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लाला लाजपत राय- डाॅ. किशन कछवाहा

पंजाब की धरती पर जन्में पंजाब केशरी के नाम से प्रख्यात लाला लाजपत राय भारत के स्वाधीनता संग्राम की उस तिकड़ी लाल-बाल-पाल में से एक थे, जिनकी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण अंग्रेजों के मन में अत्यधिक भय प्राप्त हो गया था। यह त्रयी थी जिसमें विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय और बाल गंगाधर तिलक।

28 जनवरी 1865 को उनका जन्म पंजाब के ठोड़ी ग्रामों में हुआ था। वे बचपन से ही कुशाग्र बृद्धि थे। उन्होंने 15 वर्ष की आयु में ही मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। बाद में कानून की पढ़ाई कर अध्यापन कार्य, फिर वकालत प्रारम्भ की।

लाला जी ने लेखक, समाज सुधारक, प्रखरवक्ता दूरदर्शी तथा स्वतंत्रता सेनानी आदि की महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्वाह करते हुये अत्यंत लोकप्रिय बन गये थे। देश, धर्म, सभ्यता-संस्कृति के बारे में उनकी सोच राष्ट्रीय थी। उनके द्वारा लिखित पुस्तकों में से एक पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ को पढ़कर उनके प्रभावी व्यक्तित्व को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

सन् 1905 में वायसराय ने बंगाल को विभाजित कर दिया था। इसका आधार साम्प्रदायिक था। लाला जी के नेतृत्व में इसका देशभर में विरोध किया गया। इस समय शहीदे आजम भगत सिंह के चाचा सरदार अजित सिंह भी उनके विशेष सहयोगी रहे।

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भारत का पक्ष प्रस्तुत करने के लिये एक शिष्ट मंडल इंग्लैंड भेजने का निर्णय हुआ जिसका लाला जी नेतृत्व किया। एक माह तक लाला जी इंग्लैण्ड में रहे। उन्होंने इंग्लैंड और स्काॅटलैंड में अनेक स्थानों का भ्रमण किया और अनेक जनसभाओं में अपने विचार व्यक्त किये इन भाषणों का वहाँ व्यापक असर हुआ।

लाला जी ने भारत आकर देशवासियों से दो टूक शब्दों में कह दिया कि आजादी माँगने से नहीं मिलती। उसके लिये त्याग और बलिदान की आवश्यकता पड़ती है। लाला जी भी पूरी निष्ठा के साथ इसी कार्य मे जुट गये। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार आन्दोलन के उन्होंने बल प्रदान किया। अंग्रेज सरकार ने दमन चक्र चलाया और उन्हें पहले रंगून जेल तथा बाद में मंडाले जेल में डाल दिया गया।

अंग्रेज शासकों द्वारा यह समझा गया था कि उनके ऐसे प्रयासों से आंदोलन में जायेगा लेकिन इसका विपरीत असर हुआ और आंदोलन ने जोर पकड़ लिया। विवश होकर उन्हें जेल से बाहर करना पड़ा। लाला जी की प्रतिभा और निर्भीकता को देखकर प्रयाग अधिवेशन (सन् 1888) में युवा अवस्था होते हुये भी, उनके स्वागत के लिये स्टेशन पर आने वालों में महामना पं. मदनमोहन मालवीय और पं. अयोध्यानाथ जैसे शीर्ष नेता भी उपस्थित थे। उनका भाषण प्रायः जनभाषा में ही हुआ करता था। यह बात बहुत ही कम लोगों को मालुम होगी कि जब लाला जी पूरे अठारह वर्ष के भी नहीं हुये थे, तब सन् 1882 में हिन्दी का पक्ष लेकर ही सार्वजनिक भाषणों का प्रस्तुतीकरण किया करते थे।

