आजादी के इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो सर्वाधिक रोमांचकारी, हैरतअंगेज और जोखिम भरे कारनामों से सुसज्जित स्वर्णिम अध्याय हमारे सामने आता है वह है भारत के सशस्त्र क्रांतिकारियों की गाथा।
भारत के इन वीर सशस्त्र क्रांतिकारियों में जगमगाते नक्षत्र की तरह एक नाम है स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर। ‘काल स्वयं मुझसे डरा है, मैं नहीं। फांसी का फंदा चूम कर कराल काल के स्तंभों को झकझोर कर, मैं अनेक बार लौट आया हूं। ‘जेसी सिद्धनाथ करने वाले महान क्रांतिकारी, कर्म योगी, दार्शनिक, अपने ओजस्वी विचारों से देशवासियों को झकझोर देने वाले प्रभावशाली वक्ता, दूरदर्शी, समाज सुधारक, समाज में व्याप्त रूढ़ियों के प्रखर विरोधी तथा उच्च कोटि के साहित्यकार थे सावरकर। यह पंक्तियां सावरकर के वीरता और शौर्य से पूर्ण व्यक्तित्व की एक झलक है।
सावरकर का संपूर्ण परिचय प्रसिद्ध कवि अटल बिहारी बाजपेयी के शब्दों में मिलता है- ‘सावरकर माने तप, सावरकर माने तत्व, सावरकर माने तीर, सावरकर माने तिलमिला हट, सावरकर माने तितिक्षा, सावरकर माने तीखापन….. कैसा बहुरंगी व्यक्तित्व।
1. सावरकर जन्म और स्वभाव से ही वीर और साहसी थे। अपने विद्यार्थी जीवन में ही सशस्त्र क्रांति की शपथ लेने वाले सावरकर ने ‘१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर’पर सनसनीखेज बसोद पूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ लिख कर ब्रिटिश साम्राज्य की नींदे उड़ा दी। विद्युत की चकाचौंध की भांति भारत के अहिंसक राजनीतिक आंदोलन में हलचल मचा देने वाले इस निर्भीक एवं दुर्दांत क्रांतिकारी के नाम पर अनेक गौरवपूर्ण कीर्तिमान अंकित हैं।
2. प्रथम छात्र जिनकी बैरिस्टर की उपाधि इंग्लैंड के प्रति राज निष्ठा की शपथ लेने से इनकार करने के कारण रोक ली गई।
3. प्रथम भारतीय नागरिक जिन पर हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाया गया।
4. प्रथम राजनीतिक बंदी जिन्हें दो जन्मों का कारावास मिला।
5. प्रथम साहित्यकार जिन्होंने लेखनी और कागज ना होने पर भी अंडमान जेल की दीवारों पर कांटो, कीलों और नाखूनों से दस हजार पंक्तियों का साहित्य सृजन किया और उन्हें वर्षों तक कंठस्थ रखा।
6. प्रथम भारतीय लेखक जिनकी पुस्तक प्रकाशित होने से पूर्व ही दो -दो सरकारों द्वारा प्रतिबंधित की गई। आज जब संपूर्ण राष्ट्र आजादी का 75 वा अमृत महोत्सव मना रहा है राष्ट्र के इस सशस्त्र और सजग प्रहरी को नमन स्मरण किए बगैर यह महोत्सव अधूरा है।
