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शिक्षक और राष्ट्र निर्माण…

शिक्षक और राष्ट्र निर्माण…

शिक्षा का मानव जीवन से अटूट संबंध है ।मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत जीवन में प्रति क्षण अनुभवों से, परिस्थितियों से शिक्षित होकर आगे बढ़ता है। जीवन की पाठशाला में प्राथमिक शिक्षा जन्म देने वाली माँ से प्राप्त होती है…

माँ नौ माह तक अपनी कोख में अपने अजन्मे शिशु का मात्र शारीरिक भरण पोषण ही नहीं करती अपितु उसका मानसिक, वैचारिक और संस्कृति पोषण भी करती है अतः मनुष्य के जीवन का प्रथम गुरु या शिक्षक उसकी माँ होती है।

प्राचीन काल में शिक्षा जन्म के 5 वर्ष के पश्चात विद्यार्थी आश्रम में, गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे आश्रम में रहकर गुरु शिष्य परंपरा के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाती थी किंतु समय काल और परिस्थितियों में परिवर्तन होने के पश्चात अब शिक्षा का और गुरु का स्वरूप परिवर्तित हो गया है, आज अभ्यार्थी विद्यालयों, पाठशालाओं में जाकर अध्ययन कर शिक्षा प्राप्त करते हैं।

समय कोई भी हो पर शिक्षक का महत्व आज भी प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में बना हुआ है। एक शिक्षक उस प्रकाश स्तंभ की तरह होता है जो समुद्र के ज्वार भाटे से प्रभावित हुए बिना अडिग रहकर बदलते परिवेश में अपने विद्यार्थियों की जीवन नैया किनारे तक पहुँचा देता है।

एक राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों की अहम भूमिका होती है गीली मिट्टी के लोंदे को आकार देकर कैसे घड़े का निर्माण करना है यह तो शिक्षक के ऊपर ही निर्भर करता है। शिक्षक चाणक्य भी हो सकता है जो जनमानस की भीड़ से राष्ट्र निर्माण के लिए छोटे से बालक का निष्पक्षता से चयन करके भावी सम्राट चंद्रगुप्त को प्रशिक्षित करता है।

शिक्षक द्रोणाचार्य जैसे भी हो सकते है जिसके पक्षपातपूर्ण स्वार्थ में लिप्त महत्वाकांक्षाओं ने महाभारत जैसे विनाशकारी युद्ध को जन्म दिया और अनीति ,असत्य का पक्षधर होकर उन्हेंअपने ही शिष्य के हाथों कष्ट पूर्ण मृत्यु को स्वीकार करना पड़ा।

भारतीय राष्ट्र को जब भी युग पुरुषों के चरित्र ने गौरवान्वित किया है ,उनके सफल, संस्कारित जीवन के पीछे सदैव श्रेष्ठ गुरु और शिक्षक का ही वरद हस्त रहा है। शिक्षक अपने विद्यार्थियों की गगनचुंबी यश कीर्ति की सुदृढ़ इमारत के नीचे नींव का पत्थर बन कर आनंदित होता है । वह सदैव अपने विद्यार्थियों की विजय यात्रा को देख कर अपने जीवन का धेय सिद्ध करता है।

सच्चा शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है, युग पुरुषों का निर्माता होता है, उसमें स्वयं का लेश मात्र भी स्वार्थ नहीं होता। भारत में सदियों से विदेशी आक्रांताओं के विनाशकारी आक्रमणों के पश्चात जो संस्कृति शेष है उसके पीछे भारत के शिक्षक और शिक्षा प्रणाली का अतुलनीय योगदान है।

मुगलों को जब यह ज्ञात हुआ कि भारतीय संस्कृति के संरक्षण के पीछे यहाँ के शिक्षकों के अमूल्य योगदान है तो उन्होंने सर्वप्रथम यहाँ के शिक्षातंत्र पर प्रहार किया। तक्षशिला ,नालंदा जैसे विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को समूल नष्ट करके यहाँ की संस्कृति को परिवर्तन करने हेतु प्रयास प्रारंभ कर दिया…

वही अंग्रेजों ने जिनके देश में कोई शैक्षणिक संस्थान नहीं थे ,कोई शिक्षा पद्धति नहीं थी, कोई शिक्षा नीति नहीं थी , उन्होंने भी हमारी शिक्षा पद्धति को स्वयं अपने देश ब्रिटेन में स्वीकार कर हमें हमारी शिक्षा नीति से पथभ्रष्ट कर दिया ।

हमारे ज्ञान कौशल को स्वयं स्वीकार करके हमें उनके ज्ञान पर आश्रित कर दिया इसे बदला भी जा सकता था किंतु स्वतंत्र भारत की धरती पर शिक्षा नीति के निर्माताओं के रूप में जिन व्यक्तियों का चयन किया गया वह भी भारतीय संस्कृति के शोषण करने वाली वैचारिकता से ही संबंधित थे।

भारत देश की आने वाली पीढ़ी भाग्यशाली है जहाँ नई शिक्षा नीति में राष्ट्र की संस्कृति को पोषित करने हेतु राष्ट्रभाषा और मातृभाषा पर बल दिया गया।

नई शिक्षा नीति के अंतर्गत जीवन के प्रारंभिक काल में ही कौशल विकास की ओर विद्यार्थियों का रुझान देखकर उनके शैक्षणिक मार्ग का चयन किया जाएगा जिससे विद्यार्थी अपने कौशल से, अपने उद्यम से स्वाबलंबी और आत्मनिर्भर बनकर राष्ट्र के उत्थान में अपना श्रेष्ठतम योगदान देगा।

महात्मा गाँधी ने भी जिस बुनियादी शिक्षा की कल्पना की थी उसे पूर्ण करने का श्रेय नयी शिक्षा नीति को जाएगा।

पुनः भारतीय समाज में शिक्षक अपने विद्यार्थियों को रोजगार उन्मुखी शिक्षा प्रदान करके भारत के विश्वगुरु बनने के मार्ग को प्रशस्त करेगा।