वे पत्रकारिता के भीष्मपितामह ही थे। उन्होंने ‘अनहेपी’ नाम पुस्तिका भारत पर लांछन लगाने वाली मिस मेयों की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ का जबाव देने के लिये ही लिखा था। उन्होंने भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में जाकर भी वहाँ के पत्रों में भारत के पक्ष में प्रभावशाली लेख लिखे। वे भारतीय पत्रकारिता के जन्मदाता भी इसीलिये माने जाते हैं, क्योंकि उन्होंने अपना पहला साप्ताहिक ‘‘पंजाबी’’ नाम से प्रकाशित किया थ। इस पत्र ने आजादी का आंदोलन बढ़ाने में अपना अपूर्व योगदान दिया। बाद में उन्होंने ‘‘वन्देमातरम्’’ और साप्ताहिक ‘‘पीपुल’’ (अंग्रेजी) नामक पत्रों का भी प्रकाशन प्रारम्भ किया। इसी के साथ उनकी प्रेरणा से ‘‘ट्रिब्यून’’ का प्रकाशन भी आरम्भ हुआ।

एक अत्यन्त साधारण परिवार में जन्म लेकर भी लाला जी ने जिस तरह कीर्ति और धन का परित्याग किया, वह उनके चरित्र को विभूषित करने वाली विशेषता ही मानी जायेगी। अपने दल से मतभेद होते हुये भी उन्होंने साईमन कमीशन के भारत आगमन का सन् 1928 में कड़ा विरोध किया, भारी विरोध प्रदर्शन आयोजित कराये और पुलिस की लाठियों के प्रहार सहे और उसी में उन्होंने 17 नवम्बर 1928 को वीरगति भी प्राप्त की।

उनके अंतिम शब्द थे- ‘‘मेरे शरीर पर किया गया, हरलाठी का प्रहार ब्रिटिश साम्राज्य वाद के कफन की कील बनकर रहेगा।’’ वह भविष्य वाणी सच भी साबित हुयी। उनकी मौत से सारा देश उद्वेलित हो उठा। चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, भगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों ने लाला जी की मौत का बदला लेने का निर्णय लिया। इन जाँबाजों ने एक महीने बाद ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली।

लाला जी द्वारा जीवन भर समाज सेवा के कार्य भी किये गये। पहले आर्यसमाज के माध्यम से अनेक क्षेत्रों में अकाल पीड़ितों, प्लेग से पीड़ित रोगियों के लिये सेवा केन्द्र स्थापित किये। लाला जी ने अपनी पत्नी की स्मृति में तपेदिक अस्पताल भी खोले। आपने उस समय अकालग्रस्त उड़ीसा, बुन्देलखंड (सन् 1900) राजस्थान (1907-1908) उड़ीसा और मध्यप्रदेश में दुर्भिक्ष के दौरान सराहनीय कार्य किये। उस दौरान ईसाई प्रचारक गरीबी का अनुचित लाभ उठा रहे थे। ऐसे अवसर पर हजारों हिन्दुओं को विधर्मी होने से भी बचाया था।

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लाला जी के द्वारा किये गये सेवा-कार्यों की भी लम्बी श्रृंखला है। लाला जी ने ‘‘हिन्दू महासभा’’ की स्थापना की और बच्चों तथा स्त्रियों के संरक्षण के लिये जगह-जगह अनाथालय, विधवाश्रम तथा विद्यालय खोले। सन् 1911 में ‘‘पंजाब शिक्षा संघ’’ की स्थापना की थी। सन् 1921 में ‘‘लोक सेवक मंडल’’ की स्थापना की थी।

आर्य समाज की शिक्षा के प्रभाव से लाला जी दरिद्रनारायण की सेवा के लिये सदा अग्रसर रहते थे। सन् 1925 के आरम्भ में अछूतोद्धार आन्दोलन शुरू किया। देश में राजनीतिक जागरण पैदा करने के लिये लाला जी द्वारा लाहौर में शुरू किया गया ‘‘तिलक स्कूल ऑफ पाॅलिटिक्स’’ की आंदोलन में महती भूमिका रही।

पंजाब केसरी के नाम से विख्यात महान स्वतंत्रता समर के अत्यन्त निर्भीक सेनानी लाला लाजपात राय के विचार और कृतित्व आज भी हमारे लिये प्रेरणास्त्रोत हैं। अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ उन्होंने युवाओं को क्रान्ति की प्रेरणा दी वह अनौखी थी। उसी का सुपरिणाम है कि अंग्रेजों को भारत छोड़ने विवश होना पड़ा। लाला लाजपत राय आज भी हमारे लिये प्रासंगिक हैं।

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डाॅ. किशन कछवाहा