अंग्रेज न्यायधीश ने जब सावरकर को दो आजन्म कारावास ओं का दंड दिया तब उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ईसाई (ब्रिटिश) सरकार ने मुझे दो जन्मों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म के हिंदू सिद्धांत को मान लिया है।’ ऐसी प्रतिक्रिया थी वीर सावरकर की। जे दिव्य, दाहक म्हणूनी असायवाचे। बुद्धयाची वाण दरिंदे करी से सतीचे।। कुछ माह बाद सावरकर को अंडमान जेल भेज दिया गया। वहां उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गई। कोलू में जोत कर तेल पिलवाना, मूंज कुटवाना आदि नाना प्रकार के अत्याचार राजनीतिक बंदियों पर किए जाते थे। इन्हीं सब व्यथाओं का रोमांचकारी वर्णन सावरकर ने अपनी आत्मकथा ‘मेरा आजीवन कारावास’ में किया है। इस पुस्तक को पढ़कर पाठकों को ब्रिटिश सरकार की दोगली नीतियों एवं क्रांतिकारियों के प्रति अपनाई गई बर्बरतापूर्ण कृत्यों का पूर्ण परिचय मिलता है।
सावरकर ने अत्यंत धैर्य के साथ ब्रिटिश सरकार की मन, शरीर एवं आत्मबल को तोड़ने वाली पद्धति का सामना किया एवं विजयी होकर काला पानी से जीवित वापस लौटे। चूंकि सावरकर बंधुओं के रक्त में ही क्रांति की स्फुरणा थी।
अतः जहां भी सावरकर के चरण पड़े क्रांति उनकी अनुयायी बन कर रही। अंडमान कारागार एवं रत्नागिरी कारावास की 1911 से 1924 की दीर्घ अवधि में सावरकर ने जेल में प्रत्येक धरातल पर सुधार कार्यों का बीड़ा उठाया। उन्हीं के शब्दों में अंडमान जेल में दी जाने वाली यातनाएं इतनी भयानक होती थीं ‘आज तक जो सैकड़ों हजारों बंदी आजन्म कारावास की सजा काटने इस भयंकर जलयान पर चढ़कर काले पानी गए उनमें से दसभी जीवित वापस न लौट सके।’ ऐसे ही वीरों की स्मृति में कभी अटल ने लिखा है-
याद करें काला पानी को, अंग्रेजों की मनमानी को। कोल्हू में जुट तेल पेरते, सावरकर से बलिदानी को। जो बरसों तक रहे जेल में, उनकी याद करें। जो फांसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।।
मेरा आजीवन कारावास- मात्र किसी क्रांतिकारी की आत्मकथा ही नहीं, अपितु काला पानी भेजे गए सशस्त्र क्रांतिकारियों के भोगे गए दुखों, कष्टों, यातनाओं, आत्मिक उपेक्षाओं एवं अपमानों की करुण कहानी कहती है।
राष्ट्रभक्ति के लिए तिल तिल कर मरने वाले सर्वोच्च बलिदानियों का महाकाव्य है वीर सावरकर की आत्मकथा। फांसी पर चढ़कर जो अमर हो गए उन वीरों को शत-शत नमन। किंतु भारत की आजादी के लिए जिन अभिमानी सशस्त्र प्रहरियों ने दीर्घ अवधि का कारावास भोगा, पल पल पर अपमान सहन किया, अपमान सहन ना होने पर अनेकों के द्वारा जीवन लीला अभी समाप्त की गई। कई मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए, किंतु हृदय से राष्ट्रभक्ति का दीप ना बुझने दिया। ऐसे त्यागी महामानवों का बलिदान अतुलनीय और अनुपम है। सावरकर की आत्मकथा में कारावास अवधि में कैदियों के इसी संघर्षपूर्ण जीवन की झांकी प्रस्तुत की गई है।
