Trending Now

विश्वासो फल दायकः…

विश्वासो फल दायकः…

भरोसा ही तो है हमारे पास उन सबके प्रति जिन्हें हम अपना मानते हैं। भरोसा करना जितना सरल है भरोसे को निभाना उतना ही कठिन। एक कैसा दौर था वो जब न मोबाइल थे न ऐसे संचार साधन जिससे वीडियो कालिंग कर हम एक दूसरे का चेहरा भी देख सकें। कोई संदेश वाहक होता जो आते- जाते एक दूसरे की खबर दे देता था।

पत्र का भी एक दौर था, हाँ था ही कह सकते हैं क्योंकि पत्र लेखन तो अब कार्यालयीन व्यवहार तक सिमट गया है, उसमें भी तकनीकी दक्ष बच्चे अनाड़ी ही कहे जा सकते हैं। पत्र पाकर पढ़ने वाला उसी में लिखने वाले का चेहरा देख लिया करता था। उनमें व्याकरण की गलतियाँ चाहे कितनी हो मगर प्यार, ममता और अपनापन छलोछल छलकता था।

कई बार बड़े- बड़े सौ उपदेश जो काम नही कर पाते, वह एक प्यारा सा पत्र कर दिया करता था, जीवन की दशा और दिशा बदल दिया करता था। पत्र किसी भरोसे को लेकर अनमोल पूँजी की तरह संभाल कर रखते थे। कोई एक पत्र कितनी बार पढ़ा जाता था, कोई गिनती नहीं। उद्धव द्वारा लाई गई कृष्ण की पाती का गोपियों ने क्या हश्र किया था।पत्र में लिखे शब्द दोनों ओर से भरोसे का ही सम्प्रेषण थे।

माता- पिता अपने बच्चों को भेज देते हैं बाहर पढ़ाई या किसी काम के लिए। अब वे उनके उस भरोसे को लेकर कैसे अपना समय व्यतीत करते हैं, यह उन पर निर्भर करता है। डॉक्टर को हम भगवान का रूप समझ उसे अपनी अनमोल देह सौंप देते हैं।

हमें भरोसा होता है कि ये दवाई दे या चीर-फाड़ करे, हमारे रोग का निदान कर हमें अच्छा ही करेगा। शिक्षक- विद्यार्थी, ड्राइवर, व्यापारी, ग्राहक- दुकानदार, बैंक और बीमाकर्मी, सैनिक, परिजन, मित्र – सखा, सगे- संबंधी , अधिकारी- कर्मचारी नोकर- चाकर …… सब पर हम भरोसा ही तो सौंपते हैं। भरोसे के साथ ही बिटिया पराए घर ब्याह दी जाती है।

यह मानकर कि उसे सास-ससुर, माता- पिता का प्यार देंगे, भाई की कमी देवर पूरी कर देंगे, ननद उसकी बहन हो जाएगी, पति तो उसका सर्वस्व होगा ही। लोकतंत्र में भी अपना मत देकर हम भरोसा ही तो व्यक्त करते हैं। देश पर आए संकट की घड़ी में नेतृत्वकर्ता की अपील पर भरोसा करके ही हम उस पर अमल करते हैं।

समाज और जाति- बिरादरी अपनी परंपराओं को भरोसे के कारण ही तो निभाती है। उनका भरोसा है कि वह उनके बाप दादाओं के जमाने से चली आ रही हैं। परम्पराओं से जुड़ने का एक अर्थ अपने पुरखों के भरोसे से जुड़ जाना भी है।

दूसरे के प्रति भरोसा रखें और खुद पर भरोसा या आत्मविश्वास न हो यह भी ठीक नहीं। विश्वासघात का मतलब दूसरों को धोखा दे भरोसा तोड़ना ही नहीं, अपितु स्वयं पर विश्वास न करने वाला भी विश्वासघाती ही माना जाना चाहिए।

भगवान के प्रति तो हमारा भरोसा कुछ ज्यादा ही होता है। क्योंकि ऊपर की जो लंबी- चौड़ी सूची है उनमें से किसी पर भी भरोसा टूटता है तो फिर याद अंततः भगवान ही आता है। भरोसे की ही चरम सीमा है समर्पण। अपना झोला- झंडा लिए नर्मदा परिक्रमावासी निकल पड़ते हैं नर्मदेहर- नर्मदेहर कहते हुए माई के प्रति भरोसे का दामन पकड़कर।

कोई चिंता नहीं कहाँ भोजन मिलेगा और कहाँ विश्राम। सदियाँ बीत गई परिक्रमा की यह परंपरा आज भी शाश्वत, सनातन और जीवंत है। एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास। वाक्य के इस भाव को पकड़कर कितने साधू- संतों ने अपने राम या ईश्वर परमात्मा को अपना जीवन समर्पण कर दिया। शबरी माई का भरोसा ही तो था वो राम को झूठे बैर खिला सकी।

गुरुवचनों पर भरोसा रख राह बुहारती रही, कभी निराश नहीं हुई। आखिर एक दिन राम आ ही गए। धन्य हो गई माई और उनका स्मरण कर हम सब भी। कितने अमर शहीदों ने, कितने क्रांतिकारियों ने, कितने देशभक्तों ने देश मेरा अपना है यह मानकर मातृभूमि के चरणों में अपने जीवन का न्योछावर कर दिया। कोई कितना भी कुछ कहे भारतीय समाज वस्तुतः आस्थापरक समाज है।

आज भी अनगिनत लोगों का विश्वास है कि सात दिन भागवत सुनने से मुक्ति मिलती है। लोग घरों में तीर्थों का जल रखते हैं यह मानकर कि जल के रूप में तीर्थ हमारे घर विराजमान हैं। गीता, रामायण, श्रीगुरुग्रन्थ साहिब जैसे ग्रन्थों के प्रति पूज्य भाव रखते हुए उन्हें पूजा स्थान में रखते हैं, उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं, उसका पठन एवं श्रवण करते हैं।

भारतीय मानस जिनके भी प्रति श्रद्धाभाव है उनके प्रति सम्मान और विश्वास प्रकट करता है। उसके तरीके भिन्न- भिन्न हैं, इसलिए पूजा- पाठ भिन्न हैं मगर श्रद्धा सबकी अभिन्न है। यह श्रद्धा और विश्वास देवालयों और मठ- मंदिरोंके प्रति ही पूज्य भाव नहीं दर्शाता अपितु जड़ पत्थर में देवत्व जगाता है, नदियों, पेड़-पौधों, जीव जंतुओं आदि में भी भगवान देखता है।

सुदूर अंचलों में जो जनजातीय समाज निवास करता है उसमें प्रकृति पूजा का भाव हजारों वर्षों से आज भी विद्यमान है। रण हो या अरण्य हमारी संस्कृति विश्वास पर ही कायम है। हमारी प्रार्थना, अर्चना और उपासनाएँ सभी कुछ विश्वास पर ही अवलंबित हैं।

धन्य है भारतवर्ष जो किसी का भरोसा नहीं तोड़ता, सबको अपना कुटुंबी मानकर उनसे व्यवहार करता है, प्रीत की रीत निभाता है, वचन का मोल समझता है। हम भी निभाते चलें भरोसा, यही हमारी तासीर है, यही हमारा सत्व है। इसी सत्व में भारतीयता का तत्व निहित है। विश्वासो फल दायकः ।


डॉ राजेश लाल मेहरा                                                                                                              (लेखक सामाजिक चिंतक एवं विचारक)