानंद

10 जनवरी 1931 को बैलूर मठ के प्रांगण में गंगातट पर संध्या समय आयोजित आमसभा में कोलकाता के महापौर के रूप में सुभाष बाबू ने कहा-स्वामी विवेकानंद जी की बहुमुखी प्रतिमा की व्याख्या करना कठिन है। मेरे समय के छात्र समुदाय स्वामी जी की रचनाओं और व्याख्यानों से जैसा प्रभावित होता था, वैसा किसी और से प्रभावित नहीं होता था। वे मानों उन छात्रों की आशाओं- आकाँक्षाओं को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि जब कोई मनुष्य अपने पूर्वजों के बारे में लज्जित होने लगे तो समझिये उसका अंत आ गया है।

वे कहते थे कि ‘‘मैं हिन्दू कहने में गर्व का अनुभव करता हूँ, क्योंकि हम उन महान ऋषियों के वंशज हैं, जो संसार में अद्वितीय रहे हैं। हिन्दुत्व का अर्थ है सभी धर्मों का सम्मान। हिन्दुत्व का अर्थ है- सभी उपासना पद्धति की इज्जत। हिन्दुत्व साम्प्रदायिकता का सर्वथा विरोधी है। हिन्दुत्व राष्ट्रवाद है, हिन्दुत्व मानवतावाद है। हिन्दुत्व सार्वभौमवाद है।’’

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की विश्वधर्म सभा जो शिकागो के प्रख्यात कोलंबस हाल में आयोजित थी, में जब स्वामी जी ने हिन्दू धर्म की महानता व उसकी प्राचीनता पर अपने विचार व्यक्त किये तो श्रोता मुग्ध हो गये। वहाँ उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी संप्रदाय विशेष की संपत्ति नहीं है।

      आलेख
डाॅ. किशन कछवाहा