लेखक के अनुसार अंडमान में एक ऐसी यातना दी जाती थी। जिसे सहने में अपने आप से घिन होने लगती और ऐसा प्रतीत होता कि भगवान जीवन से उठा ले तो अच्छा। वह कष्ट था, बंधुओं को मल मूत्र का अवरोध करने के लिए बाध्य करना। सुबह, दोपहर, शाम के अतिरिक्त रात के बारह घंटों में किसी के लिए भी सोच के लिए जाना जघन्य अपराध था। यदि असहाय एवं रुग्ण अवस्था में कैदी कोठरी के भीतर मल मूत्र का विसर्जन कर ले तो दंड स्वरूप वह मैला स्वयं हाथों से साफ करना एवं हथकड़ी में बंद कर दिन भर के लिए खड़ा रखा जाना जैसा दंड भुगतना पड़ता। शौच के लिए बिना आड़ के बैठाना, शरीर साफ करने के लिए भी समय ना देना। मानव देह की ऐसी अपमानजनक परिस्थितियों पर सावरकर ने अपने साथियों से कहा- ‘मरो, परंतु अपमान मत सहना, मरो, पर यथासंभव संघर्ष करते-करते मरो।’
अंडमान में कैदियों को कटोरा भर चावल और गेहूं की दो रोटियां इतना ही भोजन दिया जाता। सप्ताह में एक या दो बार नरोटी भर दही मिलता। किंतु इतना भोजन भी बंदियों के मुख तक पहुंचने में अनेकों विघ्न थे। पंजाबी एवं मुस्लिम जमादार जो चावल पसंद नहीं करते थे। बे कैदियों को डरा धमका कर रोटियां हड़प लेते। दही तो देखने को भी ना मिलता। प्रति बात करने पर डंडों लातों से पिटाई की जाती। परोसने वाला भोजन भी कुपोषित एवं हानिकारक होता। दाल के बड़े बड़े लोगों में पसीना टपकता, दलिए में मिट्टी का तेल गिर जाता, रोटियां अधपकी, सब्जी के कड़ाहों में अंडमान के विषैले कनखजूरे तथा सांप भी जा पकते। भोजन के समय बंधुओं की पंक्तियां कड़ी धूप में और वर्षा में भी बैठाई जाती थी। सावरकर ने राज बंधुओं के साथ मिलकर कड़े संघर्ष और हड़तालों के द्वारा 5 -6 वर्षों में भोजन एवं बैठने की व्यवस्था में सुधार करवाया।
कोल्हू का बैल- कोल्हू को ‘फांसी का गुरु’ भी कहा जाता था। सावरकर को भी 16 अगस्त 1911 से 14 दिवस के लिए कोल्हू का कार्य दिया गया। दिन भर कष्टप्रद गंदगी से भरपूर पशुओं की भांति कोल्हू जोतने से जीवन का ऐसा विकर्षण होता कि प्रायः माह में एक दो बंदी रात को कोटरी की सलाखों से लटक कर फांसी लगा लेते थे।
शुद्धीकरण- अंडमान में अधिकारियों की नीति हिंदू और मुस्लिमों को लेकर अत्यंत भेदभाव पूर्ण थी। जहां मुस्लिम बॉर्डरों एवं कैदियों को कुरान रखने एवं नमाज पढ़ने की अनुमति थी। हिंदुओं को अपने धार्मिक पुस्तकें रखना और पढ़ना चोरी जैसा काम होता। ऐसा करने पर मुस्लिम जमादार उन पर कब डंडे बरसा दे इसका कोई नियम नहीं होता। राजनीतिक दंडित हिंदू ही होने के कारण जमादार आदि के स्थानों पर मुसलमानों को ही नियुक्त करने की कट्टर परिपाटी थी। यह लोग हिंदुओं को कठोर कामों में जुटा कर, कठोर दंड का हौवा दिखा कर, सतत सत्य असत्य अभियोग चलाकर उन्हें तंग करते और वे स्पष्ट रूप से कहते कि। ‘हम से पिंड छुड़ाना चाहते हो तो मुसलमान बन जाओ।’ अधिकारियों की उपेक्षा भाव के कारण और क्रूर पठानी जमादार, गूगल दारू से भिड़ने का साहस किसी को ना होता। फल स्वरूप महीना पखवाड़े में अल्प वयस्क या हताश एकाध हिंदू मुस्लिमों की पंक्ति में भोजन करता हुआ दिखाई देता। ऐसी दु:सहय परिस्थिति में सावरकर ने ‘स्व धर्मे निधनं श्रेय:’ का मंत्र उच्चार करते हुए 1913 में मुसलमानों पर पहला अभियोग चलाया, जो हिंदुओं को पथभ्रष्ट करने पर तुले थे। धीरे धीरे उत्साही राज बंधुओं के सहयोग से यह शुद्धीकरण का आंदोलन 1920- 21 तक अंडमान से हिंदुस्तान के कारागृह में आने तक वीर सावरकर द्वारा सतत चलाया गया। इस कारण कई मुसलमान गुंडों द्वारा सावरकर बंधुओं पर प्राणघातक हमले भी किए गए और उन्हें जान से मारने के षड्यंत्र रचे, बंदी ग्रहों में दंगे भी हुए, किंतु आंदोलन रुका नहीं।
सावरकर एक महान क्रांतिकारी ही नहीं अपितु प्रतिभाशाली साहित्यकार भी थे। बाल्यकाल से ही उनके मन में मराठी भाषा में महाकाव्य लिखने की प्रबल इच्छा थी। 50 वर्ष के कठोर कारावास की सजा मिलने पर उन्हें कागज तो दूर पेंसिल का छोटा सा टुकड़ा भी अपने पास रखने की अनुमति नहीं थी। तब उन्होंने अनेकों कविताएं स्मृति पत्र पर लिखी और कंठस्थ की। कोठरियों की चूने से पुती दीवारों पर कीलों, रामबास के कांटों तो कभी-कभी नाखूनों से ही वे कविताएं, अर्थशास्त्र, राजनीतिआदि महत्वपूर्ण विषयों पर लेख लिखते।
सावरकर इतनी महीन आकृति में मराठी भाषा में लिखते जिससे अधिकारियों का कोप भाजन ना बनना पड़े। कोठरी बदली होने से पूर्व समस्त रचनाएं कंठस्थ करते। कोटरी की दीवारें प्रतिवर्ष चूने से पोती जातीं। यही दीवारें कवि के लिए कोरे कागज की भूमिका का निर्वाह करती। साबर करके उन्हें शिलालेखों पर लिखी टिप्पणियां एवं स्मृति चित्रों का वर्तमान प्रकाशित ग्रंथ ‘आजन्म कारावास’ एक विस्तृत कागजी संस्करण है।
शिक्षा का प्रचार प्रसार- अंडमान में आने वाले राज बंदी प्रायः देश भक्ति में अत्यंत उच्च कोटि के होने के बाद भी अल्प शिक्षित थे। सावरकर के मत में क्रांतिकारियों के लिए देश भक्ति के साथ बुद्धि बल की भी अत्यंत आवश्यकता थी। इसलिए उन्होंने ज्ञान और तब की साधना आरंभ करने का निश्चय कर प्रशिक्षण कार्य हाथ में लिया। वरिष्ठ अधिकारियों तक बार-बार राज बंदियों द्वारा शिकायतें पहुंचने के परिणाम स्वरूप प्रारंभ में राज बंधुओं को धार्मिक पुस्तक और स्लेट अपने पास रखने की अनुमति मिली। पढ़ने के लाभ बौद्धिक अथवा राष्ट्रीय स्तर पर ना समझने से बंदियों से वे कहते मराठी आते ही अंग्रेजी पढ़ाएंगे। जिससे मुंशी बन जाओगे। अन्य शिक्षित राज्य बंदियों को सावरकर ने प्रेरित किया ‘अपने इन दीन हीन पतित बंधुओं को शाब्दिक, बौद्धिक, राष्ट्रीय तथा आदमी शिक्षा देने की जितनी योग्यता हम में है। इतनी शिक्षा का कार्य में करते रहना होगा।’
