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“संस्कृति के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का दर्शन”

“संस्कृति के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का दर्शन”

स्वामी विवेकानंद जी प्राचीन भारतीय संस्कृति के केवल मानने वाले ही नही बल्कि उनके सच्चे उपासक भी थे। स्वामी जी ने भारत के जन-समुदाय के सामाजिक ,धार्मिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को निकट से देखा तथा समझा था।

इस जानकारी के पृष्ठभूमि में ही उनका दार्शनिक चिन्तन का उद््भव हुआ । स्वामी जी भारतीय संस्कृति के प्राचीनता और महत्व को जानने और समझने के लिए भारत वासियों को सदैव प्रेरित करते रहे। संस्कृति के संदर्भ में उनका मानना था कि ’’वैदिक संस्कृति भारत की आत्मा है और यहाॅ की आध्यामिकता (भारत वर्ष ) इन का मेरूदण्ड है।

स्वामी जी मानते थे कि जब व्यक्ति संस्कारवश अच्छे कार्य करता है तभी उसका चरित्र गठित होता है । वे कहते थे कि बुराईयों का कारण मनुष्य में ही निहित है, किसी देैवीय सत्ता में नही । मनुष्य रेशम के कीडे के समान है वह अपने आप से ही सूत निकालकर कोष बना लेता है और फिर उसी में बंदी हो जाता है ।

इस जाल को व्यक्ति स्वयं ही नष्ट कर सकता है कोई दूसरा नहीं। वे कहते थे ’ तुम्हारे अंदर जो कुछ है अपनी शक्तियों द्वारा उसका विकास करो पर कभी भी दूसरों का अनुशरण करके नही। वे नवयुवकों को ध्येयवादी होने निरंतर प्रेरणा देते रहते थे । वे भारत को ’ अमर भारत’ की संज्ञा देते थे।

स्वामी जी हमेशा कहते थे कि यदि भारतवासियों ने पाश्चत्य भौतिकवादी सभ्यता के चक्कर में पड़कर आध्यात्मिकता का आधार त्याग दिया तो उनके परिणाम स्वरूप तीन पीढ़ियों में ही उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, जिसका सीधा परिणाम होगा सर्वतोन्मुखी सत्यानाश । स्वामी जी कहते थे कि अन्य व्यतियों से हम जो लेना चाहें ले ग्रहण करें किन्तु उसे जीवन के आदर्श के अधीन करेे ।

स्वामी विवेकानंद का दर्शन दूरदृष्टि था उनके विचारों में दिव्यता झलकती थी वे जो भी कहते थे बिल्कुल सटीक और मानव के भवनाओं व मास्तिष्क पर सीधे पहुॅचने वाले होते थे। स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति के विषय में जो भी कहा आज हमारे सामने परिणाम स्वरूप प्रकट हो रहे है ।

क्योंकि भारतीय संस्कृति की मधुरता पवित्रता और महक धीरे-धीरे लुप्तता के कगार पर खड़ी दिखाई पड़ने लगी है भारतीय संस्कार और परंपरा जो प्रत्येक रिश्ते-नाते की पवित्रता बनाए रखती थी आज के परिदृश्य में भारत माॅ के दामन में क्रूरता के बीज बो रही है, क्योंकि आज की आधुनिकता ने मानवता के पवित्र रिश्ते को दागदार कर दिया है ।

प्राचीन भारतीय संस्कृति के आधार स्तंभ पर गहरा प्रहार किया है, क्योंकि खून के रिश्ते अब खून के प्यासे हो गये है बेटे बाप के, भाई-भाई के, माॅ-बेटी के बीच नफरत की दीवार खड़ी दी है जो कि मानवता के लिए अत्यंत हानिकारक है। इसका मूल कारण है भारतीय संस्कृति को तुच्छ जानना और आधुनिकता के नशें मे चूर विदेशी सभ्यता और संस्कृति को आत्मसात् कर लेना। भारतीय संस्कृति, ज्ञान ओर संस्कारों को त्याग देना मूल कारण है ।

स्वामी विवेकानंद जी एक सौ दस वर्ष पहले जो आशंका जताई थी वह आज हमें देखने को मिल रहा है। ’’स्वामी विवेकानंद एक सच्चे वेदांती थे वह सत्य के अनुपालन के समर्थक थे और उनकी दृष्टि में सत्य वही है जिससे व्यक्ति एवं समष्टि दोनों का हित हो उन्हांेनें प्राचीन भारतीय वेैदिक संस्कृति को जीवन के शाश्वत मूल्यों के रूप में स्वीकार किया ’’।

अब हमारे समक्ष प्रश्न यह उठता है कि क्या हम सच्चे मायने में भारतीय हैं और भारत के मूल संस्कृति को अपने में समाहित किए हुए है ? मित्रों हमारे पास अभी-भी अवसर है सनातन ,वैदिक संस्कृति को समझने, जानने और आत्मसात् कर लेने की। हमारे मूल सांस्कृतिक गरिमा को अपने में पुनर्जिवित करने की ।

स्वामी विवेकानंद जी के दर्शन और उच्च विचारधारा को स्वीकार करके राश्ट्र और समाज के प्रत्येक व्यक्तियों में सांस्कृतिक एकता और जागृति लाने की है। हे जवानों उठो, ये देश है तुम्हारा माॅ भारती पुकारती है अपनी सच्ची संस्कृति को पहचानों और मानसिक दासता के बोड़ियों से स्वतंत्र हो जाओं।

मित्रों वास्तव में संस्कृति हमेशा विशिष्ट होती है और दूसरे प्रतिबद्ध उतराधिकारी समाज, विशिष्ट समाज होता है। संस्कृति लोगों की जीवन रीति है एक संस्कृति व्यवहार की वह व्यवस्था है जिसमें किसी समाज के सदस्य सहभागी होते है और समाज वह जनसमूह है जो एक सर्वनिष्ट संस्कृति है जिसमें मानव के जीवन मूल्य और ज्ञान का असीम भण्डार है।

जीवन मूल रहस्य को यदि जानना है तो वैदिक संस्कृति का ज्ञान आवश्यक है।’’ मानव जीवन के इतिहास को जानने का सबसे प्राचीन साहित्य ‘वेद‘ है विश्व के इतिहास में अति प्राचीन और प्रमाणित साहित्य है।

गीतेश पटले