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समन्वय का दष्टिकोण “यशस्वी भारत”…

‘यशस्वी भारत’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग प्रसंगों पर दिए गए भाषणों का संग्रह है। इन 16 भाषणों में भागवत उन विशिष्ट अवसरों को प्रासंगिक मानते हुए भारत की सांस्कृतिक अवधारणा और उसके समन्वयकारी लोकपक्ष की कई तरह से पड़ताल करते हैं।

थोड़ी देर के लिए यदि हम उनके पद से अलग हटकर उनकी वैचारिकी का विश्लेषण करें, तो यह अध्ययन इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण बन जाता है कि दशकों से अपने सांस्कृतिक अभियान में लगे हुए इस रचनाकार की स्थापनाओं और विचारों को समझना जरूरी है।

किताब इसी अर्थ में संघ की विचार-यात्रा को उसके एक अनुभवी पुरोधा की ओर से भी समझने का प्रयत्न करती है। भारत की प्राचीनता और उसकी बहुविध सांस्कृतिक एकनिष्ठता को परखने के लिए यह किताब कुछ विशेष जोड़ने का जतन करती है। इन भाषणों का संपादन श्याम किशोर ने किया है,

जो उनकी देख-रेख में निबंधों की तरह का बाना अख्तियार करती है। अपने विचारों में बेहद स्पष्ट और उनके क्रियान्वयन को लेकर समर्पित मोहन भागवत ने भारतीय राष्ट्र की अवधारणा, हमारी राष्ट्रीयता, स्त्री सशक्तीकरण, अहिंसा के सिद्धांत और विकास की अवधारणा को लेकर कुछ दिलचस्प बातें कही हैं।

इन भाषणों से गुजरते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यह सारे विचार एक सांस्कृतिक संगठन की इन विषयों पर परिभाषाएं भी हैं, जहां भारत की अखंडता का स्वर मुखर होकर ध्वनित हुआ है।

किताब की प्रस्तावना में संघ के पूर्व अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख एम.जी. वैद्य ने उचित ही लक्ष्य किया है कि ‘राष्ट्रीयता ही संवाद का आधार हो वैचारिक मतभेद होने के बाद भी हम सब एक देश के लोग हैं और हम सबको मिलकर इस देश को बड़ा बनाना है।

इसलिए हम संवाद करेंगे, ‘जाहिर है, पुस्तक अपने सिद्धांतों और स्थापनाओं के साथ समाज के हर वर्ग और विचार पद्धति के लोगों को संवाद के लिए आमंत्रित करती है। किताब में मौजूद सभी भाषणों का मूल स्वर यही है,

कि कैसे हम सब भारतीय मिलकर जाति-धर्म और भाषा के भेद मिटाकर भारत की यशस्विता और सर्वांगीण विकास में सहभागिता कर सकें। इसके लिए वे जो औजार मुहैया कराते हैं, उसमें सर्वोपरि तौर पर अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण शामिल है,

जब भारत सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना से संपन्न एक बड़े विचार के रूप में दुनिया में उपस्थित रहा। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ जैसे सुभाषितों की नीति लेकर चलने वाली भारतीय दृष्टि में सभी प्रकार के मतों, पंथों और उपासना पद्धतियों के लिए आदर का भाव रहा है।

यह दृष्टि विविधता का समादर करती है और हिंदू संकल्पना में जैन और बौद्ध, मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले आर्यसमाजी तक को अंतर्धारा की तरह देखती है। भारत को एक राष्ट्र रूप में देखने के स्वप्न को लेखक ने गंभीरता और समन्वयकारी दृष्टि से विश्लेषित करने का प्रयास किया है।

‘अमर राष्ट्र भारत’ जैसे लेख में यह कथन देखने लायक है- ‘शिक्षा सर्वमान्य व्यक्तियों की पहुंच में सुलभ और सस्ती रहे। शिक्षित व्यक्ति रोजगार योग्य हों, स्वावलंबी, स्वाभिमानी बन सकें और जीवन-यापन के संबंध में उनके मन में आत्मविश्वास हो।’

इसी तरह ‘स्त्री सशक्तीकरण’ व ‘चाहिए संपूर्ण समाज का बल’ जैसे अध्यायों में मनुष्य के दायित्वबोध और जिज्ञासा को राष्ट्रीयता के गौरव-बोध से जोड़कर देखने का प्रयास किया गया है। इन भाषणों में जो सबसे बेहतर बात नजर आती है,

वो यह है कि भागवत अपने कर्तव्य के प्रति सचेत रहते हुए मनुष्य में जिज्ञासा, विनय और शील का बीजारोपण होता हुआ देखने के आकांक्षी हैं।  यह वैसी ही अवधारणा है; जैसी महाभारत के शांति-पर्व में ‘सर्वभूतेषु येनेक भावमव्ययमीक्षते’ की तरह सामने आती है।

सब कुछ समाप्त हो जाए, मगर कुछ बेहतर और सार्थक होने का संकल्प कभी न खत्म होने पाए। इस तरह से देखने पर ‘यशस्वी भारत’ में पूरे समाज को आदर्श मॉडल की तरह विकसित करने पर जोर दिया है। ‘भारत के स्व की पहचान’ एक पठनीय अध्याय है,

जिसमें भारत की आंतरिक सुरक्षा के विषय को उठाया है। संघ पर आधारित कई अध्यायों में से एक संघ विषयक कुछ जिज्ञासाएं में प्रश्न और उत्तर के प्रारूप में हिंदुत्व, अंतर्जातीय विवाह, जाति-व्यवस्था, शिक्षा में परंपरा और आधुनिकता का समन्वय, स्त्रियों की स्थिति, आरक्षण और अल्पसंख्यकों पर बेबाकी से बातचीत की गई है।

एक विचारधारा भले ही दूसरे मत वाले के लिए संशय की निगाह से देखी जाती है, मगर यह किताब उन सबके लिए एक प्रामाणिक रीडर की तरह है, जो बहुत सारी जिज्ञासाओं और भ्रमों का निवारण करती है।

मोहन भागवत ने अपने जीवन की अर्धसदी ऐसे समाज-सुधार और संघ के नीतिगत कामों को करते हुए गुजारी है, लिहाजा उनके विचार पूरी तरह ईमानदार, स्पष्ट और अनुभव से पगे हुए समाज के सामने आते हैं।

यशस्वी भारत’ को पढ़ना इस दृष्टि से न सिर्फ महत्वपूर्ण है, वरन वह संघ की नीतियों को भी समझने में मददगार होती है।

लेखक:- यतीन्द्र मिश्रा