सावरकर के प्रभाव से कुछ उदार पर्यवेक्षकों की अनुमति प्राप्त होते ही ग्रंथालय की स्थापना की गई। जिसमें मराठी, बंगाली, हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी तथा संस्कृत भाषा में उत्कृष्ट श्रेणी की लगभग डेढ़ 2000 पुस्तकें एकत्रित की गई। आगे चलकर पर्यवेक्षक भी इस संस्था पर गर्व से सिर ऊंचा करने लगे। सावरकर के नेतृत्व में चलाए जा रहे दीर्घकालीन ज्ञान सत्र के परिणाम स्वरूप बंदियों में देश अभिमान उदात्त भावनाओं का उदय हुआ और उनमें मानसिक और नैतिक सुधार हो जाने से झगड़े कम होने लगे, जोकि व्यसन आसक्ति, नृशंसता, दुष्टता, लूटपाट आदि दुर्गुणों के कारण होते थे।
लेखक के अनुसार पांच दस वर्षों में उनमें से प्रत्येक बंदी इतना शिक्षित, सहनशील तथा विचारशील बन गया था, कि उनमें से प्रायः सभी सर्वथा यथार्थ रूपेण नालंदा बिहार के आचार्य अथवा स्नातक उपाधि के योग्य हो गए थे। सरकार द्वारा उपनिवेश बसाने का मुख्य उद्देश्य बंदियों में सुधार लाना था वह भी साध्य होने लगा। और यह प्रगति बंदियों की बंदी पत्रिका में उद्धृत भी की गई।
अभिनव भारत के संस्थापक के रूप में सावरकर का संकल्प था ‘हिंदुस्थान को स्वतंत्र करना, हिंदुस्थान को एक राष्ट्र करना, हिंदुस्थान में प्रजातंत्र की स्थापना करना एवं हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना, नागरी को राष्ट्र लिपि बनाना’। अंडमान में भी हिंदू आबादी होने के बाद भी पाठशालाओं एवं दफ्तरों में उर्दू भाषा का ही प्रचलन था।
सावरकर ने अपने अभूतपूर्व प्रयासों से अंदमान में हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार कर पाठशालाओं में हिंदी भाषी अध्यापकों की व्यवस्था एवं कैदियों को अपनी मातृभाषा में पत्र भेजने की अनुमति प्रदान करवायी।
कारागृह की अत्यंत क्रूर यातनाओं , हथकड़ियां, खड़ी बेड़ियां, आड़ी बेड़ियां, जंजीरों की बेड़ियां, कोठरी बंदी आदि सभी प्रकार के दंड भुगत चुके सावरकर का स्वास्थ्य तीव्र गति से गिरने लगा। अपने अनुज को पत्र में लिखते हैं- ‘देह अब अस्थि पंजर बन गई है। भय, धमकी भरे, वक्रता पूर्ण अपशब्दों, आशु तथा उसासों के उदास एवं दुखी कर देने वाले वातावरण में ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं अपनी उदात्त मनोवृत्ति यों की इतिश्री तो नहीं हो रही’।
सावरकर की स्थिति जब अत्यंत गंभीर हो गई। तब कहीं जाकर तपेदिक की आशंका एवं लक्षण के कारण उन्हें रुग्णालय में भर्ती किया गया। करीब एक से डेढ़ वर्ष उन्होंने दूध पर रोगी शैया पर व्यतीत किए।
ब्रिटिश शासन की व्यवस्था पर व्यंग्य कसते हुए भी लिखते हैं- ‘बंदीशाला की जीवट वृति विलक्षण होती है। वह अपने भक्षय की बोटी बोटी नोच लेती है, पर जान से नहीं मारती। व्यथा प्रदान करती है। पर हत्या नहीं करती। इसी मरणासन्न अवस्था में उन्होंने अत्यंत मार्मिक तथा देश भक्ति पूर्ण कविता ‘मरण उन्मुख शैया पर’ लिखी। जिसे लिखते समय उन्हें आशा भी नहीं थी कि उसे पढ़ने के लिए भी जीवित रह पाएंगे।
