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“स्व के लिए प्राणोत्सर्ग : महारथी ठाकुर सरयू (सरजू) प्रसाद सिंह”

शत्-शत् नमन करते हुए 
आज जयंती पर विशेष

आईये गर्व एवं नमन करें महारथी सरजू प्रसाद सिंह को जिन्होंने सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भारत की रियासतों में सबसे कम उम्र (16 वर्ष) में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजाया था।

सन् 1826 में मैहर के ठाकुर दुर्जन सिंह की मृत्यु पर संपदा का उनके दोनों पुत्रों के बीच बँटवारा कर दिया गया था, जिसमें विष्णु सिंह को मैहर और प्रयागदास को विजराघवगढ़ की जागीर प्राप्त हुई थी। प्रयागदास कुशल प्रशासक थे, फलस्वरूप विजराघवगढ़ की रियासत समृद्ध होती चली गई परंतु दुर्भाग्य से सन् 1845 में प्रयागदास की मृत्यु हो गई, इनके पुत्र सरजू प्रसाद 5 वर्ष के थे, जो उत्तराधिकारी बने, इसलिए अंग्रेज़ों ने “कोर्ट ऑफ वार्डस” के अंतर्गत विजराघवगढ़ का प्रबंध रख लिया और मैनेजर साबित अली नियुक्त कर दिया। साबित अली अंग्रेजों के इशारे पर सदैव सरजू प्रसाद को कठोर नियंत्रण में रखकर अपमानित करता था। इस बात पर सरजू प्रसाद के मन ‘स्व’ की भावना बलवती होती चली गई।

सन् 1857 मे स्वतंत्रता संग्राम के आरंभ होते ही जबलपुर में महा महारथी शंकरशाह और रघुनाथशाह के बलिदान और क्रांतिकारी घटनाओं के चलते, विजराघवगढ़ के युवा ठाकुर श्रीयुत सरजू प्रसाद ने 16 वर्ष की उम्र में ही अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया तथा मैनेजर साबित अली को गोली से उड़ा दिया, कई सैनिक भी मारे गए, जल्दी उन्होंने मिर्जापुर सड़क पर अपना कब्जा जमा लिया। इस तरह अंग्रेजों के लिए मार्ग अवरुद्ध कर दिया। शीघ्र ही सरजू प्रसाद ने 3 हजार की सेना तैयार कर ली साथ ही बुंदेला सरदार नवाब सिंह और दौलत सिंह काना भी साथ थे, इन्होंने बिलहरी के किले में मोर्चा जमा लिया था।

सरजू प्रसाद को शाहगढ़ के राजा की पूरी सहायता थी। साथ ही महिपाल सिंह, नारायण सिंह, मानगढ़ के राजा, लल्ला छत्तर सिंह, दीवान शारदा प्रसाद, गनेशजू, बुद्ध सिंह, मुकुंद सिंह, दीवान दरयाब सिंह, शिवलाल बारी, रामप्रसाद ठाकुर आदि योद्धा थे।

24 अक्टूबर को सरजू प्रसाद के नेतृत्व में कैमोर और भांडेर क्षेत्र में भयंकर युद्ध हुए जिसमें अंग्रेजों की शर्मनाक पराजय हुई। इसके उपरांत जबलपुर से इरेस्किन ने कर्नल व्हिसलर को नई सेना लेकर कटनी भेजा जहां कटनी नदी के किनारे सरजू प्रसाद के सेनापति बहादुर खां ने मोर्चा संभाला। इस भयंकर युद्ध में बहादुर खां शहीद हो गए, परंतु सरजू प्रसाद के एक और सेनापति कृपाबोल ने – व्हिसलर और उसकी सेना को कटनी से स्लीमनाबाद तक जमकर खदेड़ा। दुर्भाग्यवश दूसरी ओर से विजराघवगढ़ को नीचा दिखाने के लिए रीवा राज्य और नागौद की सेनायें अंग्रेजों का साथ देने के लिए विजराघवगढ़ के समीप आ गईं परंतु सरजू प्रसाद के एक और सेनापति लाल सिंह दउआ ने इन संयुक्त सेनाओं को खदेड़ दिया, लेकिन पुनः विजराघवगढ़ की चारों ओर से घेराबंदी प्रारंभ हो गई और चौतरफा युद्ध आरंभ हो गया।

सरजू प्रसाद के 2 सेनानायक रामबोल और वंदन चाचा ने ‘रामबाण ‘ और ‘घनगर्जन’ तोपों की सहायता से हमला बोल दिया परंतु तीनों राज्यों की संयुक्त सेनाओं से घिर गए तथा घनघोर युद्ध के उपरांत उनका बलिदान हुआ।

महारथी रामबोल की पत्नी वीरांगना “नयनी” देवी ने मोर्चा संभाल लिया लेकिन नई सेना आ जाने से स्थिति बदल गई और लड़ते हुए वीरांगना “नयनी” देवी का भी बलिदान हुआ। सेनानायक कृपाबोल ने मोर्चा संभाला तब आमने-सामने की लड़ाई आरंभ हो गई थी, कृपाबोल ने कर्नल व्हिसलर को घायल कर दिया परंतु धोखे से व्हिसलर ने कृपाबोल पर पिस्तौल चला दी और महारथी कृपाबोल का भी बलिदान हुआ। दुर्भाग्य के क्षण थे महारथी सरजू प्रसाद ने पुनः तैयारी के लिए फकीर का वेश बनाकर विजराघवगढ़ से पलायन किया।

सन् 1864 में मुखबिरी हो जाने से सरजू प्रसाद पकड़े गए, बंदी बनाकर जबलपुर लाया गया उसके उपरांत काले पानी की सजा हुई। लेकिन जब उन्हें रंगून ले जाया जा रहा था तभी उन्होंने अपनी जाति की परंपरागत मर्यादा की रक्षा करते हुए, ‘स्व’ के लिए कटार भौंक कर इलाहाबाद में प्राणोत्सर्ग किया। आपके सुपुत्र ठाकुर जगमोहन सिंह – हिंदी साहित्य जगत के आधार स्तंभों में से एक थे।

कितना दुर्भाग्य है ना कि इस महा महारथी को सन् 1587 स्वतंत्रता संग्राम के राष्ट्रीय इतिहास में कहीं एक पंक्ति की जगह तक नहीं दी गई। एतदर्थ धिक्कार है, एक दल विशेष के समर्थक परजीवी इतिहासकारों और वामपंथी इतिहासकारों के इतिहास लेखन पर।

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर ठाकुर सरजू प्रसाद के गौरवशाली इतिहास पर विस्तृत शोध प्रकाशित हो रही है,यह संक्षिप्त आलेख, उसकी एक पंखुड़ी है।

लेखक:- डॉ. आनंद सिंह राणा