मुक्ति और अनुबंध पत्र- 1911 में इंग्लैंड में राज्य रोहण का उत्सव हो या 1914 में इंग्लैंड और जर्मन का महायुद्ध। ऐसे अनेक अवसरों पर जाओ बंदी रिहा किए गए सावरकर बंधुओं को मुक्ति के इन महा पर्व से वंचित रखा गया। इधर हिंदुस्थान में नारायण सावरकर के नेतृत्व में हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। जिस पर करीब सत्तर हजार भारतीयों ने अपने हस्ताक्षर कर प्रांतीय एवं राष्ट्रीय सभा में यह प्रस्ताव पारित करवाया कि सावरकर बंधुओं और पंजाब के वोगा रतन चौधरी को सरकार छोड़ दे। यह प्रथम विश्व युद्ध का वह समय था जब यूरोप में प्रायः सभी राष्ट्र अपने-अपने राज बंदियों को बरी कर रहे थे।
सावरकर का तर्क था यदि सुधार सफल होते रहे तो क्रांतिकारी शांति मय मार्ग का अवलंबन करेंगे। अंततोगत्वा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय दबावों के फल स्वरुप ज्येष्ठ सावरकर बंधु गणेश को (मरणासन्न अवस्था में) 1922 में एवं वीर सावरकर को 6 जनवरी 1924 में निम्न प्रारूप भरवा कर कारावास से मुक्त किया गया- ‘वर्तमान राजनीति में कुछ निश्चित अवधि तक आपके लिए रोक रखी जाए तथा आपको स्थानबंद रखा जाए।’
सावरकर ने भी अधिकारियों के सम्मुख अपने मौखिक एवं लिखित आवेदनों में स्वीकार किया कि यदि आप राजनीति में हिस्सा नहीं लेने देंगे तो देश एवं मानव जाति की अन्य दिशा से देश सेवा करूंगा यदि मैंने बचन भंग भी किया तो आप मुझे पुनः आजन्म कारावास पर भेज सकते हैं…।
मुक्ति के दिन सावरकर का अभूतपूर्व स्वागत करने के लिए कारागार के बाहर देशवासी खड़े थे। सावरकर के मन में यह क्षोभ बना ही रहा कि रावण वध करके सीता मुक्ति का कार्य श्री राम ने किया। हमने बनवास तो गुप्ता, पर अंग्रेजों का राज्य हम नष्ट नहीं कर सके। इस प्रकार सावरकर ने कारावास अवधि में ‘अधिकार दो सहयोग लो। अधिकार नहीं तो सहयोग नहीं’ की नीति कार्यान्वित की। वास्तव में ‘मेरा आजन्म कारावास’ सिर्फ वीर सावरकर की ही नहीं अपितु कालापानी भेजे गए १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से लेकर 1922 की अवधि तक के भारत के वीर क्रांतिकारियों के दुखो कष्टों, अपमानित जीवन से सुख कर मृत्यु को गले लगा लेना और कुछ मुक्त होकर घर लौटने वाले सभी क्रांतिवीरों का ओजस्वी शैली में लिखा गया जीवंत दस्तावेज है।
सावरकर की इस गाथा को पढ़कर ही आज की पीढ़ी समझ सकेगी कि आजादी अमृततुल्य क्यों हैं? इन महावीरों ने काला पानी का कालकूट पीकर आने वाली पीढ़ियों के लिए आजादी रूपी अमृत का पान कराया है। सावरकर के शब्दों में स्वतंत्रता हमें मिली नहीं स्वतंत्रता बड़े से बड़ा बलिदान देकर प्राप्त की गई है। स्वतंत्रता मिली कहना सर्वथा मिथ्या है।
वीर सावरकर एवं उनके समस्त क्रांतिकारी साथियों का व्यक्तित्व कृतित्व आज भी राष्ट्र के लिए प्रेरणा पुंज है। बलिदानी को लख लख वंदन तुमने दिया देश को जीवन। देश तुम्हें क्या देगा अपनी आग अमर रखने को नाम तुम्हारा लेगा।